निंदा नामक क्रिया हम भारतीयों को इतनी अधिक भाती है, कि इस क्रिया को कर-करके भी हम लोग बिलकुल भी नहीं थकते। घरों, गली, मोहल्लों, बाजारों व कार्यालयों में जब भी हमें अवसर मिलता है हम तन्मयता से निंदा रुपी क्रिया में तल्लीन हो जाते हैं। हमारी निंदा का पात्र अक्सर वह बेचारा मानव होता है, जो किसी न किसी मामले में हमसे बीस होता है और हम स्वयं के उन्नीस रह जाने का बदला उससे उस पर निंदा शस्त्र का प्रयोग करके लेते रहते हैं। हम चाहकर भी निंदा से दूरी नहीं बना पाते। हमारी अक्षमता हमें निंदा से चिपके रहने को विवश किये रहता है। वैसे निंदा झेलनेवाले को निंदा से हानि की बजाय लाभ ही अधिक रहता है। वह नियमित निंदा नामक शस्त्र का मुकाबला करते-करते और अधिक चुस्त-दुरुस्त होकर चपलता प्राप्त कर लेता है और हम निंदा में खोये हुए जस के तस बने रहते हैं। निंदा झेलनेवाला कबीर के दोहे "निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय। बिन पानी, साबुन बिना,निर्मल करे करे सुभाय।।" से प्रेरणा लेकर हम निंदकों की निंदा को झेलते हुए प्रगति के पथ पर निरंतर बढ़ता रहता है और हम कुंए के मेढक बनकर अपने उसी छोटे से संसार में मस्त रहते हुये दिन-रात निंदा में लगे रहते हैं। हम भारतवासियों के साथ-साथ हमारे द्वारा चुनकर संसद के प्रतिनिधि भी निंदा नामक क्रिया का प्रयोग करने में अत्यधिक सुखद अनुभूति का अनुभव करते हैं। विशेषरूप से विपक्ष में बैठने के लिए विवश होनेवाले प्रतिनिधियों के लिए तो यह क्रिया संसद के होनेवाले अधिवेशनों को बिताने का एकमात्र मुख्य साधन है। सत्ता पक्ष चाहे जितना भी अच्छा काम कर ले, लेकिन विपक्ष उसके हर कार्य में खोट निकालते हुए अपने निंदा रुपी कर्तव्य का पालन अवश्य करेगा। हालाँकि सत्ता पक्ष अपने कार्य में लीन रहते हुए विपक्षी निंदकों को आये दिन ठेंगा दिखाता रहता है। कभी-कभी ऐसा अवसर भी आता है, कि जब निंदक निंदा करते हुए सदन में बैठे-बैठे निंद्रा में ही खो जाते हैं और स्वयं ही निंदा के पात्र बन जाते हैं। असल में उन्हें यह बात धीमे-धीमे समझ में आने लगती है कि जब-जब भी किसी देश की जानता जाग उठती है तो अक्षमों व नालायकों को निंदा करते-करते संसद में निंद्रा में खोते हुए ही अपना वक़्त बिताना पड़ता है।
सुमित प्रताप सिंह
इटावा, नई दिल्ली, भारत
चित्र गूगल से साभार