- भाई नफे!
- हाँ बोल भाई जिले!
- ये टकटकी लगाकर इतनी देर से क्या देख रहा है?
- भाई भारतीय संस्कृति की जलती हुई चिता को देख रहा हूँ।
- भला वो कौन दुष्ट है जिसने भारतीय संस्कृति की चिता को जलाने का दुस्साहस किया?
- भाई मध्यकाल में ये काम तुर्की और मुग़ल आतताइयों ने किया, आधुनिक काल में ये काम अंग्रेजों ने संभाला और देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद अंग्रेजों की अवैध संतानों और मार्क्स के वामपंथी सपूतों ने इस जिम्मेवारी को बखूबी निभाया और इन दिनों फ़िल्मी भांड और उनके टुकड़ों पर पलनेवाले मीडिया समूह व कथित बुद्धिजीवी इस कार्य को बखूबी से अंजाम दे रहे हैं।
- भाई इसमें कुछ न कुछ कमी तो हमारी भी होगी।
- हाँ बिलकुल कमी है। हम सबने ने ही इन्हें पाल-पोसकर इस लायक बनने में सहायता की कि ये हमारी सनातन संस्कृति धूमिल करने का दुस्साहस करने लगे और उन्हें संरक्षण देने के लिए हमारे देश के कथित बुद्धिजीवियों और बिकाऊ मीडिया ने कमान संभाल ली।
- भाई जहाँ तक मैंने जो थोड़ा-बहुत इतिहास पढ़ा है उसमें बताया है कि भारत पर हमला करनेवाली लुटेरे मुहम्मद गौरी की सेना में एक टुकड़ी हिंदुओं की भी थी जिसका नेतृत्व तिलक नामक हिंदू सेनापति किया था।
- बिलकुल सही पढ़ा है और ये हिंदू होकर भी हिंदुओं की परम्पराओं और संस्कृति का अंध विरोध करनेवाले व्यक्तियों के पुरखे शायद तिलक और उसके सैनिक ही रहे होंगे।
- हा हा हा भाई वैसे तेरी बात में दम है। अच्छा भाई मेरे एक प्रश्न का उत्तर देगा?
- हाँ पूछ!
- ये फ़िल्मी भांड की परिभाषा क्या है?
- भांड से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से है जो चंद रुपयों के लिए अपने मान-सम्मान को खूँटी पर टांगकर दूसरों का मनोरंजन कर उन्हें खुश करता है। फ़िल्मी भांड उसका विकसित रूप है। फ़िल्मी भांड धन की खातिर अपनी माँ-बहन और बेटियों को भी फ़िल्मी पर्दे पर दर्शकों के सामने उनका मनोरंजन करते हुए उन्हें खुश करने के लिए नंगा नचवाने का भी जिगर रखते हैं। फिर औरों के परिवार की स्त्रियों के मान-सम्मान की इनसे भला उम्मीद ही कैसे कर सकते हैं?
- हा हा हा भाई क्या जिगर पाया है फ़िल्मी भांडों ने। भाई मतलब ये है कि आत्म-सम्मान और फ़िल्मी भांड उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव की माफिक हैं जिनका कभी भी मिलन नहीं हो सकता।
- और इन फ़िल्मी भांडों को संरक्षण देने के लिए न्यायालय, सरकार, कथित बुद्धिजीवी गैंग और मीडिया विशेष रूप से उत्सुक और लालायित रहते हैं।
- भाई इन्हें सुधारने का तरीका क्या है?
- तरीका सिर्फ एक है। जब तक हमारे हिंदू समाज के लोग जाति-पाति का भेद छोड़ इस बात पर मिलकर विचार नहीं करेंगे कि आज यदि किसी जाति के महापुरुष का फ़िल्मी भांडों द्वारा मानमर्दन करने पर बाकी जातियों के बंधु शांत रहे या फिर उन्होंने इस उपहास का विषय बनाया तो अगला नंबर उनकी जाति के महापुरुष अथवा सम्मानीय व्यक्ति का भी आ सकता है। इसलिए आपसी एकता समय की मांग है।
- भाई फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या होगा?
- भाई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इस बात की अनुमति नहीं देती कि किसी जाति, समुदाय अथवा धर्म के प्रतीकों, परंपराओं व महापुरुषों का अपमान किया जाए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तब किधर चली जाती है जब पुस्तक के माध्यम से अपने धर्म की कुरीतियों को दुनिया के सामने लानेवाली पड़ोसी देश की एक लेखिका को अपने देश में रहने अथवा कोई भी कार्यक्रम करने को मना किया जाता है? या फिर हिंदू धर्म के अलावा किसी और धर्म पर कुछ लिखने या फिर कुछ दर्शित करने के नाम पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जाने कहाँ लापता हो जाती है?
- उस समय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लघुशंका व दीर्घशंका के माध्यम से इनके पतलून अथवा पायजामे में लीन हो जाती है।
- हा हा हा अब आया न लाइन पर।
- वैसे भाई इस भांडगीरी के बंद होने के आसार हैं या फिर ये यूँ ही चलती रहेगी।
- अभी हिंदू समाज ने हल्की-हल्की पलकें खोलीं हैं। जब हिंदू समाज की आँखें पूर्ण रूप से खुल जायेंगीं तब न तो फ़िल्मी भांड रहेंगे और न उनकी भांडगीरी। तब तक ये भांडगीरी चालू आहे।
- आता माझी सटकली। अब लगता है कि इस भांडगीरी को बंद करने के लिए हम सभी को जागना ही पड़ेगा।
- जागोगे तो ही सवेरा होगा। वरना ये अंधकार गहराता ही जाएगा।
- भाई ये अंधकार छंटेगा और उसके बाद होनेवाले उजियारे से भारतीय संस्कृति के बैरियों की आँखे चुंधिया जायेगी।
- मेरी भी ईश्वर से कामना है कि काश ऐसा ही हो।
लेखक : सुमित प्रताप सिंह, नई दिल्ली