शुक्रवार, 30 दिसंबर 2022

ऑस्ट्रेलिया में लेखन कौशल दिखातीं रीता कौशल



     स्ट्रेलिया के पर्थ शहर में रह रहीं रीता कौशल मूलरूप से आगरा, उत्तर प्रदेश की रहने वाली हैं। इस समय  वह ऑस्ट्रेलियन गवर्नमेंट की लोकल काउन्सिल में फाइनेंस ऑफिसर के पद पर कार्यरत हैं तथा इसके साथ ही साथ हिंदी लेखन में कौशलता का नियमित रूप से प्रदर्शन कर रहीं हैं। 2002 से 2005 ईसवी तक सिंगापुर में हिंदी शिक्षण कर चुकीं रीता कौशल अब तक चार पुस्तकों का सृजन कर चुकीं हैं एवं इनके कई साझा संग्रह व इनके संपादन में 21 श्रेष्ठ बालमन की कहानियाँ ऑस्ट्रेलिया नामक पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है। इसके अतिरिक्त हिंदी समाज ऑफ वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया की वार्षिक पत्रिका ‘भारत-भारती’ के संपादन की जिम्मेवारी भी इन्होंने 2015 से 2020 ईसवी तक बखूबी संभाली है। इनकी रचनाएँ निरंतर विभिन्न समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं की शोभा बढाती रहतीं हैं एवं इन्हें इनके लेखन के लिए अनेकों पुरस्कार-सम्मान भी प्राप्त हो चुके हैं। हमने कुछ प्रश्नों के माध्यम से इनकी साहित्यिक यात्रा के विषय में जानने का लघु प्रयास किया है।

आपको लेखन का रोग कब और कैसे लगा?

रीता कौशल - जब से पढ़ना-लिखना सीखा तबसे। जहाँ तक मेरी याददाश्त जाती है ऐसा जान पड़ता है कि मैं खिलौनों की दुनिया की सदस्य कभी नहीं थी। हाँ पुस्तकें मुझे होश सम्भालने से ही प्रिय रही हैं व आज भी मेरी सर्वप्रिय मित्र हैं। मैं पुस्तकों के बीच में बेहद ख़ुशी महसूस करती हूँ। मैं ख़रीदकर, माँगकर, दूसरों से अदल-बदल कर हर तरह से पढ़ती रही हूँ। अब जिसे पढ़ने का इतना चस्का हो तो वह लेखन से कैसे अछूता रह सकता है।

लेखन से आप पर कौन सा अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ा?

रीता कौशल - मैंने जहाँ विज्ञान, गणित व लेखाकारी जैसे विषयों का ज्ञान जीवन बसर करने के लिए अर्जित किया, वहीं कविता, कहानी, भाषा, साहित्य मेरी आत्मा की खुराक बन कर मेरा जीवन तत्व बने हैं। अब जो चीज जीवन तत्व बन गई है और माँ सरस्वती के आशीर्वाद स्वरूप प्राप्त हुई है उसका कोई बुरा प्रभाव कैसे हो सकता है? लेखन ने मुझे एक अलग पहचान, मान-प्रतिष्ठा दी है। साथ ही समय के सदुपयोग का साधन दिया है। तो कुल मिलाकर सब अच्छा ही अच्छा हुआ है बुरा कुछ नहीं।

क्या आपको लगता है कि लेखन समाज में कुछ बदलाव ला सकता है?

रीता कौशल - जी बिलकुल ला सकता है। जो हम पढ़ते हैं, सोचते हैं उसका सीधा असर हमारी मानसिकता पर पड़ता ही है। और व्यक्ति की सोच से ही समाज की सोच का निर्माण होता है।

आपकी अपनी सबसे प्रिय रचना कौन सी है और क्यों?

रीता कौशल - वैसे तो इस प्रश्न का उत्तर देना किसी भी लेखक के लिए बेहद कठिन होता है। फिर भी आपने पूछा है तो मैं कहूँगी कि हाल ही में प्रकाशित मेरा उपन्यास ‘अरुणिमा’ मेरी सबसे प्रिय रचना है। ये मुझे इसलिए प्रिय है क्योंकि एक तो ये मेरा पहला-पहला उपन्यास है दूसरे इसमें एक अछूते विषय को कलमबद्ध किया गया है जो कि पाठकों के द्वारा खूब सराहा जा रहा है।    

आप अपने लेखन से समाज को क्या संदेश देना चाहती हैं?

रीता कौशल - मैंने अपने लेखन के माध्यम से समाज की सोच में बदलाव लाने का प्रयास किया है। हर कहानी में समाज को सकारात्मक दिशा प्रदान करता हुआ दृष्टिकोण देने की कोशिश की है, जो समाज को एकजुट होने का, अच्छी सभ्यता और संस्कृति, अच्छे संस्कार देने का संकेत देता है। मैंने अपने लेखन में अगर समस्या को उठाया है तो उसके समाधान की बात भी अवश्य की है।

साक्षात्कारकर्ता - सुमित प्रताप सिंह

गुरुवार, 29 दिसंबर 2022

साहित्य रथ पर सवार अभिमन्यु पाण्डेय 'आदित्य'

दिल्ली के रहने वाले अभिमन्यु पाण्डेय 'आदित्य' मूलतः उत्तरप्रदेश, जिसे इन दिनों उत्तम प्रदेश कहा जा रहा है, के प्रतापगढ़ जनपद के रहने वाले हैं। हालाँकि इन्होंने जन्तु विज्ञान से स्नातक की है, किन्तु इनके मन-मस्तिष्क में लेखन के जंतु वास करते हैं जिससे वशीभूत होकर इन्होंने  पत्रकारिता में परास्नातक किया और पूर्ण रूप से लेखन से जुड़ गए। लगभग सोलह वर्ष पत्रकारिता के रथ के रथी की भूमिका का निर्वहन करने के बाद इन्होंने लेखन के जंतुओं की आज्ञा पाकर अपनी प्रथम पुस्तक 'मुखर होता मौन' का प्रकाशन करवाया एवं साहित्य के रथ के रथी होने का भी सौभाग्य प्राप्त किया. साहित्य रथ पर सवार हो अभिमन्यु के मन में  साहित्य के प्रति ऐसी श्रद्धा उपजी कि काव्य संग्रह ‘नीलिमा’ के माध्यम से इन्होंने स्वर्गीय लाल सुरेश प्रताप सिंह ‘तृषित’ जी की रचनाओं व उनके लिए लिखे गए महाकवि सुमित्रानंदन पंत के हस्तलिखित पत्र को भी संकलित  कर एक धरोहर के रूप में प्रकाशित करवा डाला। फिलहाल अभिमन्यु दैनिक भास्कर के उत्तराखंड संस्करण के लिए दिल्ली ब्यूरो हेड के रूप में सेवाएं दे रहे हैं। हमने कुछ प्रश्नों के माध्यम से इनकी साहित्यिक यात्रा के विषय में जानने का लघु प्रयास किया है।

आपको लेखन का रोग कब और कैसे लगा?

अभिमन्यु पाण्डेय 'आदित्य' - मेरी नज़र में लेखन को रोग नहीं कहा जा सकता। ये तो माँ शारदा की कृपा होती है, जो अपने आप मिलती है। पढ़ते पढ़ते पता ही चलता, कब आपका लिखने का भी मन होने लगता है। फिर एक दिन आपकी साधना को थोड़ा बल मिलता है और आप कुछ भी लिखते हैं। दुनिया के लिए आपकी पहली रचना चाहे कैसी भी हो, लेकिन आपके अपने लिए वो अद्भुत ही होती है। आप उसे बार-बार पढ़ते हैं और मन ही मन खुश होते हैं। यहीं से आप लेखन के आधीन होना शुरू हो जाते हैं। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। हिंदी कविताएं पढ़ने का शौक था। आठवीं कक्षा तक हिंदी कविताओं में खूब रुचि रही। नौवीं कक्षा तक आते-आते एक दिन कुछ पंक्तियां लिखीं। कई बार पढ़ीं। खूब मजा आ रहा था। ऐसा महसूस हुआ कि मैं भी लिख सकता हूँ। फिर दो-तीन तक उन्ही पंक्तियों को दिमाग में घुमाता रहा और अंततः एक कविता तैयार हुई। मैं बता नहीं सकता कि वो क्या खुशी थी। कई परिचितों और दोस्तों को कविता पढ़वाई और सुनाई। मिली-जुली प्रतिक्रियाओं से कभी निराशा तो कभी उत्साह मिला। लेकिन वो दिन बेहद ही खुशी का दिन था, जब एक मित्र के पिताजी ने एक स्थानीय अखबार में उसे प्रकाशित करवाया। बस उसके बाद तो माँ शारदे की कृपा होती चली गई और विभिन्न मुद्दों पर लेखन शुरू हो गया।

लेखन से आप पर कौन सा अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ा?   

अभिमन्यु पाण्डेय 'आदित्य' - समाज में दो प्रकार के लोग होते हैं। एक जो प्रैक्टिकल होते हैं। उन्हें किसी के सुख दुख या जीवन के उतार चढ़ाव का उन पर कोई फर्क ही नहीं पड़ता। समाज के प्रति वो अधिकतर उदासीन रहते हैं। दूसरे होते हैं कुछ भावुक लोग,जो हर बात को दिल से लेते हैं। उस पर गम्भीर विचार करते हैं और उसमें अपनी भावनाएं जोड़ देते हैं और किसी निर्णय तक पहुंचते हैं। लेखन से जुड़ा व्यक्ति हमेशा भावनाओं के अधीन होता है। उसे समाज के प्रत्येक मुद्दे पर चिंतन और मनन की आदत होती है। किसी की पीड़ा,संताप,खुशी,दुख जैसे तमाम भावों से खुद को जोड़ कर ही वो अपने लेखन में उतार देता है। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। कई बार इसका लाभ भी होता है तो कई भावनाओं में बहकर नुकसान भी उठाना पड़ता है। संसार में हर प्रकार के लोग हैं। जाहिर है,कुछ भावनाओं की कद्र करते हैं तो कुछ उनसे खिलवाड़।

क्या आपको लगता है कि लेखन समाज में कुछ बदलाव ला सकता है?

अभिमन्यु पाण्डेय 'आदित्य' - जी बिल्कुल। समाज में आज भी यदि कुछ संस्कार और मानवता बची है तो वो सिर्फ लेखन की बदौलत ही है। इतिहास गवाह है कि समय-समय पर अपने समय के साहित्यकारों व कवियों  की रचनाओं  ने समाज को नई दिशा देने का काम किया है। लेखनीबद्ध होकर ही आज हमारे समाज की संस्कृति जिंदा है।

आपकी अपनी सबसे प्रिय रचना कौन सी है और क्यों?

अभिमन्यु पाण्डेय 'आदित्य' - वैसे तो मुझे मेरी अधिकांश रचनाओं से प्रेम है, लेकिन मेरी 'परदेशी' और 'बेटी' दो कविताएं मुझे बेहद पसंद हैं। 'परदेशी' कविता में मैंने गांव से शहर आए उस व्यक्ति की पीड़ा को दर्शाने की कोशिश की है, जो शहर में तमाम कष्ट और समझौते झेल कर जीविका कमाता है और उसके परिजन व गांव के यार दोस्त इसे परदेशी कह कर सम्बोधित करने लगते हैं। जिससे वो खुद को गांव से कटा हुआ पाता है। शहर की तकलीफों और समस्याओं में रहते हुए भी जो एक परदेशी के मन में भवनाएं जाग्रत होती हैं, वो कविता के माध्यम से कहने की कोशिश की है। जबकि वहीं 'बेटी' कविता में एक बेटी के जीवन की तमाम पीडाओं को उठाने की कोशिश की है। हमारे समाज मे आज भी बेटी बड़ी होने पर उस पर जो तमाम पाबंदियां आदि लगा दी जाती हैं, वो वास्तव में अपने आप में बहुत निंदनीय है।

आप अपने लेखन से समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं?

अभिमन्यु पाण्डेय 'आदित्य' - लेखन तो होता ही समाज की  दिशा और दशा को सकारात्मक करने के लिए है। ऐसे में मेरी भी कोशिश यही रहती है कि समसामयिक मुद्दों पर अपने विचार सकारात्मक ढंग से रख सकूं। इस साक्षात्कार के माध्यम से मैं समाज से अपील करना चाहता हूँ कि मोबाइल और इंटरनेट के इस युग में लेखन को भी महत्व मिले। आज की पीढ़ी जिस तरह से किताबों से दूरी बना रही है, उससे लेखन में भी लोगों की रुचि कम हो रही है। आज समाज को अच्छे साहित्य की आवश्यकता है, जो समाज को ही प्रोत्साहित करना होगा।

साक्षात्कारकर्ता - सुमित प्रताप सिंह 

बुधवार, 28 दिसंबर 2022

बहुरंगी उपन्यास है जैसे थे

     ज जब हम हिंदी साहित्य में पाठकों की कमी का दुखड़ा रोया करते हैं तो ऐसे में किसी उपन्यास का दूसरा संस्करण और वह भी मात्र 2 साल में आना इस दुखड़े को खारिज करता है। लेकिन शर्त है कि वह कृति रोचक और मनोरंजक शैली में लिखी गई हो। इस संदर्भ में 'जैसे थे' उपन्यास का दूसरा संस्करण आना उसके पठनीयता, रंजकता और रोचक शैली की गवाही देता है।

    आज जहां हास्य व्यंग्य 500 शब्दों की सीमा में आबद्ध होकर लिखा जा रहा है, वहीं अगर कोई पत्रिका 2000 शब्द युक्त व्यंग्य रचना मांग ले तो व्यंग्यकार दम तोड़ता सा प्रतीत होता है। क्योंकि लंबी रचना में हास्य और व्यंग्य को एक साथ साधना कठिन कार्य है। ऐसे में उपन्यास जैसी विधा में हास्य व्यंग्य साधना महत्वपूर्ण होने के साथ कठिन भी है। चूँकि उपन्यास लिखना ही मात्र धैर्य, साहस और समय की मांग नहीं करता बल्कि पढ़ने के लिए भी धैर्य और समय चाहिए। और आज हमारे पास सब कुछ है अगर कुछ नहीं है तो वह है समय और धैर्य। इस उपन्यास का संक्षिप्त कलेवर और इसकी पठनीयता ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया ।

