प्रिय मित्रो
सादर ब्लॉगस्ते!
कल रात भारतेन्दु हरिशचंद जी
सपने में आये. बहुत खुश लग रहे थे. मैंने उनसे उनकी खुशी का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि हिन्दी माँ
के बढते गौरव व प्रचार-प्रसार को देखकर उनका मन मयूर बनकर झूम रहा है. उन्होंने हम
सभी हिन्दी चिट्ठाकारों को कोटि–कोटि आशीष व धन्यवाद दिया
तथा कामना की, कि यूँ ही हम सभी हिन्दी चिट्ठाकारों के
निरंतर प्रयास से हिन्दी एक दिन विश्व के माथे की बिंदी बने. चाहे कपूत कितना भी
प्रयत्न करें किन्तु हिंदी की गरिमा बढ़ती ही रहे. मैंने उन्हें हम सभी हिन्दी
चिट्ठाकारों की ओर से वचन दिया, कि हिन्दी को विश्व के माथे
की बिंदी बनने से कोई नहीं रोक पाएगा. अरे हाँ कपूत शब्द से याद आया आप सबने माँ
अंबे जी की आरती की निम्न पंक्तियाँ सुन ही रखी होंगी:-
“माँ बेटे का इस जग मे है, बडा ही निर्मल नाता
पूत
कपूत सुने हैं, पर न माता सुनी कुमाता.”
कितना बड़ा सच छुपा है इन
पंक्तियों में. माता वास्तव में कुमाता कभी हो ही नहीं सकती और पूत (पुत्र) सपूत
भी होते हैं और कपूत भी. अब उदाहरण के तौर पर हिन्दी फिल्मों को ही ले लें. इसमें
काम करने वाले अभिनेता व अभिनेत्रियाँ हिन्दी के बल पर करोड़ों रूपए कमाते हैं, लेकिन जब कभी टी.वी. चैनल पर साक्षात्कार देने आते हैं तो अंग्रेजी में
गिटपिट-गिटपिट करना शुरू कर देते हैं. कितनी ठेस लगती होगी यह सब देखकर अपनी
हिन्दी माँ को. अभिनेता व अभिनेत्रियाँ के अलावा
चहुँ ओर दृष्टि दौडाने पर ऐसे अनेक कपूत दिख जाएँगे, जिनकी
रोजी-रोटी तो हिन्दी के बल पर चलती है, लेकिन हिन्दी बोलने
में उनकी नानी मरती है. हालाँकि हिन्दी माँ के कुछ सपूत भी हैं, जो अपनी इस माँ की सेवा में निरंतर जुटे रहते हैं. ऐसे सपूतों को देखकर
माँ हिन्दी अपने सभी दुखों को भूलकर फिर से मुस्काने लगती हैं. चलिए आज मिलते हैं
हिन्दी के एक ऐसे ही सपूत से जिनका नाम है लोकेन्द्र सिंह राजपूत.
लोकेन्द्र सिंह राजपूत देश के हृदय मध्य प्रदेश
से हैं। इन्होंने ग्वालियर की माटी में जन्म लिया। यहीं इनकी शिक्षा-दीक्षा हुई।
समाज में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए लंबे समय से कार्य कर रहे हैं। समाजसेवा
के लिए समर्पित संस्था सेवा भारती के साथ जुड़कर करीब 14 साल ग्वालियर की बस्ती-बस्ती देखी। बाद में पत्रकारिता में पढ़ाई कर पिछले चार
वर्षों से पत्रकारिता के क्षेत्र में हैं। फिलहाल मध्य प्रदेश की
राजधानी भोपाल में रह रहे हैं।
सुमित
प्रताप सिंह- लोकेन्द्र जी जय हिंद जय हिन्दी. कैसे है आप?
लोकेन्द्र
सिंह राजपूत- सुमित जी जय हिंद जय हिन्दी.मैं ठीक हूँ आप कैसे है?
सुमित
प्रताप सिंह- जी मैं भी बिलकुल ठीक हूँ. “हिन्दी बने विश्व की बिन्दी” इसी कामना के साथ कुछ
प्रश्नों के माध्यम से आपको जानने आया हूँ. (सपूतों की बाँछे खिल चुकी है)
लोकेन्द्र
सिंह राजपूत- यह कामना तो सभी हिन्दी पुत्रों व पुत्रियों की है.जो प्रश्न हैं पूछ
डालिए. (कपूतों की भृकुटियाँ तन चुकी हैं)
सुमित प्रताप सिंह- ब्लॉग पर हिंदी लेखन करने के विषय
में कब, क्यों और कैसे सूझा?
लोकेन्द्र सिंह राजपूत - पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान बेव-पत्रकारिता के बारे में सुना और पढ़ा।
ब्लॉगिंग समाज के सामने अपने विचार रखने का सशक्त माध्यम है। इसलिए अपना लिया।
कुछेक सीनियर ब्लॉगिंग करते थे तो अपुन कैसे पीछे रह जाते। (सपूत मुस्कुराते
हुए इठला रहे हैं)
सुमित प्रताप सिंह- आपने अपने ब्लॉग का
नाम "अपना पंचू" ही क्यों रखा?
