मलय जैन इस समय व्यंग्य जगत में जाना-पहचाना नाम है। पुलिसकर्मियों पर अक्सर संवेदनहीन, कड़क और खडूस स्वभाव का होने का आरोप लगता रहता है और लोग आए दिन बिना-बात के पुलिसकर्मियों पर निंदा शस्त्र छोड़ते हुए उन्हें विशेष आदरसूचक शब्दों से सुशोभित करते रहते हैं। इन हालातों के बीच अपने एक हाथ में पुलिसिया छड़ी, दूसरे हाथ में डायरी और कलम लिए मलय जैन साहित्य के क्षेत्र में प्रकट होते हैं तथा अपना फर्ज निभाने के साथ-साथ समाज की विसंगतियों से लड़ते हुए लिख डालते हैं एक व्यंग्य उपन्यास ‘ढाक के तीन पात’, जो चर्चित होता है और होता ही जाता है। चर्चित होकर ये व्यंग्य उपन्यास साल 2017 के आरंभ में शोभना सम्मान ग्रहण करता है और उसी साल के अंत में मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी के बाल कृष्ण शर्मा ‘नवीन’ प्रादेशिक पुरस्कार से विभूषित होता है। इस प्रकार मलय जैन के प्रशंसकों की संख्या तेजी से बढ़ने लगती है और प्रशंसकों के प्रेम के कारण इनके एक हाथ में पुलिसिया छड़ी, दूसरे हाथ में कलम-डायरी के साथ-साथ कान पर मोबाइल फोन लग जाता है। अब मलय जैन अपने फर्ज को निभाते हुए, विसंगतियों पर कलम चलाते हुए मोबाइल फोन पर अपने प्रशंसकों से निपटने में व्यस्त रहते हैं। प्रशंसकों का अपने प्रिय लेखक से इतना लगाव हो गया है कि जब भी उन पर कोई छोटी या बड़ी मुसीबत आती है तो वो झट से अपने प्रिय लेखक को फोन मिलाकर उन्हें यह अहसास कराते हैं कि वो लेखक होने से पहले एक पुलिस अधिकारी हैं और उनका ये फर्ज है कि वो अपने प्रशंसकों को उस मुसीबत से निजात दिलवाने में उनकी सहायता करें। इस प्रकार मलय जैन कुछ अधिक ही व्यस्त हो जाते हैं और उस व्यस्तता से कुछ समय निकालकर अपनी साहित्यिक संतान ‘ढाक के तीन पात’ में खो जाते हैं तथा इसके साथ ही साथ अपनी अगली साहित्यिक संतान को उत्पन्न करने का जतन भी आरंभ करने लगते हैं। बहरहाल अब अपनी प्रश्नों की पोटली को खोला जाए और 'ढाक के तीन पात' के रचयिता के मन को टटोला जाए।
सुमित प्रताप सिंह – मलयजी सादर व्यंग्यस्ते! कैसे हैं आप?
मलय जैन – सादर व्यंग्यस्ते सुमित! मैं सकुशल हूँ आप सुनाएँ।
सुमित प्रताप सिंह – विसंगितियों की कृपा से मैं भी ठीक हूँ। अपनी पोटली में आपके लिए कुछ प्रश्न लाया था। यदि आपकी आज्ञा हो तो पोटली खोलूँ?
मलय जैन – हाँ भाई खोल डालो अपनी पोटली और जो पूछना है पूछ डालो।
सुमित प्रताप सिंह - आपको लेखन का रोग कब और कैसे लगा?
