शनिवार, 23 दिसंबर 2017

व्यंग्य : शकी नफे का यकीनी शक


- भाई नफे!

- हाँ बोल भाई जिले!

- आज कैसे शकी अंदाज में बैठा हुआ है?

- अरे नहीं भाई ऐसा कुछ नहीं है। तू बिना बात में शक कर रहा है।

- शक नहीं है बल्कि यकीन के साथ कह रहा हूँ कुछ न कुछ बात है जिसे तू छिपा रहा है।

- भाई कोई खास बात नहीं है।

- तो जो भी बात है उसे कह डाल।

- भाई दरअसल आज मैं नेहरू प्लेस गया था। वहाँ पेन ड्राइव और मोबाइल पावर बैंक लेने के बाद जीभ में पानी आया तो मोमो खाने लगा। वहीं एक बूढ़ी अम्मा मोमो की दुकान पर खड़े मोमो प्रेमियों से रुपये माँगने लगीं।

- तो तूने उन्हें रुपये दिए?

- बिलकुल नहीं दिए। मैं भिक्षावृत्ति के सख्त खिलाफ हूँ।

- तूने बिलकुल ठीक किया। ये भिखारी लोग भीख के सहारे जीने के आदी हो गए हैं। विदेशी पर्यटकों के आगे तो ये हमारी ऐसी बेइज्जती कराते हैं कि पूछ मत। इन्हें देखकर विदेशी भी शक करने लगते हैं कि कहीं भारत इनका ही तो देश नहीं है।

- हाँ भाई ये बात तो है। पर तुझे नहीं लगता कि इसमें हम भारतीयों की भी गलती है।

- वो कैसे?

- कोई भी भिखारी भीख माँगने पास नहीं कि हम दानवीर कर्ण की भूमिका में आकर बिना ये जाने कि वाकई में वो इंसान जरूरतमंद है भी कि नहीं उसे भीख के रूप में रुपया-पैसा अर्पण कर डालते हैं।

- ठीक कहा भाई! और इसी कारण कामचोर और निठल्ले लोगों के लिए भीख माँगने का धंधा सबसे आसान और उपयुक्त लगता है। अब तो बाकायदा भीख माँगने वाले गिरोह सक्रिय हैं जो छोटे-छोटे बच्चों से जबरन भीख मँगवाते हैं।

- हाँ भाई और ये सब जानते हुए लोग उन भिखारियों को भीख देकर कथित पुण्य की प्राप्ति के लिए लालायित रहते हैं। खैर छोड़ अब तू ये बता कि आगे क्या हुआ?

- मैंने उन बूढ़ी अम्मा से पूछा कि उन्हें रुपये किसलिए चाहिये तो वो बोलीं कि उन्हें भूख लगी है।

- फिर तूने क्या किया?

- मैंने उनसे कहा कि मैं उन्हें भोजन करवाऊंगा पर रुपये नहीं दूँगा।

- तो अम्मा इस बात पर राजी हुयीं?

- पहले तो वो रुपये देने के लिए ही मिन्नत करती रहीं, फिर थक-हारकर भोजन करने को राजी हो गयीं।

- अच्छा फिर तूने उन्हें क्या खिलाया?

- मैं एक दुकान से फ्राइड राइस लेकर आया और उनको खाने के लिए दिए।

- और फिर अम्मा ने फ्राइड राइस से अपने भूखे पेट को भरा।

- नहीं अम्मा ने उनको खाने से साफ इंकार कर दिया।

- वो क्यों भला?

- वो शक करते हुए कहने लगीं कि उनमें माँस मिला हुआ है और मैं उनका धर्म नष्ट करने पर तुला हुआ हूँ।

- ये तो  हद हो गयी। अम्मा तो बड़ी शकी निकलीं। पर तुझे समझाना तो था कि जैसा वो सोच  रही थीं वैसा कुछ नहीं था क्योंकि तू भी उस हिन्दू धर्म का अनुयायी है जो अन्य कथित धर्मों की भाँति किसी धर्म, पंथ अथवा संप्रदाय का अनादर अथवा उसकी भावनाओं से खिलवाड़ नहीं करता।

- भाई समझाया और एक बार नहीं बल्कि कई बार समझाया, पर वो नहीं मानी।

- फिर फ्राइड राइस का क्या हुआ?

