कहावत है कि 'समय बड़ा बलवान होता है' और समय की गणना विभिन्न कालों में विभिन्न माध्यमों से की जाती रही है। जब मैं गाँव में था तो बड़े बुजुर्ग सूरज, चाँद और तारों को देखकर समय बता देते थे। फिर एक दिन मैं शहर आ गया। यहाँ फ्लैटों के भीतर बंद संसार में कब सवेरा होता है और कब रात होती है पता ही नहीं चलता। इसलिए यहाँ समय को जानने के लिए घड़ी का सहारा लिया जाता है। घड़ी से याद आया कि गाँव में पाँचवी की परीक्षा अधूरी छोड़कर जब मैं शहर में पढ़ने आया तो मुझे घड़ी में समय देखना नहीं आता था। मैं उत्सुकता से दीवार घड़ी को देखा करता था और उसमें टिक-टिक की ध्वनि करके निरंतर भागती हुईं सुइयों को देखकर सोचा करता था कि ये ससुरा समय भला देखा कैसे जाता है?
इस कठिन घड़ी में मेरी बहिन होनी, जिसका नाम तो हनी रखा गया था पर उसके कुछ दिन गाँव में रहने की सज़ा गाँववालों द्वारा उसका नाम हनी से होनी बिगाड़कर दी गयी थी, ने मेरा साथ निभाया। वह दिल्ली में ही जन्मी थी और कुछ दिनों गाँव में रहने का सुख लेने व हनी से होनी बनने की हानि झेलने के बाद से उसकी शिक्षा-दीक्षा इस महानगर में ही हो रही थी। एक दिन उसने मुझे समझाया कि घड़ी में समय देखना तो उसे भी नहीं आता पर उसकी टीचर मैडम ने सिखाया था कि घड़ी की कौन सी सुई किस काम आती है। उसने घंटे, मिनट व सेकंड की सुइयों के विषय में विस्तार से बताया और उनसे समय जानने की प्रक्रिया समझायी। मैंने अपने मस्तिष्क पर ज़ोर डाला और शाम तक घड़ी में समय देखना सीख गया। इस प्रकार मैं अपनी बहिन हनी को अपना घड़ी गुरु मानता हूँ। अब ये और बात है कि मेरी घड़ी गुरु घड़ी में समय देखना मेरे बहुत दिनों बाद सीख पायी।
लेखक : सुमित प्रताप सिंह