      किसी उपन्यास का कथानक सीमित कलेवर में भी विस्तार लिए हो सकता है यह हमें इस उपन्यास में देखने को मिलता है। उपन्यास का कथ्य उत्तर भारत के एक गांव व्यस्तपुरा से शुरू होकर विनम्रपुरा थाने तक फैला है। इसी फैलाव के बीच लेखक ने अपनी बात कही है और समाज में विभिन्न स्तरों पर फैली विसंगतियों को पकड़ने का प्रयास किया है। हास्य की फुलझड़ियां और व्यंग्य की कटार दोनों से आप यहां रूबरू होते हैं।

        उपन्यास के शुरुआत में ही गाँव व्यस्तपुरा के माध्यम से लेखक वर्तमान समाज की व्यस्त दिखने-दिखाने की प्रवृत्ति पर कटाक्ष करता है। आज हम सभी घंटों सोशल मीडिया पर बिताते हैं लेकिन यदि रिश्तेदारों का आना या उनसे मिलने जाना हो तो हमारे पास समय नहीं है। हम व्यस्त हैं। व्यस्त न होने के बावजूद व्यस्त दिखाने की प्रवृत्ति हम सब में कहीं न कहीं मौजूद है, जो उपन्यास के व्यस्तपुरा गांव के हर व्यक्ति के माध्यम से दिखाने की कोशिश हुई है।

        उपन्यास में एक पात्र है कड़क सिंह। नाम के अनुसार कड़क हैं और विनम्रपुरा थाने के थानेदार हैं। इनके चारित्रिक गुणों से व्यस्तपुरा के लोग इतने प्रभावित हैं कि उनसे मिलने के लिए सब मिलकर विनम्रपुरा थाने तक पैदल यात्रा का कार्यक्रम बनाते हैं। नारद कुमार ऐसे पात्र हैं जो एक कथा से दूसरी कथा में अंतरण करते-कराते हैं। कथा इसी तरह से आगे बढ़ती है।

       अगर थानेदार कड़क सिंह की बात करें तो उनके चारित्रिक गुणों में साहस वीरता और आत्मसम्मान की जो भावना है वह विपरीत परिस्थितियों में भी विलीन नहीं होती। बचपन में ही कड़क सिंह के मां, भाई और बहन का गंगा स्नान के दौरान डूब जाना और पिता का एक्सीडेंट के दौरान अपंग हो जाना भी कड़क सिंह की जिजीविषा को तोड़ नहीं पाता। वह पढ़-लिख कर पिता की सेवा करता हुआ एक दिन थानेदार के उच्च पद तक पहुंचता है, जो किसी भी युवा के लिए प्रेरणास्रोत साबित हो सकता है। कड़क सिंह की नारद कुमार के माध्यम से कहानी सुनने के बाद ही व्यस्तपुरा वासी उसे मिलने के लिए पैदल यात्रा का कार्यक्रम निर्धारित करते हैं और उसे पूरा भी करते हैं।     

        हमारे समाज में सिनेमा के माध्यम से पुलिस की जो खराब छवि दिखाई जाती है वास्तव में इस पात्र के माध्यम से लेखक ने उस धूमिल छवि को साफ करने की सफल कोशिश की है। चूंकि लेखक स्वयं पुलिस विभाग से है तो उपन्यास में आए पात्र काल्पनिक नहीं हो सकते। लेखक इन पात्रों से वास्तविक दुनिया मे जरूर रूबरू हुए होंगे तभी कड़क सिंह जैसा पात्र वह वे सृजित कर पाए हैं। यह उनकी लेखकीय सफलता है। साहित्य का उद्देश्य ही समाज का हित है और समाज को प्रेरित करना साहित्यकार का दायित्व। यहां लेखक अपने दायित्व में पूर्णत: सफल होते दिखते हैं।

        व्यस्तपुरा गांव के माध्यम से लेखक ने शिक्षा जगत से लेकर सरकारी बाबू और अफसरों द्वारा किए जा रहे भ्रष्टाचार की भी पोल खोलकर रख दी है। व्यस्तपुरा गांव के विकास हेतु जो योजनाएं बनाई जाती हैं वह कभी पूरी नहीं हो पाती। 

        कथा के बीच से कथा निकालने का हुनर इस कृति में आपको दिखेगा। अभी कड़क सिंह की कथा चल ही रही होती है, कि भागे सिंह नामक चरित्र से हमारा परिचय होता है। यही वह पात्र है जिसका सहारा लेकर लेखक ने महानगरों में होने वाली ठगी का हास्य व्यंग्य शैली में पर्दाफाश किया है। भागे सिंह अपने रिश्तेदारों से मिलने के लिए दिल्ली आता है और घूमने के उद्देश्य से चांदनी चौक पहुंचता है। उसे यहां एक व्यक्ति मिलता है जो सस्ता मोबाइल मुहैया कराने के नाम पर भागे सिंह को ठग लेता है। मात्र 2000 रुपयों में मोबाइल के रूप में जो डिब्बा भागे सिंह को थमाया गया है उसमें पत्थर भरे होते हैं। यहां हम हास्य प्रयोग के बावजूद भागे सिंह के प्रति संवेदनशील होते हैं। बार-बार ठगे जाने पर ग्रामीण भागे सिंह शहर के हर व्यक्ति से डरता है जो उसके संपर्क में आता है। भागे सिंह द्वारा गांव वापस पहुंचकर शहर में दोबारा कदम ना रखने का प्रण लेना वास्तव में हर उस मासूम ग्रामीण का प्रण है जो शहरी कटुता का शिकार हुआ है। यहां मुझे उदय प्रकाश की तिरिछ कहानी याद हो उठी। इस कहानी का नायक भी डरते-डरते शहर पहुंचता है और जीवित व्यक्ति से लाश में तब्दील होकर गांव वापस आता है। वास्तव में यह शहरी संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है।

       भागे सिंह के साथ ही तोप सिंह की कहानी भी इसी क्रम में आती है। तोप सिंह कवि है और तुकबंदी करने में माहिर है। हास्य का एक उत्कृष्ट रूप आपको तोपसिंह के खानदान के नामकरण में भी दिखाई देगा। परदादा तमंचा सिंह है, दादा पिस्तौल सिंह है, पिता बंदूक सिंह और खुद वह तोपसिंह है। पात्रों के नामकरण में एक नई प्रयोगशीलता हमें दिखाई देती है।

         हमारे भारतीय समाज में पंडे-पुजारियों का बड़ा प्रभाव रहा है और अशिक्षित समाज में यह और अधिक है। गंडे-ताबीज के भरोसे हमारी अशिक्षित महिलाएं बच्चा पाना चाहती हैं। परिणाम स्वरूप यह ब्रह्मचारी सरीखे पंडे महिलाओं को अपना शिकार बनाते हैं। इस उपन्यास में अखंड ब्रह्मचारी के नाम से जो पुजारी है वास्तव में वह एक चोर, सट्टेबाज और चरसी है। एक मंदिर से धातु की मूर्ति चुरा कर गांव व्यस्तपुरा में पहुंचता है। चूंकि इस गांव के लोग अशिक्षित हैं तो इस चोर की कुछ कही बातें संयोग से पूरी हो जाती हैं जिसे गांव वाले भविष्यवाणी करार देकर उसे पूजने लगते हैं । हालांकि ब्रह्मचारी के रूप में उसका चरित्र नहीं बदलता और गांव की सुंदर महिलाओं पर उसकी अब भी कुदृष्टि है। दरगाह का खादिम भी उसके साथ इस प्रपंच में मिला हुआ है। जो व्यक्ति इनकी सच्चाई जान सकता है उन्हें यह अपने हथकंडो से रास्ते से हटाने में कामयाब होते हैं। वास्तव में यह प्रतीक है हमारे समाज के उन पंडों और मौलवियों का जो जनता के बीच रहकर न केवल उन्हें धार्मिक रूप से बरगलाते लाते हैं बल्कि महिला और बच्चियों को अपनी हवस का शिकार भी बनाते हैं।

         लेखक कथा के साथ-साथ विशेष टिप्पणियां भी करते चलते हैं जो समाज से लेकर राजनीतिक चेहरे को भी उखाड़ कर रख देती हैं। राजनीति में वामपंथ और दक्षिपपंथ की तर्ज पर लेखक सुविधा को भी एक पंथ के रूप में देखता हैं। यह वही पंथ है जिसे सुविधा के अनुसार मतावलंबी कभी इधर, कभी उधर जाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करता है। वास्तव में यह हमारे वर्तमान समाज का एक कटु सत्य है जो साहित्य से लेकर राजनीति तक देखने को मिलता। इस पंथ के घोर समर्थक मिल जाएंगे। इन्हें ही समाज में लुढ़कता लोटा, थाली का बैंगन आदि कहा जाता है। इनकी कोई जाति या धर्म नहीं होता। इस विषय में लेखक कहता है - सुविधा पंथ प्राणियों की जाति और धर्म सिर्फ और सिर्फ सुविधा पंथ ही होता है।

        जैसे-जैसे गांव वाले व्यस्त पुरा से विनम्र पुरा की तरफ जाते हैं अनेक कहानियां धीरे-धीरे खुलती हैं। एक कहानी दद्दा जी की भी है जो बुढ़ापे में गांव की एक लड़की पर लट्टू हो गए है। इस मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए उन्हें गांव में ही एक प्रेम गुरु भी मिल गया हैं जो आधुनिक प्रेम के तौर तरीके दद्दा को समझाता हैं। रोज डे, प्रपोज डे, चॉकलेट डे, टेडी डे के रूप में वैलेंटाइन डे का पूरा सप्ताह मनाने की दद्दा को हिदायत देता हैं। प्रेम के इन दिवसों को किस तरह से मनाने के लिए दद्दा जी आगे बढ़ते हैं यह पूरा विवरण हास्य परक है जो कथा में रोचकता पैदा करता है। वास्तव में दद्दा के माध्यम से प्रेम में यह बाजारवाद की घुसपैठ है। बाजार की पहुंच न केवल महानगरो या नगरों तक ही सीमित नही है बल्कि वह गांव की दहलीज तक पहुंच चुका है। इस बाजारवाद के कारण अब गांव का व्यक्ति छाछ नहीं कोक पीता है। ग्रामीण अनाज की रोटी नहीं बल्कि पिज्जा खाता है और गुलाब तथा चॉकलेट से वैलेंटाइन डे मनाता है। यह प्रेम के विकृत स्वरूप की पराकाष्ठा है। लेखक ने बड़े सलीके से यहां इस समस्या को उठाया है।

        लेखक ने मेडिकल साइंस में हो रही विभिन्न दवाइयों की खोज को भी अपने कटाक्ष का विषय बनाया है। डॉक्टर खोजी नामक पात्र के माध्यम से खोजी गई दवाई का इस्तेमाल व्यक्तियों को बकरी और बंदर जैसे जानवर बनाने तक पहुंचता है। यह पूरा प्रसंग बेहद हास्य व्यंग्य परक शैली में रचा गया है।

        क्योंकि लेखक साहित्यकार है इसलिए अकादमी में हो रही अनियमितताओं से वह वाकिफ है। ‘भाषा उठाओ अकादमी’ के माध्यम से वह न केवल अकादमी और उससे जुड़े हुए लोगों की पोल खोलता है बल्कि कवि और साहित्यकारों की भूमिका भी संदिग्ध है वह कैसे इन अकादमियों का सहयोग करते हैं यह भी इस उपन्यास में पढ़ा जा सकता है। 

        उपन्यास के अंतिम भाग में आकर लेखक खुद भी पुलिस वाला हो उठता है जहां वह पुलिस वाले कैसे टाइम पास करते हैं इस पर टिप्पणी करने से नहीं चूकता।

        उपन्यास के कथा के अतिरिक्त यदि पात्रों की बात करें तो संख्या थोड़ी ज्यादा भले है लेकिन जो नामकरण किए गए हैं वह हास्य की फुहार से आपको सराबोर अवश्य करेंगे। 

        जहां तक उपन्यास की भाषा का सवाल है वह पात्र अनुकूल है। जैसा पात्र है उसकी भाषा उसी परिवेश के अनुकूल गढी गई है। उदाहरण के लिए उपन्यास के मध्य में ट्रेन में बैठे हुए लोगों का एक दृश्य है जो अलग-अलग पृष्ठभूमि के हैं। एजुकेटेड महिला अंग्रेजी में ही बात करती है, साउथ इंडियन टूटी फूटी हिंदी में बोलता है, सरदार जी पंजाबी में बोलते हैं तो हरियाणवी अपनी हरियाणवी बोली में संवाद करता दिखाया गया है जो कथ्य की अनिवार्यता है।

        जहां तक उपन्यास के कलेवर का संबंध है वह 400, 500 या 700 पृष्ठों में नहीं मात्र 100 पृष्ठों में समाया हुआ है । मैं कहूंगी कि कलेवर के संक्षिप्त होने के कारण ही पठनीयता और संप्रेषणयत्ता कहीं कमजोर नहीं पड़ी है। शुद्ध मनोरंजक शैली में लिखे गए इस उपन्यास के संस्करण की पुनरावृतियां अवश्य होंगी। ऐसी मेरी इच्छा भी है और शुभकामना भी।

पुस्तक : जैसे थे

लेखक : सुमित प्रताप सिंह

प्रकाशक : सीपी हाउस, दिल्ली

पृष्ठ : 100

मूल्य : 120 रुपए 

समीक्षक : डॉ. अनीता यादव 

रविवार, 18 दिसंबर 2022

जैसे थे उपन्यास के द्वितीय संस्करण का हुआ लोकार्पण

   शोभना सम्मान समारोह के बीच सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुमित प्रताप सिंह के बहुचर्चित उपन्यास 'जैसे थे' के द्वितीय संस्करण का मंचासीन विद्वजनों द्वारा लोकार्पण किया गया। जैसे थे पर वक्तव्य की शुरुआत युवा लेखक अमित श्रीवास्तव द्वारा की गई। उन्होंने सुमित के व्यक्तित्व व कृतित्व पर बोलने के पश्चात् जैसे थे पर चर्चा करते हुए कि इस उपन्यास को बहुत रोचक शैली में लिखा गया है। सुमित हर परिस्थिति का सामना जैसे थे के साथ करते हैं। जब भी इनसे पूछो कि कैसे हैं तो इनका उत्तर होता है जैसे थे। हम आशा करते हैं कि सुमित 8 पुस्तकों की सीमा रेखा को पार कर शीघ्र ही पुस्तकों का शतक लगाएं।