मलय जैन - हमारा पैतृक निवास राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त जी की जन्मभूमि चिरगांव का है। मेरे पिता स्वयं भी लेखक हैं सो लिखना मेरे खून में ही था । बचपन में हम जिन पर्यटन स्थलों की सैर को जाते, वापसी पर मेरे पिता यात्रा वृतांत लिखने को प्रेरित करते । अच्छा लगने पर पुरस्कृत भी करते सो लिखने की आदत बनी । सबसे पहले ग्यारहवीं क्लास में रहते 16 बरस की उमर में एक किशोर कथा लिखी , मेरे पिता को पहले विश्वास नहीं हुआ कि कहानी मैंने लिखी है । उसका शीर्षक भी उन्होंने ही दिया, आतंक के क्षण। पहली कहानी ही अखिल भारतीय स्तर की प्रसिद्ध पत्रिका सुमन सौरभ में स्वीकृत हुई तो मेरी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था। इसके बाद खूब कहानियां लिखीं जो सुमन सौरभ, पराग, बालभारती आदि में छपीं। कॉलेज में पढ़ते पढ़ते ही दो किशोर उपन्यास भी लिख डाले , दीवानगढ़ी का रहस्य तथा यक्षहरण। ये दोनों सुमन सौरभ में ही धारावाहिक छपे। मुक्ता में एक कहानी आई डीएसपी साहिबा। तब मैं कॉलेज में पढ़ रहा था और तब सपने में नहीं सोचा था कि कुछ ही साल बाद खुद डीएसपी बन जाऊंगा।
सुमित प्रताप सिंह - लेखन में आपने व्यंग्य लेखन को ही क्यों चुना?
मलय जैन - व्यंग्य लिखना कब व कैसे शुरू कर दिया , मुझे खुद याद नहीं । हाँ, 2007 के आसपास कार्टून्स बनाने का शौक चढ़ा था। बस , वहीं से व्यंग्य लिखने की शुरूआत हो गई। व्यंग्य लिखना बड़ा चुनौती पूर्ण भी है और अपार संतुष्टि देने वाला भी, सो व्यंग्य लिखना मुझे अधिक भाया ।
सुमित प्रताप सिंह - व्यंग्य लेखन से आप पर कौन सा अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ा?
मलय जैन - व्यंग्य से बुरा प्रभाव तो शायद ही कोई पड़ा हो । हाँ, आदत ख़राब ज़रूर हो जाती है और कभी घर में श्रीमती जी पर व्यंग्य कर दिया तो लॉ एंड ऑर्डर बिगड़ने का ख़तरा ज़रूर कभी कभी पैदा हुआ । मेरे लिये व्यंग्य पढ़ना और लिखना भी , दोनों ऊर्जा देने का काम करते हैं और मैं हमेशा पॉजिटिव रहता हूँ ।
सुमित प्रताप सिंह - क्या आपको लगता है कि व्यंग्य लेखन समाज में कुछ बदलाव ला सकता है?
मलय जैन - व्यंग्य से समाज बदल जायेगा , यह समझना तो समझदारी के साथ ज्यादती होगी। हाँ, इतना अवश्य है कि प्रव्रत्ति विशेष के लिये किया गया व्यंग्य कहीं न कहीं व्यक्ति को आइना तो दिखाता ही है और सावधान भी करता है । विसंगतियों पर किये व्यंग्य से खुद को जोड़ यदि समाज के कुछ लोग ही अपने आपको बदल लेते हैं तो बदलने का उद्देश्य तो पूरा करता ही है व्यंग्य ।
सुमित प्रताप सिंह - आपकी सबसे प्रिय व्यंग्य रचना कौन सी है और क्यों?
मलय जैन - व्यंग्य में सबसे पसंदीदा कृतियों में राग दरबारी , नरक यात्रा और बारहमासी का नाम सबसे ऊपर है । इन कृतियों ने ही कहीं न कहीं मुझे व्यंग्य लिखने के लिए प्रेरित भी किया है ।
इतना कहकर मलय जैन फिर से अपनी साहित्यिक संतान ‘ढाक के तीन पात’ में खो जाते हैं। यह देख मैं अपनी प्रश्नों की पोटली बाँधता हूँ और चल देता हूँ अगली मंजिल की ओर पर जाने से पहले आप सभी पाठक बंधुओं के लिए छोड़ जाता हूँ मलय जैन की ये विशेष रचना : -
व्यंग्य : ऐसे न मुझे तुम छेड़ो