- फ्राइड राइस को वहीं भटक रहे एक गरीब बच्चे रफ़ीक़ ने चटखारे लेते हुए खाया।



- और अम्मा का क्या रहा?

- अम्मा मुझे कोसते हुए और मेरे शक को मजबूती प्रदान करते हुए आगे बढ़ गयीं।

- मैं कुछ समझा नहीं भाई।

- भाई बूढ़ी अम्मा ने खुद को भूख से तड़पती हुयी  दुखियारी महिला बताया था, जबकि मुझे शक था कि वो प्रोफेशनल भिखारिन हैं। और जब वो मुझे छोड़कर एक दूसरे व्यक्ति से रुपये देने के लिए गिड़गिड़ायीं तो मेरा शक यकीन में बदल गया।

- मतलब कि तेरा शक ठीक निकला। पर तेरे शक ने एक गरीब बच्चे को एक वक्त का भोजन नसीब करवा दिया।

- हाँ भाई और इस बहाने जाने-अनजाने मुझसे हुए मेरे पाप भी धुल गए।

- हा हा हा भाई तू भी पक्का शकी है। अब अपनी नेकनीयती पर भी शक करने लगा।

- क्या करूँ भाई आदत से मजबूर जो ठहरा।

लेखक - सुमित प्रताप सिंह, नई दिल्ली



रविवार, 17 दिसंबर 2017

संस्मरण : जेल की रोटी संग कविताई


- भाई नफे!

- हाँ बोल भाई जिले!

- आज यूँ पेट पर हाथ फेरते हुए कहाँ से आ रहा है?

- भाई आज जेल की रोटी खाकर आ रहा हूँ।

- जेल की रोटी खाकर! भला तेरे जैसे शरीफ इंसान ने कौन सा अपराध कर दिया जो जेल की रोटी खानी पड़ गयी?

- कवि सम्मेलन में जाने का अपराध।

- भाई मैं कुछ समझा नहीं।

- अरे भाई आज तिहाड़ जेल में कवि सम्मेलन था।

- अच्छा तो ये बात थी।

- हाँ भाई दिल्ली पुलिस के युवा रचनाकार मनीष मधुकर व पीसमेकर पत्रिका वाले संतोष कुमार सरस के संयोजन में तिहाड़ जेल में हास्य कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया था। दिल्ली पुलिस के एक युवा रचनाकार के मधुर निमंत्रण पर दिल्ली पुलिस के दूसरे युवा रचनाकार वहाँ पहुँचे और उनके साथ मैं भी जा धमका।

- दूसरे रचनाकार बोले तो अपने कलमकार मित्र सुमित के तड़के वाले सुमित प्रताप सिंह।

- बिलकुल ठीक पहचाना भाई।

- अच्छा तो अब ये बता कि वहाँ क्या-क्या हुआ?

- तिहाड़ जेल नंबर 1 के गेट नंबर 3 के बाहर मनीष मधुकर व संतोष कुमार सरस पूरी कवि मंडली के संग हमारी प्रतीक्षा करते हुए मिले। सभी साथियों के आ जुटने के बाद गहन तलाशी के बाद हमारा जेल के भीतर प्रवेश हुआ। जेल के भीतर सुपरिटेंडेंट सुभाष चन्दर साहब ने अपने कार्यालय में हम सभी का गर्मजोशी के साथ स्वागत किया।

- अच्छा फिर क्या हुआ।

- फिर सुमित प्रताप सिंह ने सावधान होकर सुपरिटेंडेंट साहब को अपनी पुस्तक सावधान! पुलिस मंच पर है भेंट की जिसे पाकर सुपरिटेंडेंट साहब ने उसे तिहाड़ जेल की लाइब्रेरी में रखने की घोषणा कर डाली।


- अरे वाह ये तो अच्छी खबर है। अब तिहाड़ के कैदी भी इस पुस्तक के साथ सावधान हुआ करेंगे। अच्छा फिर आगे क्या हुआ।

- फिर सुपरिटेंडेंट साहब ने हमारी पूरी मंडली को जेल की सैर करवाई।

- अच्छा तो वहाँ क्या-क्या देखने को मिला?