इसके बाद इंस्पेक्टर सुरेंद्र शर्मा ने जैसे थे पर बोलते हुए कहा कि सुमित का जैसा व्यक्तित्व है वैसा ही उनका लेखन है। हम दोनों एक ही विभाग के हैं और जब हम एक यूनिट में साथ थे और जब भी मेरी इनसे मुलाकात होती थी तो ये अपने चेहरे पर मुस्कुराहट के साथ ही मिलते थे। इनके उपन्यास में इनकी मुस्कुराहट का प्रभाव दिखता है और अपने पात्रों व परिस्थियों से उपन्यास हास्य मिश्रित व्यंग्य को उत्पन्न करता है।

कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि सुयश कुमार द्विवेदी ने सुमित को उनके उपन्यास के द्वितीय संस्करण के लिए बधाई देते हुए कहा कि जैसे थे एक पठनीय उपन्यास है जिसे एक बार पढ़ना आरंभ करें तो समाप्त किए बिना छोड़ा नहीं जा सकता। इसकी कहानी व इसके पात्र पाठक वर्ग में रोचकता बढ़ाते हैं जो उपन्यास को अंत तक पढ़ने को विवश कर देते हैं। कार्यक्रम की विशिष्ट अतिथि डॉ. अनीता यादव ने जैसे थे पर वक्तव्य देते हुए कहा इस उपन्यास में कई कहानियां एक साथ सफर करतीं हैं। सुमित ने केवल 100 पृष्ठ के इस उपन्यास में जितने विषयों पर कटाक्ष किया है उतने विषयों को किसी 500 पृष्ठों के उपन्यास में भी नहीं उठाया गया होगा। चाहे खाली गांव वालों की कथित व्यस्तता हो या फिर शहर व शहरी जनमानस की संवेदनहीनता हो, चाहे प्रेम के नाम पर बाजारवाद हो या फिर धार्मिक आडंबर हो। सुमित की लेखनी ने इस उपन्यास में लगभग प्रत्येक विषय को लेकर कटाक्ष किया है।

मुख्य अतिथि ने कहा कि सुमित में लेखन की अपार संभावनाएं हैं।

अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए श्रीकांत सक्सेना ने कहा कि पुलिस में रहकर भी सुमित की व्यंग्य की सूक्ष्म दृष्टि है जो उनके लेखन में साफ दिखाई देती है। उनका यह उपन्यास रोचक एवं पठनीय उपन्यास है। इसमें व्यंग्य एवं हास्य की प्रचुरता है। उनका व्यंग्य में भविष्य उज्ज्वल है। 

कार्यक्रम के अंत में युवा लेखिका रुपाली सक्सेना ने सुमित को उपन्यास के द्वितीय संस्करण के लिए बधाई देते हुए निरंतर सृजन करने का आह्वान किया।

रिपोर्ट - संगीता सिंह तोमर  


रविवार, 16 अक्टूबर 2022

भुतहा सरकारी मकान

     जैसे एक आम आदमी के लिए सरकारी नौकरी पाने की तीव्र इच्छा होती है वैसे ही सरकारी नौकरी वाले जीव को सरकारी मकान पाने की दिली चाहत होती है। अब चूंकि सरकारी वेतन उसको और उसके परिवार को पालने में ही दम तोड़ देता है इसलिए निजी मकान के सपने देखना छोड़ सरकारी मकान को खोजना उसकी विवशता हो जाती है। वैसे देखा जाए तो सरकारी जीव के लिए सरकारी मकान अलॉट करवाना आसमान से तारे तोड़ कर लाने जितना ही आसान होता है। इस आसान काम को बहुत आसानी से पूरा करने के बाद जब उस बेचारे को इस बात का पता चलता है, कि जिस सरकारी मकान को उसने दुनिया भर के आसान उपायों को आजमा कर हासिल किया है वह तो भुतहा है तो उसका हाल धोबी के कुत्ते की भांति हो जाता है। सरकारी मकान अलॉट होने के बाद वह सरकारी जीव जिस मकान में किराए पर रह रहा होता है उसके मालिक को जल्द से जल्द मकान खाली कर सरकारी मकान में जाने की बात कह कर वह उसे धमकाते हुए एडवांस किराया देने से साफ इंकार कर चुका होता है। फलस्वरूप उसके मकान का मालिक अपने मकान को दूसरे किरायेदार से एडवांस लेकर उसके लिए बुक कर चुका होता है। अब उस सरकारी जीव के सामने केवल दो ही परिस्थितियां होती हैं कि या तो वह उस भुतहा सरकारी मकान में बस कर भूतों से दो – दो हाथ करे या फिर दूसरा किराए का मकान तलाशने के लिए जूते घिसे।

इससे पहले कि सरकारी जीव दोनों परिस्थितियों में से किसी एक का चुनाव करे आइए हम सरकारी मकान के भुतहा बनने की प्रक्रिया पर दृष्टि डाल लेते हैं।

सरकारी मकान जब कई सालों तक खाली रहता है तो उसके दो परिणाम होते हैं। पहला परिणाम होता है कि वह आसपड़ोस के लिए बहुत ही काम की वस्तु हो जाता है। पहले परिणाम के स्वरुप दूसरा परिणाम ये होता है, कि वह मकान आसपड़ोस वालों के अतिरिक्त बाकी कॉलोनी वासियों के लिए भुतहा घोषित हो जाता है।

उस भुतहा मकान में अंधेरा होते ही अजीबोगरीब आवाजें आने लगती हैं, जिनके बारे में ये बताया जाता है कि वो भूतों की आवाजें हैं। जबकि उस मकान में कभी आसपड़ोस के बेवड़े नशे में धुत्त होने के बाद लड़ते हुए कुटने-कूटने की ध्वनि उत्पन्न करते हैं तो कभी अगल–बगल के प्रेमी युगल जिगर से बीड़ी जलाने के उपक्रम में जुट कर रोमांटिक ध्वनियों के उत्सर्जन में अपना पावन योगदान देते हैं। पड़ोस के मकानों का आलतू–फालतू सामान उस भुतहा पड़े मकान की शोभा बढ़ाता है। रात में पड़ोस की भली नारियां अपना फालतू सामान भुतहा मकान में धरने के दौरान कभी–कभार जब फिसल कर धम्म से फर्श पर गिरती हैं तो गिरने के परिणामस्वरूप निकलीं उनकी चीखों को चुड़ैल की चीखें मान कर कॉलोनी के वीर निवासियों द्वारा उस स्थान से निकलने से बिलकुल परहेज कर लिया जाता है। आसपड़ोस के घरों के सामान रूपी कचरे की अधिकता से जब वायुदेव उस मकान से आवागमन करने को तिलांजलि दे देते हैं तो उस भुतहा मकान में सड़ांध के व्यवसाय में बहुत तेजी से वृद्धि होने लगती है।

अब चूंकि सरकारी जीव सरकारी कार्यालय और आम जीवन में जीवित भूतों से निरंतर जूझते हुए ही जीवन व्यतीत कर रहा होता है, इसलिए वह पहली परिस्थिति को ही स्वीकार कर सरकारी मकान में आने का निश्चय कर लेता है। उसे उस भुतहा सरकारी मकान के आसपड़ोस के भले लोगों द्वारा बहुत समझाया जाता है, लेकिन वह सरकारी जीव अपने निर्णय पर अटल रहता है। उसके अटल निर्णय के परिणामस्वरूप उस सरकारी मकान से भुतहा आवाजें आनी धीमे–धीमे बंद हो जाती हैं और उस सरकारी जीव व उसके परिवार द्वारा उस सरकारी मकान में गृह प्रवेश करने के साथ ही भुतहा आवाजें वहां से अपना बोरिया–बिस्तर समेटकर किसी अन्य खाली सरकारी मकान में जाकर डेरा डाल लेती हैं।

लेखक : सुमित प्रताप सिंह 

चित्र गूगल से साभार 

सोमवार, 10 अक्टूबर 2022

व्यंग्य की कढ़ाही चढ़ाते रामस्वरूप दीक्षित

    त्तर प्रदेश के महोबा जिले में जन्मे रामस्वरूप दीक्षित रीवा विश्वविद्यालय से कला स्नातक हैं। वह देश के विभिन्न समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में अपनी साहित्यिक उपस्थिति दर्ज करवाने के साथ - साथ लगभग एक दर्जन साझा संग्रहों के सहभागी बन चुके हैं तथा अपनी तीन स्वतंत्र पुस्तकों का सृजन कर रचनाकर्म में निरन्तर रत रहते हुए इन दिनों वह समकालीन व्यंग्य व्हाट्सएप समूह में वरिष्ठ व्यंग्यकारों के साथ बैठकर व्यंग्य की कढ़ाई चढ़ा उसमें रचना रुपी जलेबियां तलने में मग्न हैं। विसंगतियां, विद्रूता, भ्रष्टाचार, अश्लीलता इत्यादि सामाजिक बुराइयां जलेबियों का वेश धर व्यंग्य की कढ़ाही में इस दुर्भावना से कूदने को आतुर हैं, कि वे सब मिलकर उस कढ़ाही का राम नाम सत्य कर डालें, किंतु रामस्वरूप दीक्षित व उनके साथियों के साथ देश - विदेश के लेखक - साहित्यकार उनकी इस कुत्सित योजना के फलीभूत होने से पहले ही उन सबको तलकर करारी जलेबी के रूप में साहित्य प्रेमियों के समक्ष प्रस्तुत कर देते हैं। रामस्वरूप दीक्षित से हमने व्यंग्य की कढ़ाही में जलेबियां तलने से थोड़ी देर के लिए विराम लेकर हमारे कुछ प्रश्नों का समाधान करने का आग्रह किया, ताकि पाठक जन उनकी जलेबी तलने की यात्रा अर्थात साहित्यिक यात्रा को जानने का सुख प्राप्त कर सकें।

आपको जलेबी तलने माफ कीजिए लेखन का रोग कब और कैसे लगा?

रामस्वरूप दीक्षित - लेखन को मैं रोग नहीं, रोगों का इलाज मानता हूं। 1984 से लेखन के क्षेत्र में हूं। देश और समाज में हर क्षेत्र में मनुष्य या व्यवस्था निर्मित करुणाजनक व त्रासद स्थितियों में वांछित बदलाव के प्रति लोगों में चेतना जाग्रत करने के उद्देश्य से कुछ करने के विचार ने लेखन में प्रवृत्त किया। सफर जारी है और शरीर में शक्ति रहने तक जारी रहेगा।

लेखन से आप पर कौन सा अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ा?

रामस्वरूप दीक्षित - लेखन को अगर आप सोद्देश्य कर रहे हैं तो इसका प्रभाव आप या पाठकों पर सकारात्मक ही होता है। मेरे लेखन ने मुझे एक बेहतर व चेतनासम्पन्न मनुष्य बनने में मदद की।  अपने पूर्वाग्रहों से हमें हमारा लेखन ही मुक्त करता है। लेखन खुद से भी मुक्ति का मार्ग है। अपने व्यक्ति से परे जाकर ही आप ईमानदार लेखन कर पाते हैं। लेखन आपके भीतर साहस और विपरीत परिस्थितियों से लड़ने की ताकत पैदा करता है।

क्या आपको लगता है कि लेखन समाज में कुछ बदलाव ला सकता है?

रामस्वरूप दीक्षित - निश्चित ही लगता है। अगर यह न लगे तो लिखना व्यर्थ है। समाज में आज तक जो भी अच्छे बदलाव आए वे लेखन की वजह से ही। लेखन बदलाव का सबसे कारगर उपाय है। यद्यपि बदलाव की गति बहुत बार दिखाई नहीं देती क्योंकि वह , बाहरी न होकर अंतर्निहित चेतना के स्तर पर होता है , जिसका बहुत स्थूल रूप से पता लगाना संभव नहीं हो पाता। समय जैसे जैसे बीतता है , यह बदलाव साफ दिखाई देने लगता है। जरूरी नहीं कि लेखक अपने जीवन में अपने लिखे से होने वाले परिवर्तन को देख पाए। यह बात प्रतिबद्ध और ईमानदार लेखन के संदर्भ में ही कही जा रही है, क्योंकि प्रतिगामी व यथास्थितिवादी लेखन भी हर काल में होता रहा है, आज भी हो रहा है।

आपकी अपनी सबसे प्रिय रचना कौन सी है और क्यों?

रामस्वरूप दीक्षित - मैं अपनी हर रचना से बराबर प्रेम करता हूं । रचना हमारी संतान की तरह है जिसे जन्म देने में रचनाकार को , चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, गहरी और पीड़ादाई प्रसव वेदना सहन करनी होती है। फिर जन्म लेने वाली संतान कुरूप या विकलांग ही क्यों न हो उससे वैसा ही प्रेम जन्मदाता का होता है जैसा सुंदर ,सुडौल व ताकतवर संतान से। तमाम रचनाओं में से किसी एक रचना का प्रिय होना रचनाकार का खुद की अन्य रचनाओं को अप्रिय सिद्ध करना है। हर रचना की अपनी अलग पहचान, अलग व्यक्तित्व और अलग प्रभाव और रूतवा होता है। बहुत बार कोई रचना अपने रचयिता से भी बड़ी हो जाती है। किसी लेखक की सबसे प्रिय रचना उसके पाठक जी बेहतर बता सकते हैं और उसकी सबसे ताकतवर रचना के बारे में आलोचक।

आप अपने लेखन से समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं?

