उत्तर प्रदेश के महोबा जिले में जन्मे रामस्वरूप दीक्षित रीवा विश्वविद्यालय से कला स्नातक हैं। वह देश के विभिन्न समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में अपनी साहित्यिक उपस्थिति दर्ज करवाने के साथ - साथ लगभग एक दर्जन साझा संग्रहों के सहभागी बन चुके हैं तथा अपनी तीन स्वतंत्र पुस्तकों का सृजन कर रचनाकर्म में निरन्तर रत रहते हुए इन दिनों वह समकालीन व्यंग्य व्हाट्सएप समूह में वरिष्ठ व्यंग्यकारों के साथ बैठकर व्यंग्य की कढ़ाई चढ़ा उसमें रचना रुपी जलेबियां तलने में मग्न हैं। विसंगतियां, विद्रूता, भ्रष्टाचार, अश्लीलता इत्यादि सामाजिक बुराइयां जलेबियों का वेश धर व्यंग्य की कढ़ाही में इस दुर्भावना से कूदने को आतुर हैं, कि वे सब मिलकर उस कढ़ाही का राम नाम सत्य कर डालें, किंतु रामस्वरूप दीक्षित व उनके साथियों के साथ देश - विदेश के लेखक - साहित्यकार उनकी इस कुत्सित योजना के फलीभूत होने से पहले ही उन सबको तलकर करारी जलेबी के रूप में साहित्य प्रेमियों के समक्ष प्रस्तुत कर देते हैं। रामस्वरूप दीक्षित से हमने व्यंग्य की कढ़ाही में जलेबियां तलने से थोड़ी देर के लिए विराम लेकर हमारे कुछ प्रश्नों का समाधान करने का आग्रह किया, ताकि पाठक जन उनकी जलेबी तलने की यात्रा अर्थात साहित्यिक यात्रा को जानने का सुख प्राप्त कर सकें।
आपको जलेबी तलने माफ कीजिए लेखन का रोग कब और कैसे लगा?
रामस्वरूप दीक्षित - लेखन को मैं रोग नहीं, रोगों का इलाज मानता हूं। 1984 से लेखन के क्षेत्र में हूं। देश और समाज में हर क्षेत्र में मनुष्य या व्यवस्था निर्मित करुणाजनक व त्रासद स्थितियों में वांछित बदलाव के प्रति लोगों में चेतना जाग्रत करने के उद्देश्य से कुछ करने के विचार ने लेखन में प्रवृत्त किया। सफर जारी है और शरीर में शक्ति रहने तक जारी रहेगा।
लेखन से आप पर कौन सा अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ा?
रामस्वरूप दीक्षित - लेखन को अगर आप सोद्देश्य कर रहे हैं तो इसका प्रभाव आप या पाठकों पर सकारात्मक ही होता है। मेरे लेखन ने मुझे एक बेहतर व चेतनासम्पन्न मनुष्य बनने में मदद की। अपने पूर्वाग्रहों से हमें हमारा लेखन ही मुक्त करता है। लेखन खुद से भी मुक्ति का मार्ग है। अपने व्यक्ति से परे जाकर ही आप ईमानदार लेखन कर पाते हैं। लेखन आपके भीतर साहस और विपरीत परिस्थितियों से लड़ने की ताकत पैदा करता है।
क्या आपको लगता है कि लेखन समाज में कुछ बदलाव ला सकता है?
रामस्वरूप दीक्षित - निश्चित ही लगता है। अगर यह न लगे तो लिखना व्यर्थ है। समाज में आज तक जो भी अच्छे बदलाव आए वे लेखन की वजह से ही। लेखन बदलाव का सबसे कारगर उपाय है। यद्यपि बदलाव की गति बहुत बार दिखाई नहीं देती क्योंकि वह , बाहरी न होकर अंतर्निहित चेतना के स्तर पर होता है , जिसका बहुत स्थूल रूप से पता लगाना संभव नहीं हो पाता। समय जैसे जैसे बीतता है , यह बदलाव साफ दिखाई देने लगता है। जरूरी नहीं कि लेखक अपने जीवन में अपने लिखे से होने वाले परिवर्तन को देख पाए। यह बात प्रतिबद्ध और ईमानदार लेखन के संदर्भ में ही कही जा रही है, क्योंकि प्रतिगामी व यथास्थितिवादी लेखन भी हर काल में होता रहा है, आज भी हो रहा है।
आपकी अपनी सबसे प्रिय रचना कौन सी है और क्यों?
रामस्वरूप दीक्षित - मैं अपनी हर रचना से बराबर प्रेम करता हूं । रचना हमारी संतान की तरह है जिसे जन्म देने में रचनाकार को , चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, गहरी और पीड़ादाई प्रसव वेदना सहन करनी होती है। फिर जन्म लेने वाली संतान कुरूप या विकलांग ही क्यों न हो उससे वैसा ही प्रेम जन्मदाता का होता है जैसा सुंदर ,सुडौल व ताकतवर संतान से। तमाम रचनाओं में से किसी एक रचना का प्रिय होना रचनाकार का खुद की अन्य रचनाओं को अप्रिय सिद्ध करना है। हर रचना की अपनी अलग पहचान, अलग व्यक्तित्व और अलग प्रभाव और रूतवा होता है। बहुत बार कोई रचना अपने रचयिता से भी बड़ी हो जाती है। किसी लेखक की सबसे प्रिय रचना उसके पाठक जी बेहतर बता सकते हैं और उसकी सबसे ताकतवर रचना के बारे में आलोचक।
आप अपने लेखन से समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं?
रामस्वरूप दीक्षित - वही जो मेरी रचनाओं में सन्निहित है। लेखक जो भी संदेश समाज को देना चाहता है वह उसकी प्रायः हर रचना में अंतर्निहित होता है। अलग से दिया जाने वाला संदेश , संदेश न होकर उपदेश होता है और मेरे अपने विचार से किसी भी लेखक को उपदेशक की भूमिका से खुद को बचाए रखना चाहिए।उ पदेशकों ने समाज का जाने, अनजाने बहुत अहित किया है और अभी भी कर रहे हैं।ले खक समाज को उपदेश या संदेश न देकर उससे सीधा संवाद करता है। उसकी हर रचना लोक को ही संबोधित होती है।
9 टिप्पणियां:
आभार सुमित जी
वाह ज़बरदस्त। आपको और सुमित जी दोनो को हार्दिक बधाई।👍🏻👍🏻😊💐
बहुत बढ़िया, हार्दिक बधाई
स्वयं उत्कृष्ट साहित्य समीक्षा।
आभार आपका
स्वागत है सर
आभार अलंकार जी
प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार
प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार
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