- जैसा हम जेल के बारे में सुनते हैं उससे अलग वहाँ का जीवन दिखाई दिया।

- कैसा जीवन भाई?

- व्यस्त जीवन, मस्त जीवन।

- वो कैसे?

- तिहाड़ जेल प्रशासन ने जेल के कैदियों के जो व्यवस्था कर रखी है उससे साक्षात्कार हुआ। कैदियों को शिक्षा प्रदान करनेवाली क्लास में हम गए। वहाँ हमें देखने को मिला कि कैदियों को उर्दू, हिंदी व अंग्रेजी भाषाएं पढ़ाई जा रही थीं। गणित की क्लास में कैदी गुणा, भाग, जमा व घटा से नूरा-कुश्ती करते मिले। जहाँ कंप्यूटर की क्लास में कंप्यूटर द्वारा उन्हें तकनीकी का ज्ञान दिया जा रहा था, वहीं ई कॉमर्स और मैनेजमेंट की एडवांस क्लासें कैदियों को जेल से बाहर निकलने के बाद के सुनहरे भविष्य के सपने दिखा रही थीं।

- अरे वाह कैदियों की शिक्षित करने की जेल में भरपूर व्यवस्था हो रखी है।

- हाँ भाई शिक्षित करने के साथ-साथ सक्षम और आत्मनिर्भर बनाने की भी व्यवस्था है।

- वो कैसे भाई?

- जेल में कैदियों द्वारा खुद साग-सब्जी व फलों को उगाया जाता है। जेल की मशीनों व कलपुर्जों को जहाँ ठीक करने की व्यवस्था है, वहीं कूलर-पंखों की मोटर, कूलर पंप व बल्ब निर्माण करने के बाद उन्हें जेल से बाहर बिक्री के लिए सप्लाई भी किया जाता है।

- मतलब कि जेल आत्मनिर्भर बनते हुए अपने बाशिंदों को सक्षम भी बना रही है।

- हाँ बिलकुल ठीक पहचाना। जेल में सिलाई-कढ़ाई, चित्रकारी इत्यादि सबकुछ सिखाया जाता है और इसके लिए जेल प्रबंधन साधुवाद का पात्र है।

- हाँ भाई बिलकुल साधुवाद का पात्र है। अच्छा फिर कवि सम्मेलन कब हुआ?

- जेल भ्रमण के बाद सुपरिटेंडेंट साहब ने हमें जेल की रोटी खाने के लिए आमंत्रित किया।

- तो जेल की रोटी कैसी लगी?

- बहुत बढ़िया लगी। रोटी के साथ पनीर और मिक्स वेजिटेबल का आनंद लिया, दाल-भात, सलाद और करारे पापड़ का मजा लूटा और अंत में मूँग की दाल के स्वादिष्ट हलवे से मुँह मीठा किया।

- भाई तूने तो मेरे मुँह में पानी ला दिया। अच्छा भोजन के बाद कवि सम्मेलन शुरू हुआ?


- हाँ भाई खा-पीकर फुल होने के बाद कवि सम्मेलन का शुभारंभ हुआ। ऊर्जावान मनीष मधुकर व युवा एंकर सोनम छाबड़ा के संचालन में कवि सम्मेलन ने गति पकड़ी। युवा रचनाकार अभिराज पंकज, अमित शर्मा, दिनेश सैनी, सुमित प्रताप सिंह, पंकज शर्मा, बेबाक जौनपुरी, प्रीति तिवारी, अमिता एवं मनीष मधुकर तथा वरिष्ठ कवि गजेंद्र सोलंकी व कार्यक्रम के अध्यक्ष डॉ. अशोक वर्मा ने अपने-अपने अंदाज में श्रोताओं का मनोरंजन किया।


- मतलब कि माँ सरस्वती की संतानों ने जेल में उस दिन को कैदियों के लिए यादगार बना दिया।

- हाँ भाई वो दिन जेलवालों के साथ-साथ माँ सरस्वती की संतानों के लिए भी यादगार रहेगा।


- तो अगली बार जेलयात्रा पर कब जा रहा है?