रामस्वरूप दीक्षित - वही जो मेरी रचनाओं में सन्निहित है। लेखक जो भी संदेश समाज को देना चाहता है वह उसकी प्रायः हर रचना में अंतर्निहित होता है। अलग से दिया जाने वाला संदेश , संदेश न होकर उपदेश होता है और मेरे अपने विचार से किसी भी लेखक को उपदेशक की भूमिका से खुद को बचाए रखना चाहिए।उ पदेशकों ने समाज का जाने, अनजाने बहुत अहित किया है और अभी भी कर रहे हैं।ले खक समाज को उपदेश या संदेश न देकर उससे सीधा संवाद करता है। उसकी हर रचना लोक को ही संबोधित होती है।

रविवार, 14 अगस्त 2022

तिरंगे की निश्चिंतता

    तिरंगा इन दिनों प्रफुल्लित हो मुस्कुरा रहा है। मुस्कुराए भी क्यों न आखिरकार उसे हर घर तिरंगा अभियान के अंतर्गत देश के चप्पे - चप्पे में लहराने का सुखद आनंद जो प्राप्त होने जा रहा है। जहां अधिकांश देशवासी तिरंगे को प्रसन्नता पूर्वक अपने - अपने घरों में फहराने की योजना बना रहे हैं, वहीं कुछ देशवासी विवशता व अनिच्छा का अपने मन-मस्तिष्क में घालमेल कर तिरंगा न फहराने की जुगत भिड़ा रहे हैं। इन दिनों जिस ओर भी दृष्टि दौड़ाओ वहां तिरंगा ही दिखाई दे रहा है। सड़कों पर वाहन चालकों से किसी न किसी प्रकार धन ऐंठने वालों ने भी आजकल तिरंगे की शरण ले ली है। उनके द्वारा भावनाओं का व्यापार कर वाहन चालकों को औने-पौने दामों में तिरंगे सौंपे जा रहे हैं। दुकानों पर बिकने को आतुर तिरंगे बाजारों की शोभा बढ़ा रहे हैं और साथ ही साथ कई बेचारों का जी कोयले की भांति जला रहे हैं। तिरंगा इन दिनों व्यस्त होने का एक माध्यम भी बन गया है। सरकारी कार्यालयों में छोटे - बड़े कर्मचारी तिरंगे के संसार में व्यस्त हैं। बड़े कार्यालयों से छोटे कार्यालयों में धड़ाधड़ तिरंगों की खेप भिजवाई जा रही है। आदेशानुसार छोटे कार्यालयों से कर्मचारियों की घर पर लहराते तिरंगे के साथ मनमोहक फोटो व सेल्फियां बड़े कार्यालयों की ओर सावधानी से मार्च करती हुईं पहुंच रहीं हैं। इस बार तिरंगा कुछ निश्चिंत सा है। उसका निश्चिंत होना स्वाभाविक भी है। अब परिस्थितियां जो उसके अनुकूल हैं। अब न तो उसे सरेआम जलाए जाने का डर है और न ही फाड़ कर अपमानित किए जाने का भय। इन दिनों निश्चिंतता उसका स्वभाव बन गई है। अब वह निर्भय और निश्चिंत हो हवा संग अठखेलियां खेलते हुए जमकर लहरा रहा है। देश में आयोजित किए जा रहे अमृत महोत्सव में तिरंगे को अमृत चखे जाने की अनुभूति हो रही है।

     अचानक कुछ कर्कश ध्वनियों को सुन तिरंगा विचलित हो उठता है। "मेरे दिल में देशभक्ति कूट - कूट कर भरी हुई है ये जरूरी तो नहीं कि मैं अपनी देशभक्ति का झूठा दिखावा करने के लिए अपने घर में तिरंगा फहराने का ड्रामा करूं।" "ये लोग घर-घर तिरंगा फहराने के षड्यंत्र के अनुसार सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कर रहे हैं।" "बाबू जी, हर गली शराब की दुकान योजना ने हमारी हालत पतली कर दी। शराब ने हमारा सबकुछ बिकवा दिया। हम तिरंगा घर पर फहराएंगे पर पहले हम बेघरों को घर तो दो, वरना हम नहीं फहराने वाले तिरंगा - विरंगा।" ये सब सुन कर तिरंगा सकुचाते हुए उदास हो धीमी गति से लहराने लगता है। तभी तिरंगे को जय हिंद और वंदे मातरम का घोष करती हुई भीड़ दिखाई देती है। उसे दिखाई देता है कि भीड़ के बीच में अपनी मातृभूमि के लिए अपने प्राण न्यौछावर करने वाले वीर सैनिक का पार्थिव शरीर तिरंगे में लिपटा हुआ उसके अपनों को अपने अंतिम दर्शन देने के लिए चला आ रहा है। ये दृश्य देखकर तिरंगा द्रवित हो उठता है और अचानक वह तन कर ये सोच कर गर्व से पुलकित हो लहराने लगता है कि जब तक देश की खातिर अपने प्राणों की आहुति देने वाले वीर सपूत हैं तब तक तिरंगे के सम्मान को कोई आंच नहीं आ सकती।

रविवार, 24 जुलाई 2022

गधों का फैसला

जब एक इंसान ने 

दूसरे इंसान को गधा कहा 

तो एक गधे से 

ये सहा न गया 

गधा नाराज हो बोला

बेशक हम खोता है

पर अपुन फैंकता नहीं

बल्कि कुछ न कुछ ढोता है

इंसानी फितरत को 

एक मासूम गधे पे मढ़ते हो

पक्का तुम सब इंसान 

हम गधों से जलते हो

तुम सब हम गधों का

गिराना चाहते हो हौसला

तो गधा बिरादरी भी 

करती है ये फैसला

अबकी बार किसी गधे से

कोई भूल हुई तो हम

ये नेक काम करेंगे

उस गधे को डांटेंगे-फटकारेंगें

दो-चार दुलत्ती मारेंगे

फिर उसे बेइज्जत कर

बेवकूफ इंसान कहेंगे।

* चित्र गूगल से साभार

रविवार, 17 जुलाई 2022

रूपाली सक्सेना के लेखन की संदूकची

      रूपाली सक्सेना का उनकी प्रथम पुस्तक 'स्नेह की संदूकची' के साथ हिंदी लेखन जगत में आगमन हुआ है। किसी भी लेखक की जब प्रथम कृति आती है तो उसके हृदय में इस बात की आशंका रहती है कि न जाने लेखक व पाठक जन की स्वीकृति उसको मिल पाएगी अथवा नहीं। संभवतः कुछ ऐसी ही आशंका रूपाली सक्सेना के हृदय में भी हो रही होगी। 58 कविताओं के इस कविता संग्रह का आरंभ लेखिका ने गणेश स्तुति रचना से किया है। इसके उन्होंने अपने आसपास उपस्थित प्रत्येक विषय पर अपनी कलम चलाने का प्रयास किया है।  

इस कविता संग्रह की शीर्षक कविता 'स्नेह की संदूकची' वास्तव में शीर्षक कविता बनने के योग्य है। इस कविता में उपस्थित भाव पक्ष हृदय स्पर्शी है एवं ये कविता संवेदना से ओतप्रोत है। शीर्षक कविता के अतिरिक्त इस कविता संग्रह में संग्रहित राजपूत रानी के अमर त्याग पर केंद्रित उनकी हाड़ी रानी रचना इस बात का आभास करवाती है, कि ऐतिहासिक पात्रों पर उनकी कलम कुछ और लोकप्रिय रचनाओं का सृजन कर सकती है। इन दोनों रचनाओं के अतिरिक्त इश्क़, मेरा बेटा बड़ा हो गया है, मेरी ख्वाहिशें, विक्षिप्त, पर्यावरण हमारा है, गर तुम कान्हा होते, स्तनपान इत्यादि रचनाओं के माध्यम से रूपाली सक्सेना लेखन जगत के मन ये आस जगाती हैं, कि वह भविष्य में अच्छी व सार्थक रचनाओं के माध्यम से हिंदी साहित्य सृजन में अपना सक्रिय योगदान देंगीं। 

पाठकजन रूपाली सक्सेना की इस कृति की कुछ रचनाओं की कुछेक भाषायी त्रुटियों व सशक्तता के थोड़े-बहुत अभाव को ये सोच कर अनदेखा कर सकते हैं, कि यह उनका प्रथम साहित्यिक प्रयास है और लेखन की इस लंबी दौड़ को पूरा करने के लिए अभी उन्हें बहुत लंबी यात्रा  करनी है। जिस दिन रूपाली सक्सेना इस यात्रा को पूरा करेंगीं उस दिन उनके लेखन की संदूकची में कोई न कोई ऐसी साहित्यिक रचना होगी जो उन्हें अमरत्व प्रदान कर देगी।

पुस्तक - स्नेह की संदूकची

लेखिका - रूपाली सक्सेना

प्रकाशक - संदर्भ प्रकाशन, भोपाल (म.प्र.)

पृष्ठ - 104

मूल्य - 250/- रुपये

समीक्षक - सुमित प्रताप सिंह, नई दिल्ली

शनिवार, 2 जुलाई 2022

साहित्य धर्म का निर्वहन करते विजय उपाध्याय

     हिमाचल प्रदेश लोक निर्माण विभाग में बतौर सिविल इंजीनियर कार्यरत विजय उपाध्याय को बीस वर्ष की आयु में साहित्य पढ़ते-पढ़ते एक दिन अनुभव हुआ, कि लेखक नामक जीव इनके मन-मस्तिष्क में भी वास कर रहा है। इस अनुभूति के पश्चात इन्होंने कलम उठायी और लिखने लगे। इनकी पहली रचना राष्ट्रीय दैनिक में प्रकाशित भी हुई। इसके बाद इन्होंने पीछे मुड़कर देखना अनुचित समझा। एक दशक तक इन्होंने दैनिक ट्रिब्यून, अजीत समाचार एवं अमर उजाला में पत्रकारिता की। इनकी रचनाएँ देश के जाने-माने समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं हैं। जहाँ इनके पुरखों ने पंडिताई करके सनातन धर्म का पालन किया, वहीं विजय उपाध्याय वर्षों से हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में अपनी नौकरी के साथ-साथ साहित्य धर्म का निर्वहन कर रहे हैं। हमने कुछ प्रश्नों के माध्यम से इनकी साहित्यिक यात्रा के विषय में जानने का लघु प्रयास किया है।

आपको लेखन का रोग कब और कैसे लगा?

विजय उपाध्याय - लेखन का रोग तो बीस बरस की उम्र में लग गया था, मगर उससे पहले पढ़ने का रोग लग गया। कहानियां मुझे बहुत अच्छी लगती। जब अक्षर ज्ञान हो गया तो पाठ्यक्रमों में लगी पुस्तकों में से कहानियां छांट कर पढ़ने लगा। फिर भाई-बहनों की किताबों से कहानियां ढूंढ कर पढ़ने लगा। घर में पुरखे पंडिताई करते आ रहे हैं इसलिये गीता प्रैस से कल्याण और बाकी किताबें घर आती थी। प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने तक गीता, रामायण, सुख सागर, महाभारत, गरूड़ पुराण और कुछ ज्योतिष की किताबें पढ़ चुका था। हाई स्कूल में पहुंचते और मैट्रिक करने तक पुराण पढ़ने की तीव्र इच्छा हुई तो पिता जी से अनुग्रह किया कि मुझे पुराण पढ़ने हैं। उन्होंने प्रबंध कर दिया तो वो भी पढ़े। बाद में कालेज पहुंचा तो मैग्ज़ीनों से वास्ता पड़ा। लाइब्रेरी में किताबें मिलने लगीं तो जो भी हाथ लगा वह पढ़ डाला। उस के बाद बड़ों और गुरूजनों ने जो सुझाया वह पढ़ डाला। कुख्यात और विख्यात लेखकों को पढ़ना आदत बन गयी। इसी बीच अनुभूति हुई कि आजकल जो कुछ अखबारों और पत्रिकाओं में छ्प रहा है वह तो मैं भी लिख सकता हूँ। पहले फीचर लिखे। जब वो छपे तो हौंसला बढ़ गया फिर लघुकथा और व्यंग्य लिखने लग गया। प्रतिक्रियाएं मिलती तो मन प्रफुल्लित हो जाता। तब तक पत्रकारिता में आ चुका था फिर तो सिलसिला ही चल निकला। लिखने और पढ़ने के अलावा कुछ और नही सूझा। पहली कहानी लघुकथा थी जो बीस बरस की उम्र में लिखी और उस वक्त दैनिक ट्रिब्यून में छपी थी। मैं सोच-समझ कर या जानकर कभी नहीं लिख सका। जब भी कोई बात या मुद्दा मुझे अंदर तक झकझोर देता है, तब लिखने की प्रेरणा देता है। एक तरह से ऊबकाई या प्रसव की तरह। जब तक मैं उसे शब्दों में ढालकर लिख नहीं देता तब तक भीतर की बेचैनी खत्म नहीं होती।

लेखन से आप पर कौन सा अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ा?

विजय उपाध्याय - लिखने-पढ़ने का मुझ पर बहुत प्रभाव पड़ा। एक छोटे से गाँव में, जहाँ ज्ञान प्राप्ति का कोई साधन नहीं रहा, किताबें ही मेरी दोस्त, हमसफर और मार्गदर्शक बन गयीं। ज्ञान चक्षु खुले तो आभास हुआ मुझे कुछ नहीं आता। ज्ञान पिपासा से पीड़ित हुए तो लिखने का भी उबाल आने लगा। इसका फायदा यह रहा कि हम जब भी किसी महफिल या विद्वानों के सानिध्य में बैठे और जब हमने संदर्भ सहित लेखन की बात की तो हमें सराहा गया और ज्ञान से आत्मविश्वास पैदा हुआ जो जीवन में बहुत जरूरी है।

क्या आपको लगता है कि लेखन समाज में कुछ बदलाव ला सकता है?

विजय उपाध्याय - लेखन और पठन से ज्ञान की प्राप्ति होती है मगर समाज में उससे बदलाव हुआ इस बारे कुछ नहीं कहा जा सकता। बदलाव लोगों की मानसिकता पर निर्भर है। बीड़ी, सिगरेट और शराब जैसी कई चीजों पर लिखा रहता है कि यह सेहत के लिए हानिकारक है, मगर लोग पढ़ कर भी कहाँ मानते हैं। यही स्थिति लेखन पर भी लागू होती है। लोग पढ़ते हैं मनोरंजन के लिए और फिर उससे सबक तो लेते हैं मगर उपयोग बहुत कम करते हैं। लेखन से हर दिशा का पता चलता है। लेखन हर देश काल का आईना होता है। समझदार लोग उस पर अमल कर अपना जीवन सरल बनाते हैं। अतः यह भी नहीं कहा जा सकता कि लेखन का प्रभाव नहीं होता। कम से कम मानसिक स्थिरता और शांति तो रहती ही है।

आपकी सबसे प्रिय स्वरचित रचना कौन सी है और क्यों?

विजय उपाध्याय - मेरी साहित्यिक रूचि कहानियों में है। अपनी लिखी कहानी की बात करुं तो मुझे 'पापा के नाम' कहानी बहुत प्रिय है। ये बहुत ही मार्मिक कहानी है। सात पोस्ट कार्ड पर बिना कोई शब्द गंवाए कसी हुई कहानी है। इसमें गरीबी और आर्थिक तंगी में फूटती कोंपल है तो बीमारी और बेरोजगारी की लाचारी भी है। ये कहानी निजी स्कूलों के खोखले आदर्शों  और छोटे बच्चों की संवेदनाओं को ताक पर रखती व्यवस्था की भी पोल खोलती है। दूसरी कक्षा की बच्ची के शब्दकोष के हवाले से कहानी कहना आसान नहीं है। अभी तक आलोचना के लिए इस में से कुछ मिला नहीं है। मेरी बेटी जब स्कूल जाने लगी तो वह हर दिन वहाँ घटने वालीं कुछ न कुछ घटनाएं शेयर करती और मैं बडे़ ध्यान से सुनता। इस कहानी का कथानक मेरी बेटी की ही देन है, मैने तो बस पत्र शैली में गूँथा है। ये छोटी और मारक कहानी है इसलिए मुझे सर्वाधिक प्रिय है।

आप अपने लेखन से समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं?

