सादर ब्लॉगस्ते!
साथियों अपना जीवन छोटा सा है तो इस छोटे से जीवन को हँसते-मुस्कुराते गुजारा जाए तो कितना अच्छा रहे। अपनी पंक्तियों द्वारा कहूँ तो-
जीवन में दुःख है बहुत
क्यों न ऐसा करें
हँस-हँस जिएँ
मुस्कुरा के मरें...
सुख-दुःख तो जीवन में आते और जाते रहते हैं..वैसे भी जब तक हम दुःख नहीं झेलेंगे तब सुख का आनंद हमें कैसे पता चलेगा। जब भी निराशा आपको हताश व निराश करने आए तो उसकी कमर में हँसी का ऐसा जबर्दस्त लट्ठ मारिए कि फिर कभी आपके सामने आने का वह साहस ही न कर सके। तो इसी बात पर मेरे साथ मुस्कुराइए और एक जोरदार ठहाका लगाइए। अरे वाह खिलखिलाते हुए आपका चेहरा (थोबड़ा बोलूं तो चलेगा) कितना सुंदर लगता है। कुछ-कुछ रश्मि प्रभा जी, रविन्द्र प्रभात जी, सुरेश यादव जी, पवन कुमार भैया व संजीव शर्मा जी जैसा और ठहाका लगाते हुए तो आप इन्दुपुरी जी, पवन चन्दन जी, अविनाश वाचस्पति जी व राजीव तनेजा जैसे लगने लगे। वैसे भी हँसने व मुस्काने से शरीर को कोई हानि तो पहुँचने से रही कुछ न कुछ तो लाभ मिलेगा ही तो अब उतार फैंकिए अपने चेहरे की मुर्दानगी और जी भरकर हँसिए (शिवम मिश्रा भैया जैसे) और खिलखिलाइये (अपन की बहना कलम घिस्सी की तरह)।आइए आज इस कड़ी में मिलते हैं जीवन को हँसते और मुस्कुराते हुए बिताने में यकीन रखने वाले हिन्दी ब्लॉगर बंधु श्री अजय कुमार झा से...
अजय कुमार झा हिन्दुस्तान के एक आम आदमी हैं। पेशे से सरकारी नौकर , तेवर से बागी जनता , मिज़ाज़ से शायर और दोस्त , आदत से लिखने-पढने वाले । बचपन में पिताजी की फ़ौजी घुमक्कडी नौकरी ने पूरे देश की भाषा , लोग , रीति रिवाज़ , त्यौहार सबको अपनाने का मौका दे दिया । किस्मत ने पलटा खाया और तरूणाई से लेकर वयस्कता तक ग्राम्य जीवन को करीब से, बहुत करीब से देखने का मौका मिला, सच कहें तो गांव की मिट्टी ने थोड़ा-थोड़ा इंसान होना सिखाया , बांकी जिंदगी और उसे जीने की लड़ाई ने सिखा दिया । बहुत से अपने दूर चले गए ,हमेशा के लिए भी , बहुत अपरिचित से हो गए । मगर इन सबके बीच जो साथ साथ चलता रहा , वो था लिखना पढ़ना , वेदप्रकाश शर्मा को , कर्नल रंजीत को , चंपक ,नंदन , चंदामामा , बेताल , मैंड्रैक और नागराज को भी , फ़िर कीट्स और शेक्सपीयर को भी, गुरूदेव को भी और बाबा नागार्जुन को भी। चलिए मिलते हैं अजय कुमार झा जी से....
सुमित प्रताप सिंह- अजय कुमार झा जी जय सिया राम! कैसे हैं आप?
अजय कुमार झा जी- जय सिया राम सुमित जी! हम तो ठीक हैं आप अपनी कहें।
(अजय भैया ने जय सिया राम कहा तो शिखा वार्ष्णेय जी के जय श्री कृष्ण याद आ गए)
सुमित प्रताप सिंह- अपन भी बिलकुल ठीक हैं।आपको जानने की इच्छा लिए हुए कुछ प्रश्न लाया हूँ।
अजय कुमार झा जी- पूछो पूछो भैया बेधड़क होकर पूछो।
(अजय भैया ने बोला इस अंदाज में कि दिल धड़कने लगा)
सुमित प्रताप सिंह- ब्लॉग लेखन के झाँसे आप कैसे आ गए?