- देखो फिर कब जेल की रोटी खाना भाग्य में नसीब होता है?

- मैं दुआ करूँगा कि तुझे ये सौभाग्य जल्दी मिले और तेरे साथ मैं भी जेल में रोटी के साथ कविताई का आनंद उठाऊँ।

- आमीन!

लेखक - सुमित प्रताप सिंह


मंगलवार, 12 दिसंबर 2017

संस्मरण : मेरी घड़ी गुरु


    कहावत है कि 'समय बड़ा बलवान होता है' और समय की गणना विभिन्न कालों में विभिन्न माध्यमों से की जाती रही है। जब मैं गाँव में था तो बड़े बुजुर्ग सूरज, चाँद और तारों को देखकर समय बता देते थे। फिर एक दिन मैं शहर आ गया। यहाँ फ्लैटों के भीतर बंद संसार में कब सवेरा होता है और कब रात होती है पता ही नहीं चलता। इसलिए यहाँ समय को जानने के लिए घड़ी का सहारा लिया जाता है। घड़ी से याद आया कि गाँव में पाँचवी की परीक्षा अधूरी छोड़कर जब मैं शहर में पढ़ने आया तो मुझे घड़ी में समय देखना नहीं आता था। मैं उत्सुकता से दीवार घड़ी को देखा करता था और उसमें टिक-टिक की ध्वनि करके निरंतर भागती हुईं सुइयों को देखकर सोचा करता था कि ये ससुरा समय भला देखा कैसे जाता है?
इस कठिन घड़ी में मेरी बहिन होनी, जिसका नाम तो हनी रखा गया था पर उसके कुछ दिन गाँव में रहने की सज़ा गाँववालों द्वारा उसका नाम हनी से होनी बिगाड़कर दी गयी थी, ने मेरा साथ निभाया। वह दिल्ली में ही जन्मी थी और कुछ दिनों गाँव में रहने का सुख लेने व हनी से होनी बनने की हानि झेलने के बाद से उसकी शिक्षा-दीक्षा इस महानगर में ही हो रही थी। एक दिन उसने मुझे समझाया कि घड़ी में समय देखना तो उसे भी नहीं आता पर उसकी टीचर मैडम ने सिखाया था कि घड़ी की कौन सी सुई किस काम आती है। उसने घंटे, मिनट व सेकंड की सुइयों के विषय में विस्तार से बताया और उनसे समय जानने की प्रक्रिया समझायी। मैंने अपने मस्तिष्क पर ज़ोर डाला और शाम तक घड़ी में समय देखना सीख गया। इस प्रकार मैं अपनी बहिन हनी को अपना घड़ी गुरु मानता हूँ। अब ये और बात है कि मेरी घड़ी गुरु घड़ी में समय देखना मेरे बहुत दिनों बाद सीख पायी।