विजय उपाध्याय - मैं अपने लेखन से यह संदेश देना चाहता हूं कि जीवन से कृत्रिमता को हटा दीजिए। सरल और प्राकृतिक जियें। आडंबर और दिखावे से दूर रहें, जो व्यवहार आप को पसंद नहीं वह दूसरों से न करें, सरल और विनम्र रहें। जीवन बहुत छोटा है इसे किसी घमंड की छाया में बैठकर बर्बाद न करें।

गुरुवार, 30 जून 2022

हिंदी साहित्य की आस आशा शर्मा

     राजस्थान के बीकानेर जिले की आशा शर्मा पेशे से इंजीनियर और दिल से साहित्यकार हैं। इन्होंने 2014 ईसवी में लेखन आरंभ किया और इनकी लेखनी ने अनवरत चलते हुए सात पुस्तकों का सृजन कर डाला। इनकी रचनाओं ने जहाँ देश के प्रतिष्ठित समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में स्थान बनाया, वहीं अनेकों पुरस्कार-सम्मान इनकी झोली में आकर चैन की सांस ले रहे हैं। हिंदी साहित्य को बड़ी आस है कि आशा शर्मा नित्य नई रचनाओं से उसे समृद्ध करती रहेंगीं। हमने कुछ प्रश्नों के माध्यम से इनकी साहित्यिक यात्रा के विषय में जानने का लघु प्रयास किया है।

आपको लेखन का रोग कब और कैसे लगा?

आशा शर्मा - लेखन से भी बहुत पहले मुझे पढ़ने का रोग लगा था। लिखना शायद उसी रोग का साइड इफेक्ट है, जिसके लक्षण पहली बार 2014 ईसवी में दिखाई दिए थे। इसके बाद यह साइड इफेक्ट मुख्य रोग में बदल गया और तब से ही यह रोग लाइलाज बना हुआ है।

लेखन से आप पर कौन सा अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ा?

आशा शर्मा - जिंदगी में जब कोई नया अध्याय जुड़ता है तो जीवन पर उसका प्रभाव पड़ना लाज़िमी है। लेखन से भी बहुत से प्रभाव पड़े जिन्हें अच्छे या बुरे में बांटना मेरे लिए संभव नहीं। लेखन से जुड़ने के बाद मेरा सामाजिक दायरा बहुत बढ़ गया, जो कि एक अच्छा प्रभाव माना जा सकता है, लेकिन सामाजिक दायरा बढ़ने से निश्चित ही मेरा भी टाइम अर्थात व्यक्तिगत समय कम हो गया, जिसे बुरा प्रभाव कहा जा सकता है।

क्या आपको लगता है कि लेखन समाज में कुछ बदलाव ला सकता है?

आशा शर्मा - क्यों नहीं बदलाव ला सकता? कभी आपने देशभक्ति के गीत सुने हैं? उन गीतों को सुनकर सीमा पर खड़े सैनिकों की बाजुएं फड़कने लगती हैं। दर्दभरी कविताएं आंखों में पानी ला देती हैं। कितने ही ऐसे बड़े-बड़े सामाजिक आंदोलन हुए हैं, जो कलम की शक्ति से ही सफल हुए हैं। लेखक अपने समय से आगे चलते हैं। समाज में उठ रही नित नई समस्याओं के सकारात्मक समाधान कलम के माध्यम से ही लोगों तक पहुंचते हैं। लेखन से ही बच्चों में संस्कारों का बीजारोपण होता है। कुल मिलाकर मैं तो इस कथ्य से पूरी तरह सहमत हूँ, कि समाज में यदि कोई बदलाव ला सकता है वो कलम है।

आपकी सबसे प्रिय रचना कौनसी है और क्यों?

आशा शर्मा - ये तो आपने वैसा ही प्रश्न पूछ लिया, कि आपको अपनी संतानों में से सबसे अधिक प्रिय कौन सी है? लेखक को अपनी हर रचना संतान जैसी ही प्रिय होती है, लेकिन जैसे कोई संतान अपनी किसी विशेष योग्यता के कारण दिल के जरा अधिक नजदीक होती है उसी तरह कुछ रचनाएं भी हमारे दिल में अपना विशेष स्थान रखती हैं। मुझे अपनी बहुत सी रचनाएं समान रूप से प्रिय हैं। जिनमें से मैं अपनी कहानी 'साढ़े आठ बजे की कॉल'  का नाम ले सकती हूँ। इस रचना को मैंने एक अलग अंदाज में लिखा है। इसके अतिरिक्त मुझे अपनी एक पद्य रचना भी विशेष प्रिय है, जिसे मैंने दर्द के अतिरेक में लिखा था। बच्चों की बहुत सी कविताएं एवं कहानियां और कुछ लघुकथाएं भी मेरे दिल के बहुत करीब हैं।

आप अपने लेखन से समाज को क्या संदेश देना चाहती हैं?

आशा शर्मा - मैं किसी को कोई संदेश नहीं देना चाहती, लेकिन चूंकि मैं बच्चों के लिए अधिक लिखती हूँ इसलिए मेरी इच्छा है कि हमारे बच्चे आने वाले समय में अच्छे नागरिक बनें। मेरा प्रयास रहता है कि मैं अपनी रचनाओं के माध्यम से उन्हें अच्छी आदतें, अच्छा व्यवहार और अच्छा आचरण सिखाऊं। यदि बचपन संस्कारित होगा तो हर पीढ़ी आदर्श होगी। मैं यही कहना चाहती हूं कि हर परिवार अपने बच्चों को वो सभी संस्कार आवश्यक रूप से दे जो समाज को सही राह दिखाएँ और राष्ट्र की उन्नति में सहायक हों।

शनिवार, 25 जून 2022

राजा राम की महिमा गाते जयपाल सिंह परमार

     मध्यप्रदेश के पन्ना जिले के जयपाल सिंह परमार की साहित्यिक यात्रा सन् 1981 ईसवी से सामान्य शब्द संयोजन के साथ आरम्भ होकर आकाशवाणी एवं विभिन्न पत्र पत्रिकाओं की पगडंडियों से होते हुए 'कल्पवृक्ष सेंहुड़ लगता है' नामक काव्य संग्रह के पड़ाव तक पहुंच गई है। इनके अनुसार साहित्य के सागर में इनकी लेखकीय नौका के आगे का सफर ईश्वर की कृपा पर निर्भर है। राजा राम की महिमा गाते हुए जयपाल सिंह परमार निरंतर साहित्य सृजन में जुटे हुए हैं। हमने कुछ प्रश्नों के माध्यम से इनकी साहित्यिक यात्रा के विषय में जानने का लघु प्रयास किया है।

आपको लेखन का रोग कब और कैसे लगा?

जयपाल सिंह परमार - सन् 1981 ईसवी में पहली बार महाविद्यालय छात्र संघ का अध्यक्ष बनने पर मंच से कुछ पंक्तियाँ पढ़ने से मिली प्रशंसा से इस रोग का जन्म हुआ था। इसके बाद यह रोग उम्र के साथ साथ बढ़ने लगा फिर जैसा कि आप जानते है कुछ दिन बाद यह रोग लाइलाज हो गया। अब तो यह स्थिति है कि पुरानी खांसी की तरह जब चाहे उभर आता है।

लेखन से आप पर कौन सा अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ा?

जयपाल सिंह परमार - लेखन कार्य से मेरे ऊपर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ा, क्योंकि यह तो माँ सरस्वती की आराधना है और आराधना से किसी का बुरा नहीं होता बल्कि समय का सदुपयोग करने का एवं समाज में अपनी पहचान बनाने का अच्छा अवसर प्राप्त होता है। यही मेरे साथ हुआ है क्योंकि ग्रामीण परिवेश से महाविद्यालयीन शिक्षा के लिए महानगर आने पर मेरी जो पहचान बनी वह माँ सरस्वती की कृपा से मेरे लेखन की वजह से ही है।

क्या आपको लगता है कि लेखन समाज में कुछ बदलाव ला सकता है?

जयपाल सिंह परमार - यदि हम युगों-युगों से चली आ रही सामाजिक व्यवस्था के बदलाव का अध्ययन करें तो देख सकते हैं कि समाज में बदलाव का जन्म लेखन की कोख से ही हुआ है। हर बड़े सामाजिक बदलाव के मूल में उस समय का लेखक और लेखन ही रहा है। हाँ लेखन के द्वारा इस बदलाव के लिए आवश्यक है, कि जिम्मेदारी के साथ इसे उस व्यक्ति तक पहुंचाया जाए जिसके लिए उसे लिखा गया है। समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं विसंगतियों से व्यथित हो कर जो पीड़ा होती है, उसी से कुछ लिखने के लिए कलम उठ जाती है इस उम्मीद के साथ कि शायद इस व्यवस्था में कुछ बदलाव ला सकूं।

आपकी सबसे प्रिय स्वरचित रचना कौन सी है और क्यों?

जयपाल सिंह परमार - मेरी सर्वाधिक प्रिय रचना मेरे काव्य संग्रह 'कल्पवृक्ष सेंहुड़ लगता है' की दूसरे क्रम की रचना 'महिमा राम राजा की' है, जो ईश्वर के प्रति मेरा समर्पण है।

आप अपने लेखन से समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं?

जयपाल सिंह परमार - प्रत्येक लेखक की भांति मैं भी समाज में भाईचारे एवं देश प्रेम की भावना को बनाए रखने का सन्देश देना चाहता हूँ। यदि मेरे इस प्रयास से समाज में थोड़ा सा भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है तो मैं स्वयं को धन्य समझूंगा।

मंगलवार, 21 जून 2022

साहित्य के बंधु कुमार गौरव अजीतेन्दु

      बिहार की राजधानी पटना के कुमार गौरव अजीतेन्दु नौकरी के लिए संघर्ष करते-करते निराशा व अवसाद के भंवर में फँसकर डूबने ही वाले थे कि अचानक उनकी मुठभेड़ साहित्य से हो गयी। इस मुठभेड़ का सुखद परिणाम यह निकला कि अजीतेन्दु साहित्य के बंधु बन गए और गीत-नवगीत, छंद, कहानी, लघुकथा, मुक्तक, हाइकु इत्यादि विधाओं में लिखने और प्रकाशित होने लगे। इनकी हाइकू की एक पुस्तक मुक्त उड़ान प्रकाशित हुई है व गीत-नवगीत, छंद, कहानी, लघुकथा, मुक्तक, हाइकु समेत सभी विधाओं में इनके अनेक संयुक्त साहित्यिक संकलन आ चुके हैं। अजीतेन्दु देश के विभिन्न समाचारपत्रों-पत्रिकाओं व रेडियो स्टेशन पर अपनी नियमित उपस्थित दर्शा रहे हैं। हमने कुछ प्रश्नों के माध्यम से इनकी साहित्यिक यात्रा के विषय में जानने का लघु प्रयास किया है।

आपको लेखन का रोग कब और कैसे लगा?

कुमार गौरव अजीतेन्दु - अपनी बात कहूँ तो ये शौक जन्म से है। बचपन से ही मैं तुकबंदी करता रहा हूँ। हाँ अगर विधागत लेखन और नियमित रूप से बतौर लेखक काम करने की बात हो तो ये चीज तब शुरू हुई जब मैं निराशा में था और अवसाद में बस डूबने ही वाला था। 2011-12 के समयकाल में कई बार सरकारी नौकरी की परीक्षा पास की, लेकिन आगे चलकर काम नहीं बन सका। उसी समय इंटरनेट पर सर्फिंग करते हुए मुझे जागरण जंक्शन वेबसाइट दिखी, जो ब्लॉग लिखने की सुविधा देती है। जागरण जंक्शन पर लिखना शुरू किया और बस तब से ही ये लेखन यात्रा चल रही है। 

लेखन से आप पर कौन सा अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ा?

कुमार गौरव अजीतेन्दु - जी, जैसा कि मैंने अभी बताया कि लेखन मैंने तब शुरू किया जब मैं अवसाद के अंधेरे में डूबने वाला था तो सबसे पहला लाभ तो मुझे यही लगता है कि लेखन ने मुझे अवसादित होने से बचा लिया इसके अलावा लेखन से जो अनुभूति का दायरा और बल बढ़ता है, वो तो एडिशनल प्रॉफिट रहता है। बुरा प्रभाव ये कहा जा सकता है कि लेखन आपके मन को कोमल कर देता है। ये दुनिया ऐसी है कि हर जगह कोमलता के साथ आप नहीं चल सकते। सर्वाइवल के लिए थोड़ी कठोरता भी जरूरी है। 

क्या आपको लगता है कि लेखन समाज में कुछ बदलाव ला सकता है?

कुमार गौरव अजीतेन्दु - लेखक ही तो बदलाव लाता है। लेखन के जरिए जो वैचारिक यातायात की परिस्थिति बनती है, उससे समाज सीधे प्रभावित होता है। लेखन का विस्तार केवल हम भावुक कविताओं तक नहीं मान सकते बल्कि ये अखबार से लेकर रंगमंच और चलचित्रों की दुनिया जैसे सभी वृहत पक्षों में अपना दखल रखता है। इतिहास भी तो लेखन ही होता है। 

आपकी सबसे प्रिय स्वरचित रचना कौन सी है और क्यों?

कुमार गौरव अजीतेन्दु - अपनी तो सभी रचनाएँ प्रिय हैं। हाँ जिन रचनाओं पर माँ से खास तारीफ मिलती है, उनसे विशेष जुड़ाव हो जाता है। ऐसी ही एक कहानी प्यार नहीं खोना है, जो कि दो पीढ़ियों की लव स्टोरी है। वैसे तो क्राइम और सस्पेंस थ्रिलर लिखना पसंद करता हूँ, लेकिन कभी-कभी कुछ स्पेशल मूड में लव भी लिखा जाता है। 

आप अपने लेखन से समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं?