न जाने क्या है कि शहर में या अढ़ाई सौ मील दूर के किसी क़स्बे में पुलिस चेकिंग शुरू करती है और इधर मित्रों रिश्तेदारों के फोन आने शुरू हो जाते हैं । हमने तो कई मर्तबे अपनी किस्मत को धन्य माना और खोपड़ी पर ज़ोर भी डाला कि वल्लाह , किसके दीदार किये थे अल्लसुबह आज कि ईद के चांद हुए मित्र या जिज्जी की जबलपुर वाली जिठानी के लड़ियाये लल्ला को भरी दुपहरिया में एकाएक इस ग़रीब की याद हो आई । उछल उछलकर एकदमै गिर ही न पड़ने से कलेजे को बचाते हुए हम फोन उठाकर जब हाल ओ चाल जानने की कवायद करते हैं कि उधर से मित्र धरमसंकट में डाल कहता है , " भाई , पुलिस ने पकड़ लिया ।" हम हैराने हो दरयाफ़्त करते हैं " मित्र , तुम तो एकदम सच्चरित्र और कायदे पसन्द हो , तुम्हारी कमीज़ पर चोरी , नकब्ज़नी , लूट - लठैती , डाका - डकैती तो छोड़ो , कुटैती - पिटैती और बकलोली- बकैती तक का दाग नहीं और ...और ताउम्र ताकाझांकी से तौबा वाली तुम्हारी तबीयत की तारीफ़ से तो हरकोई वाकिफ़ है फिर तुम्हें क्यों पकड़ा मेरे दोस्त ! तब शरमाते हुए मित्र का उत्तर हस्ब ए मामूल वही होता है जिसका खुटका आदतन हमें पहिले से होता है ," यार , हेलमेट नहीं न लगाये थे " या " सीट बेल्ट नहीं न लगाए थे ।" यकीन मानिये , रिश्तों के इजलास में हमारी कलपी हुई आत्मा यकायक ज़िरह को व्याकुल हो जाती है , " यार , मेरे आलिम , मेरे फ़ाज़िल , मेरे काबिल दोस्त , घर से खाने का डब्बा तो ले जाना नहीं न भूले थे ? पेट की चिन्ता , चिन्ता और जान की ?" हेलमेट और सीट बेल्ट के लिये हम फ़ोन कर बोलें कि छोड़ दो भाई , ये सही होगा क्या ? भइया , कमसकम ऐसे तो न मुझे तुम छेड़ो । अब तुमको हम क्या बताएं , हमारी इन आँखों ने वो कलेजा फट जाने वाले दृश्य देखे हैं जिनमें किसी के कलेजे के टुकड़े ने सिर्फ़ हैलमेट न लगाकर चलने के कारण अकाल अपनी जान दे दी । हमारे इन हाथों ने हाइवे पर दुर्घटना में चोटिल उन तमाम लोगों को अस्पताल पंहुचाया है जो अपने हाथ पैरों से या तो महरूम हो गये या अकाल मौत के शिकार ही हो गये । पता है क्यों , सिर्फ़ हैलमेट या सीट बेल्ट नहीं लगाने की वजह से । अब भी कहियेगा कि हम फ़ोन करें , शर्मिंदगी के मारे धरती मईया से फट जाने की गुहार मारते हम हमारे दरोगा जी से आग्रह करें कि मत काटो चालान मेरे यार का ताकि यार मूंछों पर ताव देता निकल ले और कल को दोगुने ठाठ के साथ बिना हैलमेट लगाये इतराता निकले , बिना सीट बेल्ट बांधे हवा से बातें करे , ख़ुद की और औरत बच्चों की चिंता किये बग़ैर ! मित्रो , हमारे जवान घण्टों ड्यूटी करते , कड़ी धूप में भतेरे धुँए और धूल के बीच , चौतरफ़ा आते , भागते , खाने को दौड़ते इन वाहनों के भब्बड़ में अपनी जान भी जोखिम में डालते यदि आपका चालान काटने के लिये विवश हो रहे हैं तो कोशिश करें न , ऐसी नौबत आये ही क्यों ? पढ़ा लिखा होना तो हमारी शक्ल से ही टपकता है और समझदार होना ? बात कड़वी तो है दोस्त , मगर हम क्या करें ! कानून भी और हम भी , आख़िर आप ही की सलामती तो चाहते हैं । तो बताइयेगा , ऐसा करो , वैसा न करो के लिये खाली बाल बछौना को ही टोकते रहियेगा या ख़ुद की आत्मा के नट बोल्ट भी कसियेगा ?