अजय कुमार झा जी- जी हमें तो बाकायदा कादम्बिनी बहन से सोलह पेज की प्रिंट किलास देकर हमारा दाखिला कराया था ब्लॉगिग में और फ़िर बडे शान से उन दिनों एक पोस्ट के लिंक कुल आठ दस एग्रीगेटर पर चमकते हुए पाते थे , पहले टिप्पणी और फ़ोटो लगाने का पता नहीं था सो इससे भजकल दारम , माने दरमाहा टाईप का भी कुछ मिल सकता है , इत्ता डीपली कभी सोचबे नहीं किए । हमरे लिए तो ई खिटपिट बहुत ही लाभदायक रहा । इसी बहाने से घर में कंप्यूटर और कंप्यूटर में कम से कम बारह तेरह घंटे हिंदी टहलते रहती है , एक से एक , खूबसूरत रंग और तस्वीर में । हां झांसा देकर उलटा एक आध को धर लाए थे , अभी तो औरो बहुत दोस्तों को भी लपेट रहे हैं , देखिए आएंगे तो मिलवाएंगे आप लोगों से भी उनको ।
(मन में उलझन हो रही है कि आज भैया जी ठहाका लगाने से परहेज क्यों कर रहे हैं?)
सुमित प्रताप सिंह- आप इतना इश्माइल करते हैं कि अन्य ब्लॉगर बन्धु आपकी इश्माइल से जलते रहते हैं. इस इश्माइल का आखिर राज़ क्या है?
अजय कुमार झा जी- जी इश्माईल नहीं ..ईईईश्श्श्श्शमाईईईईल कहिए । जी हां , बिल्कुल करता हूं क्योंकि अब तक जो भी जिंदगी बीती या बिताई है एक ही बात सीखी ईश्माईल करते रहिए जिंदगी भी पलट के ईश्माईईईईल करेगी । और आपसे ये किसने कह दिया कि ब्लॉगर बंधु , ईश्माईल से जलते हैं अजी हम हुलस कर ईश्माईल कर दें तो गूगल कनेक्ट हो जाते हैं सबसे । हम उनसे जीते हैं और उन्हें हमारी आदत हो चली है । इसका राज़ वही है ज़िंदगी से जो भी लिया उसे उतना वापस करते जाइए ,देखिए क्या संतुलन बनता है फ़िर आप भी कह उठेंगे ........भईया जी ईईईईईश्श्श्श्माईईईईईल
(इतना कहकर वह किसी के फोन आने का कहकर एक कमरे में घुस गए और कुछ समय बाद फिर से मेरे सामने उपस्थित हो गए)
सुमित प्रताप सिंह- आपकी पहली रचना कब और कैसे रची गई?
अजय कुमार झा जी- पहली रचना ....हा हा हा ..शायद सातवीं कक्षा में था । स्टेज पर प्रार्थना के बाद बच्चों द्वारा समाचार वाचन, और कुछ पढ़ने कहने की परंपरा थी । कविता का नाम था " "बिल्लू का सपना "। हाफ़ पैंट स्टेज पर माईक संभालने के बाद कांपथी थर थर टांगों से बिल्लू का सपना पढी गई । बस इसके बाद जाने कितने पन्नों पर क्या क्या टांकता जा रहा हूं तब से अब तक ।
(उन्होंने फिर से फोन आने की बात कही और उसी कमरे में घुस गए तथा कुछ देर बाद पधारे)
सुमित प्रताप सिंह- लिखना ज़रूरी क्यों है? वैसे आप लिखते क्यों हैं?
अजय कुमार झा जी- सिर्फ़ ,लिखते क्यों ,मैं तो पढना भी कहता हूं कि क्यों जरूरी है । अरे महाराज एक बात बताइए जो हमें इस दुनिया के बारे में जो नहीं पता वो इसलिए नहीं पता काहे कि पहिलका लोग जादे लिखा पढी नय किए । अगर आज का लोग सब लिखेगा पढेगा नहीं तो आने वाली नस्लों को पता क्या और कैसे चलेगा । सिर्फ़ लिखना हे एनहीं ये सोच और समझ के लिखना कि कि आने वाले समय में ये भविष्य का द्स्तावेज़ बनेगा । मैं क्यों लिखता हूं .....समझिए कि इसी का जवाब तलाशने के लिए लिखे चला जा रहा हूं ..कि आखिर मैं लिखता क्यों हूं ।
(फिर से फोन आने का हवाला देकर उसी कमरे में घुस गए लेकिन मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि ससुरी फुनवा की आवाज़ हमको काहे नहीं सुनाई देती कुछ देर बाद वह सामने हाज़िर हो गए)
सुमित प्रताप सिंह- लेखन में आपकी प्रिय विधा कौन सी है?