कुमार गौरव अजीतेन्दु - मैं खुद भी काफी प्रैक्टिकल रहने वाला इंसान हूँ और वही भाव लिखना भी चाहता हूँ। संदेश मेरा अपने पाठकों के लिए जीवन की वास्तविकता को समझाना है। मैं फिल्मी अंदाज का लेखन नहीं करता।


शनिवार, 18 जून 2022

आसमां छूने का जोश जगाते सुयश कुमार द्विवेदी

 

      त्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के सुयश कुमार द्विवेदी पेशे से सहायक लोक अभियोजन अधिकारी हैं, लेकिन हृदय से रचनाकार हैं। अब तक दो पुस्तकें लिख चुके सुयश अपनी कलम पाठकों में उत्साह बढ़ाने के लिए चला रहे हैं। इनकी पहली पुस्तक 'सपनों को अपने जी ले रे' जहाँ आपको अपने सपनों को साकार करने के लिए प्रेरित करेगी, वहीं शीघ्र ही प्रकाशित होने जा रही इनकी दूसरी पुस्तक 'छू ले आसमां' आपके भीतर ऊंचाइयों का आकाश छूने का जोश जगाएगी। सुयश की रचनाएँ विभिन्न समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं तथा लेखन के लिए शोभना सम्मान-2020 समेत अनेकों पुरस्कार-सम्मान प्राप्त कर चुके हैं। हमने कुछ प्रश्नों के माध्यम से इनकी साहित्यिक यात्रा के विषय में जानने का लघु प्रयास किया है।

आपको लेखन का रोग कब और कैसे लगा?

सुयश कुमार द्विवेदी -  मुझे हिंदी साहित्य पढ़ने का शौक बचपन से ही है। जब मैं कक्षा चौथी में था, तभी से मेरी दिलचस्पी कहानियों, कविताओं एवं नाटकों के प्रति काफी गहरी हो गयी। जब मैं कोई भी कहानी या काव्य की पुस्तक पाता तो उसे एक बार में पढ़ कर ही साँस लेता था। पढ़ते-पढ़ते कब मैंने लिखना शुरू कर दिया, मुझे ठीक से याद नहीं है। जहाँ तक मुझे याद है मैंने आठवीं कक्षा में अपनी  पहली कविता 'प्रेरणा' की रचना की थी।

लेखन से आप पर कौन सा अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ा?

 सुयश कुमार द्विवेदी - लेखन से मेरे जीवन पर बहुत ही सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। मुझे यह लगता है कि व्यक्ति के जीवन में सबसे अच्छा दोस्त कोई होता है, तो वो होती है पुस्तकें। मैंने अपने अब तक जीवन में सैकड़ों कहानियां, कविताएँ एवं दर्जनों उपन्यासों को पढ़ा है। आत्मकथा, यात्रा वृतांत, लघुकथाएं एवं नाटकों की कोई गिनती नहीं है। कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की लेखनी की सहजता और सरलता का मैं कायल रहा हूं। लेखन से व्यक्ति के जीवन में नए-नए विषयों के अध्ययन की जिज्ञासा, चिंतन की गुणवत्ता, व्यक्तित्व का निखार, समय की पाबंदी, आत्म अनुशासन एवं सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास होता है और ऐसा मैंने अनुभव भी किया है। 

क्या आपको लगता है कि लेखन समाज में कुछ बदलाव ला सकता है?

सुयश कुमार द्विवेदी - कहते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। लेखन से समाज में व्यापक प्रभाव पड़ता है। हर काल में समाज के चिंतकों, मनीषियों, ऋषियों, लेखकों एवं कवियों ने अपने लेखन के माध्यम से समाज को जागृत करने का पुरजोर यत्न किया है और वे काफी हद तक समाज में व्यापक परिवर्तन लाने में सफल रहे। जब-जब समाज को जरूरत पड़ी, इन लोगों ने समाज का मार्ग प्रशस्त किया है एवं अपनी लेखनी चलाकर समाज को दर्पण दिखाया है। संत कबीर का लेखन इसका सर्वोत्तम उदाहरण है।

आपकी सबसे प्रिय स्वरचित रचना कौन सी है और क्यों?

सुयश कुमार द्विवेदी - मैंने अब तक दो सौ से अधिक कविताओं और गीतों की रचना की है। मुझे मेरी सभी रचनाएँ पसंद हैं, क्योंकि मैं रचनाएँ व्यवसाय के लिए नहीं अपितु आत्मसंतुष्टि के लिए लिखता हूँ। मैं लिखता हूँ क्योंकि मुझे लिखना पसंद है। मेरी सबसे प्रिय रचना 'सुबह का अखबार' है। इस रचना के लिए मुझे गोरखपुर विश्वविद्यालय से प्रथम पुरस्कार भी मिल चुका है।

आप अपने लेखन से समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं?

सुयश कुमार द्विवेदी - सच कहूँ तो मैं अपने लेखन से समाज से कोई संदेश अभी नहीं दे सकता, क्योंकि मैं अपने आपको इस योग्य ही नहीं समझता। समाज को संदेश देने का कार्य बड़े लेखकों एवं कवियों का है। जैसा कि मैंने पहले ही कहा है कि मैं आत्मसंतुष्टि के लिए लिखता हूँ और अगर मेरे लेखन से यदि कोई व्यक्ति प्रेरणा पा सके तो यह मेरे लिए गौरव का विषय होगा।

बुधवार, 15 जून 2022

हिंदी लेखन जगत की सलामी बल्लेबाज रेनू सैनी

     दिल्ली के पंचशील विहार की निवासी रेनू सैनी लेखन जगत की सलामी बल्लेबाज हैं। सोलहवें वसंत में जब किशोर-किशोरियां किशोरावस्था के मद में खोए रहते हैं, उस समय रेनू सैनी ने लेखन में डूबकर अपनी पहली रचना का सृजन किया और इनकी वो रचना देश के प्रमुख समाचारपत्र में प्रकाशित भी हुई। इसके बाद इन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। देश के जाने-माने समाचारपत्रों व पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के साथ-साथ अब तक इनकी कुल 25 पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है तथा इनका अगला लक्ष्य पुस्तकों का अर्द्ध शतक जड़ने का है। इन्हें लेखन के क्षेत्र में अनेकों सम्मान व पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं तथा इनकी रचनाओं का कई भाषाओं में अनुवाद भी किया जा चुका है। हमने कुछ प्रश्नों के माध्यम से इनकी साहित्यिक यात्रा के विषय में जानने का लघु प्रयास किया है।

आपको लेखन का रोग कब और कैसे लगा?

रेनू सैनी - मुझे बचपन से ही लिखना और पढ़ना बेहद पसंद था। केवल दस वर्ष की आयु से अपने आप ही विचारों को कॉपी में क्रमबद्ध करना आरंभ कर दिया था। स्कूल में हिन्दी की शिक्षिका लिखने व पढ़ने के लिए बहुत प्रेरित करती थीं। संयोगवश हिन्दी की शिक्षिका और मैं हमनाम थे। इसलिए मुझे उनकी हर बात को पूरा करने में एक विशेष आनंद की अनुभूति होती थी । जब वह मेरे लेखन की प्रशंसा करतीं थीं तो बहुत अच्छा लगता था । इसी तरह लिखना और पढ़ना चलता रहा । पहली रचना सोलह वर्ष की आयु में नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हुई थी । उसके बाद तो रचनाएं प्रकाशित होने का सिलसिला चल पड़ा । 

लेखन से आप पर कौन सा अच्छा या बुरा प्रभाव पड़ा?

रेनू सैनी - लेखन से मुझ पर सदैव अच्छा प्रभाव पड़ा है। लेखन हमारी कल्पना एवं तर्कशक्ति को बेहद मजबूत कर देता है । लेखन करने और पढ़ने से व्यक्ति के अंदर परिपक्वता आती है । लेखन ने मेरा शारीरिक एवं बौद्धिक विकास किया है ।

क्या आपको लगता है कि लेखन समाज में कुछ बदलाव ला सकता है?

रेनू सैनी - जी बिल्कुल,  साहित्य समाज का दर्पण होता है । लेखन से केवल समाज ही नहीं बदलता अपितु भाषा को भी एक नवीन पहचान मिलती है । जैसा कि हाल ही में प्रसिद्ध साहित्यकार गीताजंलि श्री के वृहद् हिन्दी उपन्यास ‘रेत समाधि’ को अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिला है । इससे हिन्दी भाषा एक नए फलक पर स्थापित हुई है । प्रेमचंद की कहानियों से लेकर चित्रा मुद्गल, मन्नू भंडारी, ममता कालिया, सत्य व्यास और दिव्य प्रकाश दुबे जैसे लेखकों ने साहित्य को समाज के यथार्थ से जोड़ा है । 

आपकी अपनी सबसे प्रिय रचना कौन सी है और क्यों है?

रेनू सैनी - मेरे द्वारा रचित मेरी सबसे प्रिय रचना ‘आखरदीप’ नामक कहानी है । यह कहानी शिक्षा के ऊपर है । इसमें एक बच्चा निम्न वर्ग के सब लोगों के अंदर शिक्षा की अलख जगाता है और वे सभी बच्चे एक दूसरे को शिक्षित करने लग जाते हैं । 

आप अपने लेखन से समाज को क्या संदेश देना चाहती हैं?

रेनू सैनी - मैं अपने लेखन से समाज को यही संदेश देना चाहती हूँ, कि सभी लोग सकारात्मक रहें। देश की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने में अपनी योग्यता दर्शाएं । मैं सेल्फ हेल्प की रचनाएं अधिक लिखती हूं ताकि मैं स्वयं भी विपरीत परिस्थितियों का सामना हिम्मत और धैर्य से कर सकूं । मैंने यही अनुभव  किया है कि यदि हम पढ़ते-लिखते रहें और विपरीत परिस्थितियों में सकारात्मक साहित्य हाथ में हो तो हर कठिन से कठिन बाधा पर विजय पायी जा सकती है ।

शनिवार, 11 जून 2022

साहित्य के दीप जलातीं कात्यायनी सिंह 'दीप'

     कात्यायनी सिंह 'दीप' बिहार के सासाराम में पिछले कुछ वर्षों से साहित्य के दीप जला रहीं हैं। स्कूली शिक्षा के दौरान साहित्य के प्रति लगाव धीमे-धीमे इन्हें पाठन से लेखन की ओर खींच लाया। विज्ञान से स्नातक कात्यायनी की रचनाएं देश के प्रतिनिधि समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं  में उपस्थिति दर्ज करवा चुकी हैं तथा इनकी तीन पुस्तकें साहित्य जगत में पदार्पण कर चुकी हैं। हमने कुछ प्रश्नों के माध्यम से इनकी साहित्यिक यात्रा के विषय में जानने का लघु प्रयास किया है।

आपको लेखन का रोग कब और कैसे लगा?

कात्यायनी सिंह 'दीप' - साहित्य में मेरी रूचि बहुत पहले से ही है। मेरे माता-पिता दोनों साहित्य प्रेमी थे। घर में पत्रिकाएं और साहित्यिक पुस्तकें आया करती थी। शिवानी मेरी प्रिय लेखिका रही हैं। इनके सभी उपन्यास मैंने दसवीं कक्षा में ही पढ़ लिए थे। बाद के दिनों में रेणु, चित्रा मुद्गल, मनोहर श्याम जोशी, प्रभा खेतान एवं उषा प्रियंवदा इत्यादि लेखकों को भी पढ़ती रही। लेखन का रोग मुझे चार या पांच साल से लगा है। एक दिन एक कहानी को पढ़ते समय मुझे अनुभव हुआ, कि ऐसी कहानियां तो मैं भी लिख सकती हूँ। तब से अब तक लेखन से जुड़ी हुई हूँ और जुड़ाव ऐसा है कि यह एक रोग सा ही हो गया है।

लेखन से आप पर कौन सा अच्छा या बुरा प्रभाव पड़ा?

कात्यायनी सिंह 'दीप' -  लेखन से बुरा प्रभाव तो कभी नहीं पड़ा, बल्कि अच्छा ही प्रभाव पड़ा है। खुद की बातों को लेखन के माध्यम से व्यक्त करना, सकारात्मक सोच को बढ़ावा देता है। 

क्या आपको लगता है कि लेखन समाज में कुछ बदलाव ला सकता है?

कात्यायनी सिंह 'दीप' - हाँ, लेखन समाज में बिल्कुल बदलाव ला सकता है। हम लेखक लिखते ही हैं कि समाज में कुछ बदलाव ला सकें। और बदलाव आया भी है। सबसे बड़ा बदलाव तो स्त्रियों की स्थिति में आया हैं। शिक्षा का बदलाव,  अपनी इच्छाओं को व्यक्त करने का बदलाव, अपने अनुरूप काम करने का बदलाव, गलत परम्पराओं को नकारने का बदलाव, विवाह को लेकर सही-गलत फैसला करने का बदलाव,  मनपसंद कैरियर चुनने का बदलाव, समाज में व्याप्त  विसंगतियों में बदलाव।  लिखना और बोलना गलत के खिलाफ प्रतिरोध ही तो है। और प्रतिरोध दर्ज हो रहा है तथा समाधान भी मिल रहा है।

आपकी सबसे प्रिय रचना कौन सी है और क्यों?

कात्यायनी सिंह 'दीप' - जिस प्रकार माँ को अपने सभी बच्चे एक समान प्रिय होते हैं, उसी प्रकार एक लेखक को उसकी प्रत्येक रचना प्रिय होती है। हाँ कुछ रचनाएं होती हैं जो खास हो जाती है। मुझे अपनी दो रचनाएँ सर्वाधिक प्रिय हैं जो कि क्रमशः 'सुर्ख रंग' और 'बदतमीज' हैं। इनके सर्वाधिक प्रिय होने का कारण इनमें निहित संदेश है। जहाँ 'सुर्ख रंग' नामक कहानी में इसके पात्र पति-पत्नी अलग-अलग धर्म व जाति के होते हुए भी एक-दूसरे का सम्मान करते हुए खुशहाल वैवाहिक जीवन बिताते हुए समाज को प्रेम व सौहार्द का संदेश देते हैं। वहीं 'बदतमीज' नामक कविता ऐसी लड़की की करुण व्यथा है, जो विवाह के पश्चात ससुराल और ससुरालियों को प्रेम व सम्मान देने के बावजूद उनसे अपमान व वितृष्णा ही पाती है।

आप अपने लेखन से समाज को क्या संदेश देना चाहती हैं?