लेखक : सुमित प्रताप सिंह 

सोमवार, 4 दिसंबर 2017

हास्य व्यंग्य : मेरी खर्राटों भरी रेलयात्रा


     ससुराल की सेवा और मेवा का सुख लेने के बाद मैं सपत्नीक अपने मायके के लिये रवाना हो लिया। कहीं जीजा जी दीदी संग रेलवे स्टेशन से वापस न लौट आयें इस डर से साले रेलवे स्टेशन तक हमें छोड़ने हमारे साथ ही आये। रेलवे स्टेशन पहुँचकर हम ये सोचते हुये भागे-भागे रेलवे प्लेटफार्म पर गये कि कहीं हमारी ट्रेन समय से पहले पहुँचकर हमारी प्रतीक्षा करने का दुःख न झेल रही हो, लेकिन ये हमारी एक बहुत ही हसीन भूल थी। हमारी ट्रेन पूरे ढाई घंटे लेट थी। बहरहाल हम सरकार के स्वच्छता मिशन को जीभ चिढ़ाते इटावा स्टेशन के प्रतीक्षालय में बेहाल हो अपनी ट्रेन की प्रतीक्षा में लगे रहे। हमारी ट्रेन लेट पर लेट होकर हमारे सब्र का इम्तिहान लिये जा रही थी। खैर रेलवे विभाग की कर्मठता  और सक्षमता के फलस्वरूप साढ़े पाँच घंटे की कड़ी परीक्षा लेने के बाद सुबह 3.45 बजे जाकर ऊँचाहार एक्सप्रेस, जिसका नामकरण परेशान होकर मैंने नीचाहार एक्सप्रेस कर दिया था, में चढ़ने का सौभाग्य मिल पाया। पहले तो डिब्बे के अटेंडेंट को ढूँढने में काफी परिश्रम करना पड़ा, आखिरकार टी.टी. के बताए हुए ठिकाने पर जाकर अटेंडेंट को झकझोर कर जगाया और उससे सीट पर बिछाने के लिए चादरें माँगी तथा जितना जल्दी हो सका सीट पर चादर बिछाकर सोने की कोशिश करने लगा। मैंने देखा कि थकान होने के कारण पत्नी सो चुकी थी और मैं पूरे दिन की थकान होने के बावजूद अपने बगलवाली सीट पर पसरे इंसान के जोरदार खर्राटों से बेहाल हो जागने को विवश होता हुआ गहरी नींद में डूबने के स्वप्न देख रहा था। मैंने उसके खर्राटे बंद करने के लिये उसका कंबल कई खींचा, ताकि वो गहरी नींद से बाहर आ अपने खर्राटों पर पूर्ण विराम लगाये, लेकिन मेरी इस आशा पर उसने खर्राटे मारते रहकर फुल स्टॉप लगा दिया। अब मैंने पानी की बोतल उसके ऊपर फेंकने का दुस्साहसी विचार किया, लेकिन उस विचार को कुछ सोचकर अमल में नहीं लाया और जोर-जोर से कंबल खींचने की प्रक्रिया ही जारी रखी। पर वो इंसान शायद कुम्भकर्ण की पीढ़ी से था, सो उसे कुछ भी असर न हुआ और उसके घनघोर खर्राटे लगातार चालू रहे। मैंने अनुभव किया कि वो शायद कोई बुज़ुर्ग आदमी है, जो अधिक थकान होने के कारण खर्राटे युक्त होकर सो रहा था। मैं दुःखी हो करवट बदलते हुए सोच रहा था कि जाने किस मनहूस घड़ी में दुगुना दाम चुकाकर उस कथित सुविधासंपन्न ऊँचाहार एक्सप्रेस का तत्काल टिकट लेने की महान भूल की थी। मैं लेटे-लेटे ट्विटर पर ट्वीट क्रिया करते हुये प्रार्थना करने लगा कि हे प्रभु इस खर्राटेवाले दैत्य को कुछ देर के लिए कुम्भकर्णी मुद्रा से निकाल बाहर करो ताकि निंद्रा मेरे नैनों में एंट्री मार सके। फिर अचानक मुझे याद आया कि प्रभु तो इस्तीफा दे चुके थे सो मैंने उनके उत्तराधिकारी का स्मरण करना आरंभ कर दिया। जाने वो प्रार्थना का प्रभाव था या फिर मेरे कंबल खींचने का फल जो उसके खर्राटे अचानक बंद हो गये। मैंने इस मौके का फायदा उठाया और झट से नींद के आगोश में खो गया। एक-दो घंटे की नींद  खींचने के बाद किसी बच्चे की आवाज से मेरी आँख खुल गई। आँख खुलते ही सामने की सीट पर खर्राटे लेकर नींद का सत्यानाश करनेवाले इंसान को देखने का सौभाग्य हासिल किया। ये एक महिला थी जो अपने बतोले बेटे के ढेर सारे जवाब देने में मस्त थी। मैं मन ही मन उसकी खर्राटा शक्ति को नमन करते हुये शुक्र मनाने लगा कि अच्छा हुआ जो रात को मैंने उस महिला के ऊपर बोतल फैंककर नहीं मारी वर्ना आई.पी.सी. की छेड़छाड़ की धारा 354 मुझसे गले मिल रही होती।

