चिट्ठी आई है। किसी के घर में
नहीं बल्कि मीडिया में आई है। किसी ऐरे-गैरे ने नहीं बल्कि भारतीय सिनेमा के
महानायक ने इसे लिखा है। इसलिए ये चिट्ठी स्वतः ही चिट्ठियों की महानायिका बन गई
और मीडिया ने इसे हाथों-हाथ ले लिया। इसमें वास्तविक जीवन में नाना-दादा का डबल
रोल कर रहे महानायक की भावनाओं का समंदर भरा हुआ है। एक जमाना था जब नाना और दादा
के रूप में बुजुर्गों को नाती-पोते निष्ठा और आदर से सुनते थे पर अब इतना समय
नाती-पोतों के पास है ही कहाँ जो वो अपने खूसट नाना या दादा की फालतू बातें सुन
सकें। और यहाँ तो खुद नाना/दादा ही महाव्यस्त हैं। हालाँकि महानायक अपने अति
व्यस्त समय में से कुछ पल निकालकर अपनी नातिन व पोती को बिना चिट्ठी लिखे भी जीवन
के फलसफे समझा सकते थे, लेकिन वो
महानायक जो ठहरे। सो कोई भी कार्य करेंगे भी तो महानायकीय अंदाज में। इसलिए
उन्होंने चिट्ठी लिखकर समझाने का फैसला किया। पर उन्होंने चिट्ठी लिखकर सीधे नातिन
और पोती को क्यों नहीं दी? कहीं उन्हें ये अंदेशा तो नहीं था कि वो दोनों चिट्ठी
का हवाई जहाज बनाकर हवा-हवाई न कर दें। सोचिए ऐसा होने से महानायक के दिल को कितनी
ठेस पहुँचती? इसीलिए शायद उन्होंने ये रिस्क नहीं उठाया। वैसे भी बड़े और चर्चित
व्यक्ति कोई कार्य करें और दुनिया को पता न चले तो धिक्कार है उनके बड़े और चर्चित
होने पर। जैसे घर की मुर्गी दाल बराबर होती है वैसे ही ऐसा भी हो सकता था कि ‘घर
की चिट्ठी बेकार पर्ची बराबर’ जैसा कोई नया मुहावरा ईजाद हो जाता और चिट्ठी अपनी
बेकद्री पर आँसू बहाती रहती। इसलिए शायद चिट्ठी ने ही अपने रचयिता के सम्मान में
ये फैसला लिया हो कि नातिन या पोती के पास जाने से पहले दुनिया की सैर कर ली जाए
और अपने रचयिता के महानायकीय सम्मान में थोड़ी और वृद्धि कर ली जाए। इधर चिट्ठी
घुमक्कड़ बन मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर घूमने-फिरने में मस्त है और उधर
बेचारी नातिन और पोती पलकें बिछाए चिट्ठी के आने की राह तक रही हैं। महानायक भी सोच
रहे हैं कि चिट्ठी को तब तक व्यस्त रहने दो जब तक कि इसे दुनिया की हर नातिन और
पोती न पढ़ ले। अपनी नातिन और पोती का क्या है उनके लिए कोई दूसरी चिट्ठी लिख दी
जाएगी। पर क्या वास्तव में नातिन और पोती उस चिट्ठी को पढ़ना चाहेंगीं? फ़िलहाल तो यह
एक यक्ष प्रश्न है।
लेखक : सुमित प्रताप सिंह