कात्यायनी सिंह दीप -  मैं अपने लेखन के माध्यम से समाज में फैली विसंगतियों, गलत परम्पराओं की समाप्ति एवं स्त्रियों के लिए समाज में स्थान और सम्मान दिलवाना चाहती हूँ।

बुधवार, 8 जून 2022

कलम घिसतीं संगीता सिंह तोमर

      संगीता सिंह तोमर दिल्ली में ही जन्मीं व पढ़ी-लिखीं। जब संगीता स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद कॉलेज में पहुँचीं तो उनके हृदय में साहित्य के प्रति प्रेम जाग्रत हुआ। रचना को पढ़ कर उसकी  समालोचना करना उनकी आदत में शुमार हो गया । समालोचना करते-करते एक दिन संगीता लेखिका बन गयीं। इनके लेखन का शुभारंभ ब्लॉग लेखन से हुआ। ऐसा समय भी आया कि इनका ब्लॉग 'कलमघिस्सी' इतना चर्चित हुआ, कि विश्व की चर्चित महिला हिंदी ब्लॉगरों में सूची में संगीता का नाम सम्मिलित किया गया। लघुकथा, आलेख, कहानी, बाल कहानी, व्यंग्य व कविता इत्यादि विधाओं में संगीता कई वर्षों से अपनी कलम घिस रही हैं। फिलहाल साहित्य सेवा करते हुए संगीता उच्च शिक्षा प्राप्त करने में व्यस्त हैं। हमने कुछ प्रश्नों के माध्यम से इनकी साहित्यिक यात्रा के विषय में जानने का लघु प्रयास किया है।

आपको लेखन का रोग कब और कैसे लगा?

संगीता सिंह तोमर - मुझे साहित्य पढ़ने का बचपन से शौक रहा है। पढ़ते-पढ़ते एक दिन लिखने लगी। शुभचिंतकों की शुभकामनाओं से मेरी रचनाओं को प्रकाशन का सौभाग्य मिला और इस प्रकार मेरी लेखन की गाड़ी चल पड़ी।

लेखन से आप पर कौन सा अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ा?

संगीता सिंह तोमर - जहाँ तक मेरा अनुभव है कि लेखन से मेरे व्यक्तित्व पर अभी तक तो कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ा है, बल्कि ये कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी कि मुझ पर लेखन से अच्छा प्रभाव ही पड़ा है।  जीवन में सकारात्मकता आयी है और नकारात्मकता दूर हुई है।

क्या आपको लगता है कि लेखन समाज में कुछ बदलाव ला सकता है?

संगीता सिंह तोमर - बिलकुल लगता है। मेरे विचारानुसार लेखन में वह शक्ति है जो समाज में बदलाव लाने की भूमिका का निर्वहन कर सकती है।

आपकी सबसे प्रिय रचना कौन सी है और क्यों?

संगीता सिंह तोमर - वैसे तो मुझे अपनी सारी रचनाएँ ही प्रिय हैं, किंतु मुझे मेरी कविता 'मुझे जन्म दो माँ' विशेष रूप से प्रिय है। भ्रूण हत्या से व्यथित होकर इस रचना का सृजन हुआ था। इस कविता का विषय मेरे मन को बहुत ही अधिक भाता है।

आप अपने लेखन से समाज को क्या संदेश देना चाहती हैं?

संगीता सिंह तोमर - प्रत्येक लेखक अपने लेखन से समाज को संदेश देना चाहता है। मैं भी उनमें से एक हूँ। अब ये समाज पर निर्भर करता है कि वह मेरी रचनाओं से संदेश लेना भी चाहता या नहीं।

शनिवार, 4 जून 2022

साहित्य की संदूकची भरतीं रुपाली सक्सेना

      ध्यप्रदेश के भोपाल के हर्षवर्धन नगर क्षेत्र की रुपाली सक्सेना की हिंदी साहित्य से भेंट एक पाठक के रूप में हुई थी। पेशे से वस्त्र सज्जाकार रूपाली सक्सेना का साहित्य से इतना लगाव हो गया, कि एक दिन इन्होंने लिखना भी आरंभ कर दिया। इनकी लेखन यात्रा का शुभारंभ इतना धुंआधार हुआ, कि इनकी रचनाएं देश भर के समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं की शोभा बढ़ाने लगीं। इनके द्वारा किए गए साहित्यिक परिश्रम के फलस्वरूप इनकी पहली पुस्तक 'स्नेह की संदूकची' प्रकाशित हुई व कुछ साझा संकलनों में भी इनकी रचनाओं ने अपनी दमदार भागीदारी सुनिश्चित की। अब तक रुपाली सक्सेना अपने लेखन के लिए कई सम्मान व पुरस्कार प्राप्त कर चुकीं हैं तथा अपनी साहित्य की संदूकची में नित प्रतिदिन नई-नई रचनाओं एवं सम्मान व पुरस्कारों को भरने में रत हैं। हमने इनसे कुछ प्रश्नों के माध्यम से इनकी साहित्यिक यात्रा के विषय में जानने का लघु प्रयास किया है।

आपको लेखन का रोग कब और कैसे लगा?

रुपाली सक्सेना - मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि साहित्यिक है अतः साहित्य से मेरा जुड़ाव बचपन से ही था। स्कूल-कॉलेज के दिनों में भी मैं साहित्यिक गतिविधियों में बढ़-चढ़कर भाग लिया करती थी। मैं लिखती तो थी, लेकिन अपने मन के उद्गारों को लिखकर मैं अपनी डायरी में छिपा दिया करती थी। विवाह होने के कई वर्षों के बाद अपनी बड़ी बहनों के प्रोत्साहन के बाद मैंने फिर से लिखना आरंभ कर दिया।

लेखन से आप पर कौन सा अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ा?

रुपाली सक्सेना - लेखन से मुझ पर बुरा नहीं बल्कि हमेशा की तरह सकारात्मक प्रभाव ही पड़ता है। जिंदगी जीने का और उसे समझने का एक नया दृष्टिकोण मुझे लेखन से ही मिलता है।

क्या आपको लगता है कि लेखन से समाज में कुछ बदलाव लाया जा सकता है?

रुपाली सक्सेना - जी बिल्कुल, मेरा विश्वास है कि लेखनी में जो शक्ति होती है वो किसी और में नहीं होती है।

आपकी सबसे प्रिय रचना कौन सी है और क्यों?

रुपाली सक्सेना - 'आसान नहीं है औरतों के लिए कविता ग़ज़ल या गीत लिखना' मेरी सबसे प्रिय रचना है। मेरी यह रचना उन सभी गृहणियों को समर्पित है, जो अपनी व्यस्त दिनचर्या में से समय निकाल कर सृजन कार्य कर रहीं हैं।

आप अपने लेखन से पाठकों को क्या संदेश देना चाहेंगीं?

रुपाली सक्सेना - मेरी कोशिश रहती है कि मैं अपने लेखन से समाज में व्याप्त कुरीतियों और नकारात्मकता को दूर कर सकारात्मकता का संचार करूँ।

मंगलवार, 31 मई 2022

नेपाल में हिंदी की पताका फहरातीं सुमी लोहनी


      सुमी लोहनी काठमांडू, नेपाल के भाटभेटनी क्षेत्र में निवास करते हुए पिछले कई वर्षों से लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हैं। कविता, कहानी, नाटक, हाइकू, हास्य व्यंग्य, लेख, जीवनी व संस्मरण इत्यादि विधाओं में उनकी लेखनी निरंतर चल रही है। लेखन के साथ-साथ वह अनुवाद व संपादन में भी रत हैं। उनकी अब तक कुल 12 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। नेपाली भाषा में प्रकाशित होने वाली साहित्यिक मासिक पत्रिका शब्द संयोजन व ऑनलाइन पत्रिका दीपश्री उनके संपादन में कई वर्षों से फलफूल रही हैं। इस समय सुमी लोहनी ऑस्ट्रेलिया प्रवास पर हैं। हमने उनके व्यस्त समय में कुछ क्षण लेकर कुछ प्रश्नों के माध्यम से उनकी लेखन यात्रा के विषय में जानने का लघु प्रयास किया है।

आपको लेखन का रोग कब और कैसे लगा?

सुमी लोहनी - मेरा बचपन मेरे ननिहाल में बीता। परिवार में मेरे बुजुर्ग नाना-नानी और मैं ही थे । मेरे साथ बातें करने व हँसने-बोलने के लिए कोई नहीं था । मुझे बहुत अकेलापन अनुभव होता था । उसी अकेलेपन ने मेरी पुस्तकों से दोस्ती करवा दी । ननिहाल में पढ़ने का या यूँ कहें कि साहित्यिक माहौल बिलकुल भी नहीं था। पर मुझे तो अपने नये दोस्तों यानि कि पुस्तकों से प्यार हो गया था । पुस्तक, समाचारपत्र या जो कुछ भी मुझे पढ़ने को मिलता था, मैं पढ़ती थी । अक्सर मैं छिपकर ही पढ़ा करती । मेरे नाना-नानी मुझे पुस्तकें पढ़ते देखते तो बहुत गुस्सा करते थे । मेरे द्वारा कोर्स की पुस्तकों के अलावा दूसरी कोई पुस्तक पढ़ना उन्हें पसन्द नहीं था । पर क्या करती मुझे तो साहित्य को पढ़े बिना चैन ही नहीं मिलता था। वे दोनों जितना मना करते, मुझे उतनी ही अधिक पढ़ने की इच्छा होती थी । सो छिपकर ही पढ़ती थी । इस तरह मुझे पढ़ने की लत लग गई । जब पढ़नेकी लत लगी तो लिखने का भी मन हुआ । फिर मेरे मन में जो आता, उसे मैं लिखने लगी। शायद आरंभिक दिनों के मेरे लेखन को  साहित्यिक लेखन नहीं कहा जा सकता पर लेखन का आरंभ तो कह ही सकते है । चिप-छिप कर लिखते-लिखते कब साहित्यिक लेखन की शुरुआत हो गई पता ही नहीं चला।  इस तरह अनजाने में ही साहित्यिक राह पर मेरे कदम चल पड़े। इस तरह लिखने का ये लाइलाज रोग उम्र भर के लिए मुझे लग गया।  

लेखन से आप पर कौन सा अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ा?

 सुमी लोहनी - मुझे नहीं लगता कि मेरे लेखन से मुझपर कुछ भी बुरा प्रभाव पडा हो । मुझ जैसी अन्तर्मुखी महिला के लिए लेखन से अच्छी बात और हो भी क्या सकती है।

 क्या आपको लगता है कि लेखन समाज में कुछ बदलाव ला सकता है?

सुमी लोहनी - हाँ, निसंदेह मुझे लगता है कि लेखन समाज में बदलाव ला सकता है ।

आपकी सबसे प्रिय रचना कौन सी है और क्यों?

सुमी लोहनी - जैसे माँ के लिए सभी सन्तानें प्रिय होती हैं, उसी प्रकार मुझे भी अपनी सभी रचनाएं प्रिय हैं। किसी एक को अधिक प्रिय बताकर मैं बाकी रचनाओं के साथ नाइंसाफी नहीं कर सकती । हाँ पाठकों को मेरी किसी भी रचना को गुण-दोष के आधार पर अच्छा या बुरा कहने का पूर्ण अधिकार है।

बुधवार, 4 मई 2022

नारियों की अनछुई दास्तां है हर स्टोरी

"आत्मा के सौंदर्य का शब्द रूप है काव्य,

मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य।"

कवि गोपालदास नीरज की उक्त पंक्तियों को चरितार्थ करते हुए काव्य परिवार में एक नए सदस्य का आगमन हुआ है और उस सदस्य का नाम है सुश्री नेहा बंसल। साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित अंग्रेजी कविताओं के संग्रह 'हर स्टोरी' के माध्यम से कवयित्री नेहा बंसल पाठकों के लिए उन नारियों की कहानियाँ लेकर आयीं हैं, जिनके बारे में समाज ने लिखना उचित नहीं समझा और यदि लिखा भी है तो उसे नगण्य की श्रेणी में ही रखा जाएगा। द्रोपदी, हिडिम्बी, अहिल्या, सूर्पनखा, मंदोदरी, रेणुका, यशोदा व उर्मिला जैसे ऐतिहासिक पात्रों के साथ-साथ कवयित्री ने नारी जीवन से जुड़े प्रत्येक विषय पर अपनी कलम चलायी है। वह विषय चाहे अपने स्वार्थ के लिए नारी को डायन घोषित कर मार डालने वाले समाज का हो, या वासना से अभिभूत सिरफिरों द्वारा तेजाब फेंककर किसी मासूम लड़की का चेहरा जलाकर उसका जीवन बर्बाद कर देने की घृणित मानसिकता हो या फिर नारी के शोषण के लिए अपनायी जाने वालीं सामाजिक कुरीतियों का वर्णन हो। कवयित्री ने प्रत्येक विषय को बड़े ही संवेदनशील व मार्मिक ढंग से अपने इस कविता संग्रह में उठाया है। नारी से संबंधित छोटे-बड़े विषयों को जिस गहराई व संवेदनशीलता से कवयित्री ने उस संग्रह में संकलित अपनी 39 कविताओं द्वारा प्रस्तुत किया है वह प्रशंसनीय हैं। हिडिम्बी पर केंद्रित कविता के साथ-साथ इस कविता संग्रह की कुछ अन्य कविताएं तो इतनी मार्मिक हैं, कि उन्हें पढ़कर पाठक का हृदय संवेदना से भर उठता है। प्रशासनिक सेवा में रहते हुए भी कवयित्री का संवेदनशील लेखन पाठकों को इस बात के प्रति आश्वस्त करता है, कि कवयित्री लेखन के साथ-साथ प्रशासनिक सेवा का संवहन करते हुए समाज की बेहतरी में निश्चित रूप से अपना भरपूर योगदान देंगीं। इसलिए मुझे आशा के साथ-साथ पूर्ण विश्वास है, कि सरस्वती कुल के सभी सम्मानित सदस्यगण एवं गंभीर पाठकगण कवयित्री के इस प्रथम प्रयास के लिए उनका हृदय खोलकर स्वागत करेंगे तथा साथ ही ये कामना करेंगे कि कवयित्री नेहा बंसल एक न एक दिन लेखन के आकाश में ध्रुव तारा बनकर  चमकें। एवमस्तु!