लेखक : सुमित प्रताप सिंह

कार्टून गूगल से साभार


गुरुवार, 23 नवंबर 2017

हास्य व्यंग्य : गोल्डन फीलिंगवाले सम्राट


    जबसे उन्होंने आलू से सोना बनाने की मशीन के बारे में घोषणा की है, तबसे आलू ने और अधिक भाव खाना शुरू कर दिया है। वैसे तो आलू पहले से ही सब्जियों का राजा था, लेकिन उसके भीतर हर सब्जी के साथ मिल-जुलकर पकने की भावना ने ही उसे सब्जियों का राजा बनाया था। एक तरह से वह खास होते हुये भी आम सब्जी की तरह व्यवहार करता था। पर जबसे आलू को सोने में परिवर्तित करनेवाली मशीन की खबर मीडिया में वायरल हुई है, तबसे ही आलू के मन में गोल्डन फीलिंग होने लगी है और वो खुद को सब्जियों के राजा से भी बढ़कर समझने लगा है। अपनी इस गोल्डन फीलिंग के कारण वो सब्जियों के साथ गठबंधन समाप्त कर एकांत प्रेमी हो गया है। आलू का जिगरी दोस्त समोसा भी आलू से जुदाई का दुःख झेल रहा है। समोसे में आलू की उपस्थिति तक खुद भी सत्ता से चिपके रहने का दावा करनेवाले भी आलू की ओर अपने जलते हुये नेत्रों से देख रहे हैं पर आलू इन सब बातों से बेपरवाह हो अपनी ही मस्ती में खोया हुआ है। अब वो भारतीय रसोई में मुख्य अतिथि और अध्यक्ष की दोहरी भूमिका का निर्वाह कर रहा है। जैसे किसी कार्यक्रम में वक्ता माइक पकड़कर सर्वप्रथम भीतरी मन से कोसते हुये और ऊपरी मन से मुख्य अतिथि और अध्यक्ष के सम्मान में कसीदे पढ़ने के बाद अपने वक्तव्य को आरंभ करता है, ठीक वैसे ही हरेक सब्जी पकने से पहले गोल्डन फीलिंगवाले सम्राट आलू को प्रणाम करती है।
इतना सब होने के बावजूद भी मैं आलू को आलू जितना ही महत्व देता हूँ। इस बात से आलू के मन को भारी ठेस पहुँचती है। उदास आलू को देखकर मैं मंद-मंद मुस्कुराता हूँ और अपनी प्राणों से प्यारी पत्नी से  बड़े ही प्यार से कहता हूँ, " प्रिये आज तुम्हें जो भी चाहिये उसे माँग लो।" पत्नी एक पल को शरमा जाती है और फिर दूसरे ही पल मुस्कुराकर अपनी डिमांड प्रस्तुत करती है, " मेरे लिये केवल एक बोरा आलू मँगवा दीजिये।" मैं हैरान होकर एक पल  को अपनी पत्नी को देखता और दूसरे ही पल में आलू पर निगाह डालता हूँ। अब मुझे देखकर आलू खिलखिलाता है और अपनी आँखें मींचकर आलू से सोना निर्मित करनेवाली मशीन का अविष्कार करनेवाले महान वैज्ञानिक को श्रद्धापूर्वक मन ही मन नमन करने लगता है।
लेखक : सुमित प्रताप सिंह