व्यंग्य : ऐसे न मुझे तुम छेड़ो
न जाने क्या है कि शहर में या अढ़ाई सौ मील दूर के किसी क़स्बे में पुलिस चेकिंग शुरू करती है और इधर मित्रों रिश्तेदारों के फोन आने शुरू हो जाते हैं । हमने तो कई मर्तबे अपनी किस्मत को धन्य माना और खोपड़ी पर ज़ोर भी डाला कि वल्लाह , किसके दीदार किये थे अल्लसुबह आज कि ईद के चांद हुए मित्र या जिज्जी की जबलपुर वाली जिठानी के लड़ियाये लल्ला को भरी दुपहरिया में एकाएक इस ग़रीब की याद हो आई । उछल उछलकर एकदमै गिर ही न पड़ने से कलेजे को बचाते हुए हम फोन उठाकर जब हाल ओ चाल जानने की कवायद करते हैं कि उधर से मित्र धरमसंकट में डाल कहता है , " भाई , पुलिस ने पकड़ लिया ।" हम हैराने हो दरयाफ़्त करते हैं " मित्र , तुम तो एकदम सच्चरित्र और कायदे पसन्द हो , तुम्हारी कमीज़ पर चोरी , नकब्ज़नी , लूट - लठैती , डाका - डकैती तो छोड़ो , कुटैती - पिटैती और बकलोली- बकैती तक का दाग नहीं और ...और ताउम्र ताकाझांकी से तौबा वाली तुम्हारी तबीयत की तारीफ़ से तो हरकोई वाकिफ़ है फिर तुम्हें क्यों पकड़ा मेरे दोस्त ! तब शरमाते हुए मित्र का उत्तर हस्ब ए मामूल वही होता है जिसका खुटका आदतन हमें पहिले से होता है ," यार , हेलमेट नहीं न लगाये थे " या " सीट बेल्ट नहीं न लगाए थे ।" यकीन मानिये , रिश्तों के इजलास में हमारी कलपी हुई आत्मा यकायक ज़िरह को व्याकुल हो जाती है , " यार , मेरे आलिम , मेरे फ़ाज़िल , मेरे काबिल दोस्त , घर से खाने का डब्बा तो ले जाना नहीं न भूले थे ? पेट की चिन्ता , चिन्ता और जान की ?" हेलमेट और सीट बेल्ट के लिये हम फ़ोन कर बोलें कि छोड़ दो भाई , ये सही होगा क्या ? भइया , कमसकम ऐसे तो न मुझे तुम छेड़ो । अब तुमको हम क्या बताएं , हमारी इन आँखों ने वो कलेजा फट जाने वाले दृश्य देखे हैं जिनमें किसी के कलेजे के टुकड़े ने सिर्फ़ हैलमेट न लगाकर चलने के कारण अकाल अपनी जान दे दी । हमारे इन हाथों ने हाइवे पर दुर्घटना में चोटिल उन तमाम लोगों को अस्पताल पंहुचाया है जो अपने हाथ पैरों से या तो महरूम हो गये या अकाल मौत के शिकार ही हो गये । पता है क्यों , सिर्फ़ हैलमेट या सीट बेल्ट नहीं लगाने की वजह से । अब भी कहियेगा कि हम फ़ोन करें , शर्मिंदगी के मारे धरती मईया से फट जाने की गुहार मारते हम हमारे दरोगा जी से आग्रह करें कि मत काटो चालान मेरे यार का ताकि यार मूंछों पर ताव देता निकल ले और कल को दोगुने ठाठ के साथ बिना हैलमेट लगाये इतराता निकले , बिना सीट बेल्ट बांधे हवा से बातें करे , ख़ुद की और औरत बच्चों की चिंता किये बग़ैर ! मित्रो , हमारे जवान घण्टों ड्यूटी करते , कड़ी धूप में भतेरे धुँए और धूल के बीच , चौतरफ़ा आते , भागते , खाने को दौड़ते इन वाहनों के भब्बड़ में अपनी जान भी जोखिम में डालते यदि आपका चालान काटने के लिये विवश हो रहे हैं तो कोशिश करें न , ऐसी नौबत आये ही क्यों ? पढ़ा लिखा होना तो हमारी शक्ल से ही टपकता है और समझदार होना ? बात कड़वी तो है दोस्त , मगर हम क्या करें ! कानून भी और हम भी , आख़िर आप ही की सलामती तो चाहते हैं । तो बताइयेगा , ऐसा करो , वैसा न करो के लिये खाली बाल बछौना को ही टोकते रहियेगा या ख़ुद की आत्मा के नट बोल्ट भी कसियेगा ?