राजस्थान के कोटा शहर के हलीमा आईना पिछले चार दशकों से लेखन कर्म में जुटे हुए हैं। अब तक इनके तीन व्यंग्य कविता संग्रह क्रमशः 'हंसो भी, हंसाओ भी', 'हंसो मत हंसो' एवं 'आईना बोलता है' प्रकाशित हो चुके हैं। इनकी रचनाएं देश-विदेश के पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं तथा अब तक ये कई पुरस्कार व सम्मानों से अपनी झोली को भर चुके हैं। सदैव की भांति हलीम आईना अपने एक हाथ में व्यंग्य कविता का सोटा और दूसरे हाथ में आईना लिए चहलकदमी करते हुए समाज में फैली हुईं विसंगतियों को पहले तो कस कर सोटा लगाते हैं फिर उसके बाद उनके विद्रूप चेहरे को आईना दिखाने का कार्य करते है। हमने कुछ प्रश्नों के माध्यम से इनकी साहित्यिक यात्रा के विषय में जानने का लघु प्रयास किया है।
आपको लेखन का रोग कब और कैसे लगा?
हलीम आईना - देखिए सुमितजी! मैं कविता लेखन को रोग नहीं मानता, यह तो ईश्वर प्रदत्त अति संवेदनशील मनोस्थिति से उपजता है जो दिल की आवाज बनकर लोगों के दिलों में उतर जाता है तथा मनोरंजन के साथ मार्गदर्शन भी करता है। यदि आप व्यंग्य की भाषा में इसे रोग माने तो मुझे ये रोग आठवीं कक्षा में पढ़ते हुए ही लग गया था। हमारे हिन्दी के गुरूजी कहानियाँ लिखते थे तथा हमें अपनी कहानियों के समाचारपत्रो में प्रकाशित होने तथा आकाशवाणी में प्रसारित होने के विषय में समय-समय पर सूचित किया करते थे। इसके साथ ही साथ हमारे कोटा शहर के दहशरे मेले में जब मैं काका हाथरसी, हुल्लड़ मुरादाबादी, शैल चतुर्वेदी व मणिक वर्मा जैसे हास्य व्यंग्य कवियों को सुनता था तो मेरे मन में आता था कि यार ऐसा तो अपन भी लिख सकते हैं। यही सोचकर पहले कुछ कहानियाँ लिखीं फिर सोचा कि किसी एक विधा में ही अपनी पहचान बनानी चाहिए और फिर मैने हास्य व्यंग्य कविता को चुना। मेरी पहली रचना राष्ट्रदूत (साप्ताहिक ) में छपी उसके बाद विभिन्न मंचों पर मेरे काव्य पाठ का सिलसिला भी शुरू हो गया।
लेखन से आप पर कौन -सा अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ा?
हलीम आईना - सुमित भाई! कविता लेखन से मुझ पर अच्छा ही प्रभाव पड़ा है। बुराईयों से बचे रहने के संस्कार तो सूफ़ी परिवार में जन्म लेने से जन्मजात थे ही, लेखन ने मुझे एक अच्छा पाठक भी बना दिया। मैं निरंतर अच्छा से अच्छा पढ़ने लगा। ईश्वर की कृपा से समय सीमा में काम करने, शुद्ध लेखन और सामाजिक सरोकार से जुड़े लेखन की तमीज मुझमें धीरे-धीरे विकसित होती चली गयी।
क्या आपको लगता है लेखन समाज में कुछ बदलाव ला सकता है?
हलीम आईना - सुमितजी! जिस कवि या लेखक की कथनी और करनी में अन्तर न हो और मानवता का हित उसके लेखन का उद्देश्य हो तो उसका लेखन निश्चित रूप से समाज में बदलाव लाने का काम करता है। सूफ़ी और संत कवियों ने यह काम किया भी है। इस बात का इतिहास गवाह है। आज भी कुछ लोग हैं जो इस कार्य में जुटे हुए हैं।
आपकी सबसे प्रिय रचना कौनसी है और क्यों?
हलीम आईना - मूलत : मैं हास्य व्यंग्य कवि हूँ या नहीं यह तो आप सब जानते ही होंगे। कवि या लेखक को अपनी हर रचना प्रिय होती है फिर भी आप पूछते हैं तो बता देता हूँ कि 'माँ ' पर लिखा मेरा एक दोहा है जिसे मैंने अपनी माँ के स्वर्गवास के बाद लिखा था मुझे सर्वाधिक प्रिय है -
माँ है मन्दिर का कलश, मस्जिद की मीनार।
ममता माँ का धर्म है, और इबादत प्यार।।
आप अपने लेखन से समाज को क्या सन्देश देना चाहते हैं?
हलीम आईना - सुमितजी! प्रश्न बहुत अच्छा है। मैं अल्प दृष्टि का नाचीज कवि बस इतना सा कहना चाहता हूँ कि कविता विश्व समुदाय को जोड़ती है, तोड़ती नहीं। हम भी इसे जोड़ने का ही काम करें। विश्व में प्रेम, शान्ति, सद्भावना, समता, भाईचारा कायम करें। हर हाल में जीवन की चुनौतियों से डटकर मुकाबला करते रहें। सारे गमों को भूल कर हँसते, मुस्कुराते रहें और आनन्द की नदी में डुबकी लगाते रहें।
साक्षात्कारकर्ता - सुमित प्रताप सिंह