कूंचे, गलियां और मोहल्ले फिर से गुलज़ार होने लगे हैं। वोफिर से टोली बनाकर दरवाजे-दरवाजे जाकर अपनी हाजिरी दर्ज करवा रहे हैं। पाँच साल पहले चोट खाए हुए लोग नज़रें उठाकर खोज रहें हैं कि शायद कोई जाना-पहचाना चेहरा मिल जाए तो उसे कुछ पलों के लिए गरियाकर अपने दिल की भड़ास निकाल लें। पर उन्हें जाना-पहचाना कोई चेहरा नहीं दिखता बल्कि उन्हें दीखता है एक बिलकुल ताज़ा-तरीन चेहरा जो न तोड़नेवाले अनेकों वादे अपने संग लिए हुए नमस्कार मुद्रा में सामने खड़ा हुआ है। पहली बार तो नज़र उठाकर उसे एक पल को देखा तो वो चेहरा अनजाना सा लगा था लेकिन फिर गौर से देखने पर उनकी सूरत कुछ जानी-पहचानी सी लगने लगती है। अचानक याद आता है कि ये सूरत तो उनसे मिलती-जुलती है जिन्होंने पाँच साल पहले इसी प्रकार अपने दिव्य दर्शन दिए थे और उसके बाद ऐसे गायब हुए जैसे गधे के सिर से सींग। पाँच सालों तक उन्होंने ‘उल्लू बनाओ अभियान’ को सुचारू रूप से चलाया। इस बार जब उन्हें इस अभियान की कमान नहीं सौंपी गई तो वे अपने भतीजे, भांजे या फिर कुछ दूर के रिश्तेदार के माध्यम से इस अभियान को सुचारू रूप से चालू रखने के लिए लोगों के बीच फिर से मौजूद हैं। ‘उल्लू बनाओ अभियान’ का वर्तमान प्रतिनिधि और उनके सगे-संबंधी काफी जुझारू हैं। ये उनका जुझारूपन ही जो इतने सिर-फुटव्वल के बाद भी प्रतिनिधित्व प्राप्त करने का जुगाड़ कर लिया । हम उन्हें सम्मानपूर्वक ‘जुगाड़ी’ शब्द से भी सुशोभित कर सकते हैं। वो लुटे-पिटे जनों की चरण वंदना कर उनको देव होने की फिर से अनुभूति कराते हैं और इस अनुभूति के बदले में उनका आशीर्वाद प्राप्त करने की तीव्र इच्छा रखते हैं। जब उन्हें लगता है कि इस बार देव हठ करने पर उतारू हैं तो वो उनके समक्ष सुरा सहित विभिन्न मनभावन उपहार चढ़ावे के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इतना सब पाकर देव एकदम से खिल उठते हैं। वो आशा और विश्वास के साथ मुस्कुराते हैं। उनके संग कूंचों, गली-मोहल्लों और नाले-नालियों के इर्द-गिर्द सड़ांध मारता हुआ कूड़ा-करकट भी मुस्कुराता है। मच्छर और मक्खियाँ झूमते हुए नृत्य करते हैं। बीमारियाँ उम्मीद भरी निगाहों संग अंगड़ाई लेते हुए मुस्कुराती हैं। आस-पास का वातावरण भी गंधाते हुए मुस्कुराता है। तभी बिजली कड़कती है और आसमान से लखनवी अंदाज में आवाज गूँजती है 'मुस्कुराइए फिर से इलेक्शन हैं।"