रफ़ीक़ असलम के कान में फुसफुसाया - "भाई जान सामने देखो सलमा आ रही है। क्यों न आज इस गली के सूनेपन का फायदा उठा लिया जाये?"
असलम रफ़ीक के गाल पर जोरदार झापड़ मारते हुए गुस्से में बोला - "हरामखोर आज के पाक दिन ऐसी बात सोचना भी हराम है।"
रफ़ीक़ अपना गाल सहलाते हुए बोला- "माफ़ करना भाई जान गलती हो गयी।"
असलम ने रफ़ीक़ के कंधे पर हाथ धरकर मुस्कुराते हुए कहा - "आज बकरीद पर अल्लाह को बकरे की क़ुरबानी दे आते हैं फिर किसी और रोज हम दोनों इस हसीना की क़ुरबानी ले लेंगे।"
"हा हा हा भाई जान आईडिया अच्छा है।" रफ़ीक़ खिलखिलाया। और दोनों मस्जिद की ओर बढ़ चले।
लेखक : सुमित प्रताप सिंह
2 टिप्पणियां:
If its a joke, then a very good, otherwise its a cheap work by you Sumit...
आलम यह लघुकथा है।
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