रविवार की सुबह माँ के आदेश
से आधुनिक लायक औलादों से भिन्न मैं नालायक औलाद आलस को विदाई देकर घर की साफ़-सफाई
करने में मग्न हो गया। इसी दौरान अचानक ही अठन्नी फर्श पर पड़ी मिल गई। उसे देखते
ही अपना बचपन याद आ गया। इन दिनों तो हम जलेबी की तरह सीधे हैं, लेकिन बचपन में हम वास्तव में सीधे
थे। उस समय कलियुगी विशेषतायें हमसे संबंध रखना भी अपना अपमान समझती थीं।
सीधे-सादे शब्दों में कहें तो बचपन सतयुग जैसा ही तो था। न मन में छल-कपट था और न
ही किसी से कोई बैर भाव। उन प्यारे दिनों में अठन्नी हमारे लिए विशेष महत्व रखती
थी और उन दिनों हमारा यही लक्ष्य होता था, कि हम
कोई शाबासी का काम करें और बदले में पिता जी से ईनाम में अठन्नी मिले तथा हम कुछ
पलों के सम्राट बन सकें। अठन्नी वाले सम्राट।
अपने नन्हे-मुन्ने दोस्तों
के बीच हम कुछ पल के सम्राट होते थे और हमारे दोस्त होते थे हमारी प्रजा। अठन्नी जब कभी हमारे किसी और दोस्त पर अपनी कृपा
बरसाती थी तो हम भी झट से उसे सम्राट घोषित कर उसकी प्रजा का हिस्सा बन जाते थे। आज हमें सौ
रुपये भी कितने कम लगते हैं, लेकिन
उन दिनों अठन्नी भी कितनी अधिक लगती थी। बिस्कुट, आम की पापड़ी, गुड़ की पट्टी, टॉफियाँ और हमारी जाने कितनी
इच्छाएँ और माँगे बारी-बारी से अठन्नी की कृपा से ही पूरी हो पाती थीं। उन दिनों अर्श पर रहने वाली अठन्नी यूँ फर्श पर पड़ी मिली तो उसकी ऐसी
हालत को देखकर आँखें भर आईं और किसी समय उसके भीतर वास करनेवाली आठ आने की शक्ति
याद आ गई। इसी शक्ति के बल पर उन दिनों अठन्नी अपनी महत्ता पर इठलाती थी और हम उसकी उस महत्ता के प्रशंसक
थे।
आज तो अठन्नी की हालत ऐसी लग रही थी, जैसे बार-बार चुनाव हारने के बाद किसी नेता की
हो जाती है। उसका
तेजहीन व्यक्तित्व मन में उथल-पुथल मचा गया। अठन्नी भी गीली आँखें लिए हमारी ओर देखे
जा रही थी। जाने किसकी नज़र लग गई हमारे बचपन की नायिका अठन्नी को। या फिर कोई साज़िश रची गई है अठन्नी के खिलाफ। आखिर कौन जिम्मेवार है अठन्नी की इस हालत
के लिए? भ्रष्ट नेता या नौकरशाही की
ईमानदारी जिम्मेवार है या स्विस बैंक में मजा मारती भारतीयों के खून-पसीने की कमाई या फिर दिन-प्रतिदिन
हनुमानजी की पूँछ की भांति निरंतर बढ़ती जाती महँगाई? इन्हीं विचारों में खोये हुए थे कि सामने भांजा मुस्कुराते हुए
खड़ा हो गया। हमने उसे प्रेमवश चुपचाप उसके हाथ में अठन्नी पकड़ा दी तो
उसने एक पल के लिए अपनी नन्हीं हथेली को धीमे से खोलकर उसमें सकुचाती हुई अठन्नी
को ध्यान से देखा और फिर अचानक ही गुस्से में उसे फर्श पर दे मारा। हमने उदास हो अठन्नी की ओर
देखा तो वह तेजी से भागती हुई गई और कोने में इतनी देर से यह सब देख रही अपनी
सहेली चवन्नी के गले से लगकर
फूट-फूट कर रोने लगी।
लेखक : सुमित प्रताप सिंह
चित्र गूगल से साभार
2 टिप्पणियां:
पैसे की वैल्यू निरंतर गिरती ही जा रही हैं । 5,10 और 20 पैसे के सिक्के तो कबके इतिहास बन चुके हैं।
बहुत उम्दा लेख
राजपूत जी व्यंग्य पसंद करने के लिए आपका हार्दिक आभार...
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