कार्टून गूगल से साभार

सोमवार, 13 नवंबर 2017

कविता : दस रूपयों का आसरा


आज शाम को बाज़ार से 
मैं एक भुना मुर्गा लाया
उसमें स्वाद बढ़ाने को 
मैंने नमक-मिर्च लगाया
फिर छोटे-छोटे टुकड़ों में 
उसको मैंने तोड़ा
उसपर धीमे-धीमे 
नींबू एक निचोड़ा
फिर उसको फुरसत से
चबा-चबाके खाया
सच कहूँ तो मुर्गे का 
मैंने जमके लुत्फ़ उठाया
खाकर मुर्गा ली डकार
और होंठों पर जीभ को फेरा
तभी मेरे भीतर से
किसी ने मुझको टेरा
फिर उसने मुझको
जी भरके धिक्कारा
एक पल में पापी बन
घबराया मैं बेचारा
दूजे पल ही में
अंतर्मन मेरा जागा
और गली की दुकान में
गया मैं भागा-भागा
वहाँ से झट से खरीद लिया
दस रुपये का बाजरा
तीन सौ के मुक़ाबले
अब दस रुपयों का था आसरा
फिर मैं दौड़-भागके 
बगल के पार्क में आया
वहाँ बैठके नीचे मैंने
एक जगह बाजरा फैलाया
थोड़ी देर में उस जगह
गिलहरी-कबूतर आये
चुन-चुन खाया बाजरा उन्होंने
और खाकर वो हर्षाये
यूँ हुआ दूर अपराधबोध मेरा
जिसने अब तक था जकड़ा 
फिर मैं फुरसत में लगा सोचने
कल मुर्गा खाऊँ या बकरा?

लेखक : सुमित प्रताप सिंह 

गुरुवार, 9 नवंबर 2017

पुलिसवाले का ड्यूटी रेस्ट


पुलिसवाले का ड्यूटी रेस्ट होता है
थाना-चौकी की चारदीवारी
बैरक की खटमल से भरी खाटों
चिट्ठा-रोजनामचे के बंधन और
केस फ़ाइलों के बोझ से दूर
सुकून भरा एक खास दिन

पुलिसवाले का ड्यूटी रेस्ट होता है
बीबी की नशीली नज़रों में खोने
बच्चों की प्रेमभरी आँखों में झाँकने और
माँ-बाप की उम्मीद भरी निगाहों पर
खरा उतरने एक और सुनहरा अवसर

पुलिसवाले का ड्यूटी रेस्ट होता है
घर की साफ-सफाई करने
बाज़ार से सब्जी-फल लाने
बूढ़े माँ-बाप की दवाई खरीदने और
अनेकों छोटे-बड़े कामों को
निपटाने की एक छोटी सी कोशिश

पुलिसवाले का ड्यूटी रेस्ट होता है
भूले-बिसरे दोस्तों को याद करने
उनके संग कुछ पल बिताते हुये
बीते हुये मस्ती भरे पुराने दिनों को
याद करने का एक हसीन मौका

पुलिसवाले का ड्यूटी रेस्ट होता है
अपनी अधूरी पड़ी योजनाओं को पूरा कर
भविष्य के लिये कुछ नई योजनाओं को बुनने
और उनको साकार करने के लिये
जी-जान से जुट जाने का दिवस

पुलिसवाले का ड्यूटी रेस्ट होता है
दिन भर की भागदौड़ के बाद
एक पूरी रात जी-भरके आराम कर
थकान मिटाने के बाद
फिर से अपने कर्तव्य पर
निकल पड़ने का जज्बा।
लेखक : सुमित प्रताप सिंह