लोकेन्द्र सिंह राजपूत - ग्वालियर के अंचल में अधिक बातूनी व्यक्ति को पंचू कहा जाता है। पंचू जो
दुनिया जहान की तमाम बातें करता है। वहीं से यह नाम लिया। इस ब्लॉग की पहली पोस्ट
भी मेरे गांव में बोले जाने वाली बोली में लिखी गई है।
(कपूत अपने आदर्श लार्ड मैकाले की आरती करते हुए अपना खून खौला रहे हैं)
सुमित प्रताप सिंह- आपकी पहली रचना कब और
कैसे रची गई?
लोकेन्द्र सिंह राजपूत - ठीक-ठीक याद नहीं। हां पहली प्रकाशित रचना के बारे में जरूर याद है। दैनिक भास्कर में
लेख छपा था। उसके बाद से तो देशभर के अखबारों, पत्रिकाओं और वेब पोर्टल पर कहानी, कविता, यात्रा वृतांत और समसामयिक विषयों पर आलेख प्रकाशित हुए।
(सपूत अपने-अपने ब्लॉग पर नई हिन्दी रचना डालने पर विचार कर रहे हैं)
(सपूत अपने-अपने ब्लॉग पर नई हिन्दी रचना डालने पर विचार कर रहे हैं)
सुमित प्रताप सिंह- क्या वाकई लिखना बहुत
ज़रूरी है? वैसे आप लिखते क्यों हैं?
लोकेन्द्र सिंह राजपूत - हां, लिखना जरूरी है। लिखकर आप अपनी बात दूर तक पहुंचा
सकते हैं। सुमित जी बिना लिखे जी नहीं मानता। इसलिए मेरे लिए लिखना जरूरी है वरना
बेचैनी होती है।
(कपूत जुगाड़ लगा रहे हैं कि कैसे गूगल बाबा का टेंटुआ दबाकर सरकार द्वारा
ब्लॉग लेखन पर नकेल कसवाई जाये.)
सुमित प्रताप सिंह- लेखन में आपकी प्रिय
विधा कौन सी है और क्यों?
लोकेन्द्र सिंह राजपूत - गद्य प्रिय विद्या है। लेकिन, कविता से में प्रेम
करता हूं। व्यंग्य मुझसे बनते नहीं लिखने की कोशिश तो खूब की। हां, यात्रा वृतांत लिखने में खूब मजा आता है।
(सपूत हर अच्छी रचना पर प्रतिक्रिया दे रहे हैं )
सुमित प्रताप सिंह- अपनी रचनाओं से समाज
को क्या संदेश देना चाहते हैं?
लोकेन्द्र सिंह राजपूत - ढकोसलावादी न बने। सच को स्वीकार करें। जागरूक रहें। बुराई का प्रतिकार करें।
अपनी रचनाओं से यही संदेश देने का प्रयास रहता है।
(कपूत दुःख और निराशा से बेहोश होते हुए सोच रहे हैं "काश! हम भी सपूत होते.")
सुमित प्रताप सिंह- एक अंतिम प्रश्न. "ब्लॉग पर हिंदी लेखन और हिंदी की भारत में स्थिति?"
इस विषय पर आप अपने विचार रखेंगे?
लोकेन्द्र सिंह राजपूत - ब्लॉग पर हिन्दी लेखन और भारत में हिन्दी की भारत में स्थिति। कम समय में ही
हिन्दी के ब्लॉग की बाढ़ आना, देश में हिन्दी के
महत्व को दर्शाता है। अंतरजाल पर हिन्दी साहित्य की कमी को पूरा करने का काम
हिन्दी ब्लॉग ने काफी हद तक दूर किया है। नए साहित्यकारों द्वारा रचा जा रहा
साहित्य आसानी से सहज उपलब्ध है। वहीं कुछ ब्लॉगर दिग्गज साहित्यकारों का
लिखा-पढ़ा भी प्रस्तुत करते हैं, इसका भी बड़ा फायदा
होता है। हिन्दी ब्लॉगिंग का एक बड़ा फायदा यह है कि युवा और नए साहित्यकारों को
अपनी उपस्थिति साहित्यजगत में दर्ज कराने के लिए जमे-जमाए साहित्य के मठाधीशों की
चमचागिरी नहीं करनी पड़ती। भारत में हिन्दी की स्थिति बेहतर है। आज अंग्रेजी से
अधिक समाचार, पत्र-पत्रिकाएं और टीवी चैनल्स (मनोरंजन और समाचार
दोनों) हिन्दी के ही हैं। हां, वर्तमान युवा पीढ़ी
की हिन्दी, हिन्दी न रहकर हिंग्लिश हो गई है। हालाँकि उसके खास
नुकसान नहीं है।
(अंत में हिन्दी के सपूत लोकेन्द्र सिंह राजपूत जी को यूँ ही हिन्दी माँ की
सेवा करते रहने का निवेदन व कपूतों के सपूत बनने की कामना करते हुए चल पड़ा हिन्दी के अन्य सपूत की खोज में)