राम का नाम भारत के जन-जन में और कण-कण में बसा हुआ है। ये उनके नाम का ही प्रभाव माने कि किसी को विरोध करना हो, अपनी माँगों को मजबूती से रखना या फिर अपनी राजनीति की नैया पार लगवानी हो तो राम ही याद आते हैं। अभी कुछ दिन ही तो बीते हैं जब एक समूह राम के चित्रों को जूते मारते हुए मार्च कर रहे थे। उस महान मार्च को सुरक्षित निकलवाने के लिए उस क्षेत्र के वीर पुलिसकर्मी कमर कसे हुए थे। मार्च निकालने वाले जनसमूह के समर्थक और शुभचिंतक सोशल मीडिया पर प्रसन्नतापूर्वक इस मार्च के वीडियो व चित्रों को शेयर करते हुए गर्वित हो रहे थे। इस सारे घटनाक्रम को तिरपाल में बैठे राम लला गुमसुम हो देख रहे थे। हो सकता है कि राम लला सोच रहे हों कि उस तिरपाल से मुक्ति मिले तो कुछ किया जाए। पर वो कहावत है न कि 'न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी' सो राम लला को कुछ करने के लिए शायद अभी वर्षों तक और प्रतीक्षा करनी पड़े। वैसे भी उन्हें अब आदत हो गई है इन सबको सहने की। कोई पहले उनके अस्तित्व को नकारता है और फिर आवश्यकता पड़ने पर उनके चरणों में ही जाकर अपनी नाक रगड़ता है, कोई उन्हें पहले तो खूब गरियाता है फिर अचानक स्वार्थ सिद्धि के लिए उनका जयघोष करने लगता है तो कोई उन्हें अत्याचारी घोषित कर उनके लिए अभद्रता की हदें पार करने को उतारू हो जाता है। ये सब देखकर राम लला एकपल को उदास हो जाते हैं फिर कुछ पल बाद मुस्कुराते हैं। कुछ क्षण मुस्कुराने के पश्चात वो उठकर केवट मल्लाह को हृदय से लगाते हैं, फिर शबरी के झूठे बेरों से अपनी भूख मिटाते हैं और फिर महर्षि बाल्मीकि को प्रणाम कर चिंता करते हुए मन ही मन बुदबुदाते हैं, 'ये लंकापति रावण मृत्यु से पहले भारत भूमि में किन-किन स्थानों पर अपने बीज रोप गया था?'
लेखक - सुमित प्रताप सिंह