अजय कुमार झा जी- विधा ...प्रिय विधा । हर कोई मुझसे अक्सर ये पूछ बैठता है , तो सुनिए कि मुझे विधाओं का ज्ञान और समझ नहीं है । दो दिलचस्प वाकये बताता हूं , शायद भाई राजीव तनेजा जी ने एक दिन हास्य और व्यंग्य का मूल अंतर और उद्देश्य मुझे बता था मेरी जिज्ञासा के बाद । और मोहल्ला वाले अविनाश भाई ने आलेख और विमर्श में फ़र्क बताया था । मैं बस लिखता हूं , पढता हूं , विधा का पता नहीं विद्या सेवा में जो आनंद मिलता है वो और कहां ?
(वह पहले की भाँति उठे और फोन के आने की कहकर फिर उसी कमरे में घुस गए और कुछ देर में फिर मेरे सामने मौजूद थे)
सुमित प्रताप सिंह- अपनी रचनाओं से समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं?
अजय कुमार झा जी- अजी छोडिए हमारे लिखे पे संदेश पहुंचने लगा तो देर सवेर जनता जनार्दन होके सोटा उठा लेगी , अभी लोकतंत्र में सोटे उठाने का उपयुक्त समय आने में बस ज़रा सी कसर रह गई है । मेरे लिखे में सिर्फ़ एक ही बात होती है .......आम आदमी .......एक आम आदमी । बस इसी एक आदमी को दूसरे आदमी से मिलवाता हूं ।
(अजय भैया फिर से उसी कमरे में घुसे तो मन में शंका के कीटाणु उत्पन्न होने लगे...कुछ देर बाद वह आ ही गए)
सुमित प्रताप सिंह- एक अंतिम प्रश्न. "ब्लॉग पर हिंदी लेखन द्वारा क्या हिंदी कभी इश्माइल करेगी?" इस विषय पर आप अपने कुछ विचार रखेंगे?
अजय कुमार झा जी- क्या हिंदी कभी इश्माईल करेगी ...अजी हिंदी तो कुछ यूं है:-
हिंदी तुझसे मुहब्बत हो गई जबसे , हर शाम हसीन और कातिल सी है,
जिंदगी के हर पन्ने पर , उकेरती कई रंग , तू हर पन्ने में शामिल सी है
आ चल हिंदी...आगे बढ चलें। और कमाल तो ये है कि आज जब आपने ये प्रश्न मेरे सामने रख कर पूछा है तो संयोग देखिए कि विश्व की चुनिंदा पुस्तकों की प्ररदर्शनी के बीच हिंदी ब्लॉगरों की पुस्तकों व कृतियों का विमोचन होगा और वे भी हिंदी के ,प्रिंट हिंदी के उस संसार में उतर जाएंगे जिसे को साहित्य कहता है तो कोई इतिहास करार देता है । हिंदी , ब्लॉगिंग और हिंदी ब्लॉगिंग तीनों ही इश्माईल करेंगी वो भी हाईपोडेंट की चमकीली रोशनी वाली ईश्माईल । बस इतना समझ लीजीए कि आज बेशक वर्दी और सत्ता की सेवा की उठाई ने आम आदमी को दबा रखा है , जिस दिन वो फ़ैल गया ..उसकी इश्माईल सल्तनतें हिला देंगी । और हिंदी है तभी हिंदुस्तान है । होली का समय नज़दीक है इसलिए सभी को होली की बहुत बहुत शुभकामनाएं और मुबारकबाद ।
(अबकी बार वह जैसे ही उस कमरे में गए तो मैं भी चुपचाप उनके पीछे कमरे की ओर चल पड़ा। दरवाजे के सुराख़ से झांककर देखा तो अजय भैया ब्लॉग बुलेटिन परिवार के साथ जोर-जोर से ठहाके लगा रहे थे। मैं भी दरवाजा खोलकर भीतर घुस रहा हूँ । आज कहीं और जाना कैंसिल आज सभी ब्लॉगर बंधुओं के साथ जी भरके अपन भी ठहाका लगाएँगे । चलिए इसी बात पर आप भी दीजिए एक बढ़िया सी इश्श्माइल)