पुस्तक - हर स्टोरी

लेखिका - नेहा बंसल, नई दिल्ली

प्रकाशक - साहित्य अकादमी, दिल्ली

पृष्ठ - 78

मूल्य - 100 रुपये

समीक्षक - सुमित प्रताप सिंह, नई दिल्ली

मंगलवार, 12 अप्रैल 2022

व्यंग्य के तड़कों से भरपूर है जैसे थे उपन्यास

 पुलिस का पेशा बड़ा नीरस और सूखा सा लगता है। पुलिस का ख्याल आते ही एक छवि उभरती है, जिसमें हंसी कहीं दूर-दूर तक नहीं होती।  लेकिन सुमित प्रताप सिंह से मिलकर आपके दिमाग में बनी पुलिस की कड़क और खड़ूस वाली छवि निकल जाएगी।  सुमित प्रताप को मैंने पहली बार एक मीडिया कार्यक्रम में कविता पाठ करते सुना था। 'माँ' और 'वन्दे भारत' वाली  देशभक्ति की कविता थी। सुनकर मुझे यकीन नहीं हुआ कि ये कवि नहीं पुलिस पर्सन हैं।  ये तो शुरूआत थी बाद में पता चला कि महाशय कवि कम व्यंग्यकार अधिक हैं, जो सुमित के तडके नाम से अपनी फेसबुक वॉल पर हंसी के खूब तड़के लगाते हैं। 

उत्सुकता बढ़ी तो उनकी लिखित किताब 'जैसे थे' पढ़ी। मेरे लिए इस किताब को पढ़ना एक अलग अनुभव था।  व्यंग्य की शेप में पुलिस का पूरा अनुभव इसमें बोल रहा था। इस किताब में उन्होंने बड़ी सहजता से झूठ, आडम्बर और अपराध के परदे खोले हैं।  जैसे-जैसे किताब आगे बढ़ती जाती है, समाज की परतें प्याज की तरह खुलती चली जाती हैं।

कहानी की शुरुआत व्यस्तपुरा गाँव की चौपाल से होती है। व्यस्तपुरा के माध्यम से लेखक ने बिजी फॉर नथिंग के कच्चे चिट्ठे उधेड़े हैं। जैसे वो बताते हैं कि व्यस्तपुरा के वासी इतने व्यस्त थे कि पड़ोस के गाँव वाले उनसे चिढ़ने लगे कि आखिर ये इतने व्यस्त कैसे रहते हैं।  लेखक ने पात्रों के नाम भी बड़े रोचक चुने हैं। भोलेभाले गाँव वालों की कहानी नारद कुमार के सवाल-जवाब से आगे बढ़ती है। लेखक सुमित के लेखन की ये बात मुझे ख़ास लगी कि उनकी कहानी में करेक्टर 'ओपोसिट कम्पलीमेंट' को बड़े अद्भुत तरीके से निभाते हैं। जैसे विनम्रपुरा थाने का नया थानेदार कड़क है, बाबा सबसे बूढ़े हैं लेकिन नाम बालक है।  थानेदार कड़क सिंह  एक मजनू को सड़क पर हीरोगीरी दिखाते देख कर आग बबूला हो जाते हैं और उसका आधा सर मुड़वा देते हैं। लेख उस वक्त की याद दिलाते हैं जब ये यूपी में बड़ा आम था, लफंगो को सबक सिखाने का शानदार तरीका।  ऐसे ही कहानी का पात्र  पुरानी फिल्मों के वो सीन याद दिला  देते हैं जिसमे शहर और गाँव के कल्चर के फासले दिखते हैं।  यहाँ भी सुमित अपने ओपोसिट कोम्प्लीमेंट वाले स्टाइल में लिखते हैं कि कैसे 'भागे सिंह' शहर पहुंचते हैं और कैसे उनके रिश्तेदार बड़ी बेरूखी से स्वागत करते है। बेचारे रात बालकनी में मच्छरों के साथ बिताते हैं और दिल्ली दर्शन करते हैं और लौट के बुद्धू वापस गाँव आकर ही राहत की सांस लेते हैं।  कहानी के माध्यम से दो  गाँव वालों के बीच की दुश्मनी भी बखूबी दिखाई है|  इतना ही नहीं साधू और मौलाना के वेश में छुपे अपराधियों की कहानी को शामिल करके सुमित  अपराधियों की चतुराई और समाज के आडम्बर और नादानी की पोल भी खोलते हैं। कहानी छोटे-छोटे चैप्टर में बंटी है। जो पढ़ने में काफी सहज लगती है। सुमित जी को खुद कहानी सुनने का शौक है लेकिन इस शौक के कारण हमें भी बड़ी मजेदार और सुन्दर कहानी सुनने को मिली, युवा साहित्यकार सुमित जी साधुवाद और बधाई के पात्र हैं। 

सुमित जी की अगली किताब की प्रतीक्षा रहेगी।

- डॉ. तरुणा एस. गौड़

संपादक, लीड्स इंडिया ग्रुप, दिल्ली

गुरुवार, 24 मार्च 2022

रोचक है जैसे थे उपन्यास

    


     हाल ही में मेरे यशस्वी मित्र सुमित प्रताप सिंह की नवीनतम पुस्तक 'जैसे थे' जो कि उपन्यास के रूप में प्रकाशित हुई है उसे पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ।  अमूमन ज्ञानीजन पुस्तक पढ़कर उसकी समीक्षा करते हैं, जो कि एक नितांत अलग स्तर है पर मुझ जैसे साधारण पाठक जो कुछ भी पढ़ते हैं उस पर अपनी त्वरित प्रतिक्रिया ही दे सकते हैं। देखा जाए तो लेखक और पाठक के बीच में ही कहीं पर बैठा होता है समीक्षक जो वस्तुतः पाठक को बताता है कि अमुक पुस्तक में पढ़ने योग्य क्या अच्छा या बुरा है और वहीं लेखक को बताता है कि उसने उस पुस्तक के लेखन में कहां पर गलती की, पर बात यदि पाठक से सीधा लेखक तक पहुंच जाए तो कुछ और ही बात है। इसी क्रम में मुझे भी लगा कि मैं अपनी बात सीधा सुमित तक पहुंचाऊं।  वैसे तो सुमित अभी तक की लेखन यात्रा में अपने को एक विशिष्ट विधा में जिसे कि व्यंग्य कहा जाता है और जो कि सामाजिक जन-जागरण का सबसे सशक्त माध्यम है में अपने को स्थापित कर चुके हैं और एक मुकाम पर बैठे हुए दृष्टिगत होते हैं। अब बात करते हैं सुमित के उपन्यास 'जैसे थे' पर। चूंकि मैं स्वयं लंबे समय या यूं कहें कि बचपन से ही पढ़ने में एक अच्छा-खासा समय देते आया हूं तो प्रथम दृष्टि में ही यदि कोई पुस्तक मुझे आकर्षित न करे तो उसे फिर से हाथ में उठाना मेरे लिए मुश्किल हो जाता है परंतु सुमित की पुस्तक 'जैसे थे' मैंने वन-गो में पढ़ डाली। यह तो निश्चित है कि पुस्तक रोचक है और उतने ही रोचक है पुस्तक के कथानक के पात्र व स्थान। वह चाहे पत्रकार नारद कुमार हो, कवि तोप सिंह या कि विनम्रपुरा थाने का थानेदार कड़क सिंह। यहां तक कि उपन्यास के केंद्र में उल्लिखित गाँव ही अजब से नाम वाला व्यस्तपुरा है। सुमित ने इस उपन्यास में हास्य विनोद के प्रसंगों के साथ साथ पुलिस थाना, छिछले कवि, साहित्यिक अकादमियों, धार्मिक अंध श्रद्धा, समाज में व्याप्त अन्य विसंगतियों और पुजारी व दरगाह के खादिम के माध्यम से धार्मिक घालमेल पर भरपूर व्यंग्य किया है।  आशा करता हूँ सुमित इसी प्रकार से अपनी लेखनी तीक्ष्ण करते रहेंगे और निरंतर अपना लेखकीय योगदान देते रहेंगे।

- धर्मेंद्र गिरी, नई दिल्ली


गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022

व्यंग्य : चुनाव और पुलिस


    र बार चुनाव आता है और आकर चला जाता है। इस दौरान समाज के हर वर्ग की सुध ली जाती है, पर बेचारी पुलिस पर कोई राजनीतिक दल और उसका नेता ध्यान नहीं देता। ऐसा भी हो सकता है कि बेचारी पुलिस किसी वर्ग की श्रेणी में आने के योग्य ही न हो। जब भी वेतन की वृद्धि की बात आती है तो आपसी कटुता को ताक पर रखकर सभी माननीय एक हो जाते हैं। अगर माननीय क्रमशः पार्षद, विधायक और सांसद बन जाते हैं तो वे तीन-तीन पेंशन के हकदार हो जाते हैं, पर पुलिसकर्मी इस मामले में इतना भाग्यशाली नहीं होता है। वह 24 घंटे ड्यूटी के बंधन में बँधे रहने के बावजूद समुचित वेतन पाने का भी हकदार नहीं है। एक पुलिसकर्मी को ऐसी-ऐसी परिस्थितियों व ऐसे-ऐसे स्थानों में अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना पड़ता है, कि उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। कभी उसे जेठ की दुपहरी में जलना पड़ता है, कभी मूसलाधार बारिश में भीगते हुए काँपना पड़ता है तो कभी पूस की रात में हाड़ कंपाने वाली ठंड में ठिठुरना पड़ता है। सुनसान इलाके में अंधेरी रात में पिकेट पर आसपास कुछ भी खाने को न मिल पाने के बाद भूख को बर्दाश्त करता हुआ पुलिसवाला आकाश में पेंशन रुपी कल्पित तारे को देखकर इस बात का संतोष करते हुए  अपनी ड्यूटी में कर्मठता से जुटा रहता था, कि जब कभी वह सेवानिवृत्त होगा तो पेंशन के सहारे अपने परिवार संग अपना बाकी जीवन चैन की बंशी बजाते हुए बिताएगा,  पर अब तो नई पेंशन योजना के तहत वो आस भी कबकी टूट चुकी है। पुलिस चाहे लाख अच्छे कार्य कर ले, पर उन पर कभी  ध्यान नहीं दिया जाता, किंतु यदि उससे भूले से भी जरा सी चूक हो जाये तो उसकी आफत आ जाती है। कभी पुलिस के नाम से बदमाशों को पसीना छूट जाता था पर अब बदमाश तो बदमाश बल्कि आम आदमी भी बिना-बात के पुलिस को पीटने की फ़िराक में रहता है। पुलिस को संगठित होकर अपनी बात कहने का भी अधिकार नहीं है, जो संगठित होकर अपने दुःख और परेशानी सरकार के सामने बयाँ कर सके। इसीलिए  पुलिस से जब  कभी उसके वर्तमान हालात के बारे में पूछा जाता है तो पुलिस की बदहाल बैरकें, जर्जर स्टाफ क्वार्टर, थकी-मांदी वर्दी और नींद से भरी हुयी अलसाई हुईं आँखें एक साथ उदासी से मुस्कुराते हुए धीमे से स्वर में कहती हैं जैसे थे।

लेखक : सुमित प्रताप सिंह

बुधवार, 12 जनवरी 2022

व्यंग्य : मूँछ का संकटकाल


     देश के हृदय मध्यप्रदेश में मूँछ ने इन दिनों बवंडर मचाया हुआ है। मूँछ धारियों के साथ-साथ मुछमुंडों के बीच मूँछों की चर्चा का बाजार गर्म हो रखा है। सभी सोच रहे हैं कि आखिरकार मूँछ ने ऐसा क्या गुनाह कर दिया जो उसके पीछे इतना सब हो गया। जब मूँछ से सीधे जाकर ये सवाल पूछा गया तो उसने कड़क अंदाज में पूरी नरमी से पूरे हालात बताए कि मूँछ विवाद में उसका कोई हाथ नहीं है। वो तो मूँछ भत्ते के सहारे फल-फूल कर हृष्ट-पुष्ट बनने के अभियान में लगी हुई थी, पर उसे न जाने  किस मुएँ की नज़र लगी कि  उसके अस्तित्व पर ही खतरा मँडराने लगा। वो तो भला हो स्वाभिमान महाराज का जिन्होंने एन वक़्त पर आकर उसे बाल-बाल बचा लिया।

    स्वाभिमान के अलावा राजपूती आन-बान ने भी मूँछ की रक्षा करने में बराबर की भूमिका निभाई। मूँछ अपने ऊपर अचानक आए इस खतरे से निबट कर अब इस विचार-विमर्श में डूब रखी है, कि आखिर उसके होने से भला किसी को क्या नुकसान अथवा आपत्ति है जो उसके सफाए का यूँ तुग़लकी फरमान सुना दि या गया। जिस लोकतंत्र में देशवासी कुछ भी करने की आजादी का मजा लेते हुए मर्यादा को जैम कर कूट  रहे हैं, उसमें एक बेचारी मूँछ को यूँ सरेआम मिटाने की साजिश की जा रही है। एक समय था जब 'मूँछ नहीं तो कुछ नहीं' कथन के बल पर मूँछ की दुनिया खुशहाल थी। पर अब तो ऐसा समय आ गया कि 'मूँछ का सफाया  कैसे किया जाए' योजना पर कार्य किया जा रहा है । इन दिनों बेशक मुँछडापन दुनिया पर हावी हो फिर भी मूँछ को पसंद करने वाले अभी भी हैं, जिसमें मुछमुंडों की संख्या भी अच्छी-खासी है।

     इसके बावजूद मूँछ को मूँछधारी के मुख से तड़ीपार करने का कुत्सित प्रयास किया गया। एक दौर वो था जब मूँछ बचा ने के लिए लड़ाई लड़ते हुए सर तक कटा दिए जाते थे और इस लड़ाई में कुनबे के लोग भी जी-जान से मूँछधारी का साथ निभाते थे। अब तो ऐसा दौर आ गया है कि कुनबे के बड़े ही कुनबे के छोटों की मूँछ को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। सही मायने में ये मूँछ का संकट काल है। इस काल में वही मूँछ बाकी बचेगी जिसे धारण करनेवाला निडर व स्वाभिमानी होगा और अपने व्यवहार से अधिक से अधिक समर्थन प्राप्त कर सरेआम अपनी मूँछों पर ताव देगा। बहरहाल इस मुछमुंडे लेखक का मूँछ को बिना शर्त समर्थन देने का नेक विचार है। मूँछ स्वयं को मिलने वाले भत्ते का यूँ ही सदुपयोग कर लहलहाती रही और जलने वालों के दिलों पर समय-समय पर नागिन डांस करती रही।

लेखक : सुमित प्रताप सिंह


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