बुधवार, 27 जनवरी 2021

कविता - चोटिल खाकी



खाकी चोटिल हुई मगर
संयम न अपना छोड़ा
देश के काले अध्याय में
एक चिन्ह सुनहरा जोड़ा

वचन तोड़कर गुंडों ने
दिखा दी अपनी गद्दारी
चोला भेड़ का तज कर
निकले भेड़िए बारी-बारी
फिर सभी भेड़ियों ने मिलकर
मर्यादा की सीमा को तोड़ा
खाकी चोटिल हुई मगर
संयम न अपना छोड़ा...

जिस तिरंगे की खातिर
जाने कितने कुर्बान हुए
उसी तिरंगे ने देखो
जाहिलों से अपमान सहे
ऐसे गद्दारों से देश के
जन-जन ने मुख मोड़ा 
खाकी चोटिल हुई मगर
संयम न अपना छोड़ा...

चोटिल खाकी करे सवाल
उसका दोष बताया जाए
मानव की श्रेणी में वो है तो
उसे मानवाधिकार दिलाया जाए
आखिर कब तक खाएगी
खाकी अपमान का कोड़ा
खाकी चोटिल हुई मगर
संयम न अपना छोड़ा...
लेखक - सुमित प्रताप सिंह
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