* चित्र गूगल से साभार 

गुरुवार, 26 अक्टूबर 2017

कुछ अलग-थलग सी है सफेद कागज


    लोकप्रिय लोकसेवक एवं युवा कवि शैलेन्द्र कुमार भाटिया जी का हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह 'सफेद कागज' को आज मैंने पढ़कर समाप्त किया है। इसमें संकलित 152 कविताएँ विभिन्न विषयों पर केंद्रित हैं। कवि ने स्त्री, पिता व माँ पर अधिक कविताओं का सृजन किया है, जिससे ये भली-भाँति समझा जा सकता है कि कवि के हृदय में स्त्री, पिता व माँ के प्रति आदरभाव व श्रद्धा का कितना समावेश है।  इस कविता संग्रह में लगभग सभी कवितायें पठनीय हैं। निर्भया, चाँद सुन लेगा, तुम युक्ति हो मेरी, फाइलें, गंगा : एक जीवन जीने की विधि, गन्ने का जूस, गाँव क्यों उदास हो, फिर बचपन क्यों याद है, चीटियाँ व मैं कॉन्वेंट स्कूल हूँ इत्यादि कविताओं को बार-बार पढ़ने का मन करता है। कवि की भाषा शैली प्रभावशाली है।

जहाँ 'गन्ने का जूस' कविता में कवि ने लिखा है

"लोहे के दो गोलों के बीच
पिसना नियति है
दूसरों को रस व
मिठास देने के लिए
ये गन्ने
अपनी बूँद-बूँद देना
अपना कर्तव्य समझते हैं
वैसे ही जैसे
दो देशों की
सीमा पर तैनात सैनिक
अपने रक्त की एक-एक बूँद
दे देते हैं
अपने-अपने देशों में
जीवन की मिठास का
रस भरने के लिए।"

वहीं कविता 'चीटियाँ' में कवि ने कहा है

"जीवन में ऊंच-नीच
उतार-चढ़ाव-ठहराव को
लाँघती चीटियाँ
आज फिर से आँगन में
अपने अंडे लेकर निकलीं हैं
यह संकेत है
प्रस्थान का
परिवर्तन का
प्रकृति के बदलाव को
आत्मसात करने का
और एक नये पराक्रम का
अपनी संतति और अस्तित्व को
कायम करने के लिए।"

तथा 'मैं कॉन्वेंट स्कूल हूँ' में कवि की लेखनी कहती है

"समाजवाद से छूटा हूँ
पूँजीवाद का पोषक हूँ
किसानों और गरीबों से दूर
कुछ अतिविशिष्ट
जनों के लिए ही
उपलब्ध हूँ
मैं कॉन्वेंट स्कूल हूँ।"

कुल मिलाकर कवि का यह प्रथम प्रयास सराहनीय है। अभी लेखन जगत को उनसे काफी उम्मीदें हैं और उन उम्मीदों पर कवि का खरा उतरना तय है। कवि शैलेन्द्र कुमार भाटिया जी को सफेद कागज हेतु हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। ईश्वर करे कि उनकी सफेद कागज पुस्तक उनके साहित्यिक जीवन का सुनहरा अध्याय लिखे। एवमस्तु!

पुस्तक : सफेद कागज (कविता संग्रह)
लेखक : शैलेन्द्र कुमार भाटिया
समीक्षक : सुमित प्रताप सिंह
प्रकाशक : पी.एम. पब्लिकेशंस,नई दिल्ली
पृष्ठ : 224
मूल्य : 145/- रुपये

शुक्रवार, 20 अक्टूबर 2017

...तो ये मुल्क़ बंट जाएगा


   न राजपूत किसी पंडित, जाट या गूजर को गाली देता है न पंडित, जाट अथवा गूजर किसी राजपूत को गाली देता है। न सवर्ण किसी दलित को गाली देता है और न दलित किसी सवर्ण को गाली देता है। परोक्ष और अपरोक्ष युद्ध में मुँह की खाने के बाद पड़ोसी दुश्मन देश ने अब सोशल मीडिया के माध्यम से भारत से युद्ध के लिए कमर कसी है और अपने कथित वीर सिपाहियों को हमारे देश के भाईचारे को खंडित करने के लिए सोशल मीडिया पर तैनात कर दिया है। ये कथित वीर सिपाही स्वयं को किसी न किसी जाति के नेता व हितेषी घोषित कर दूसरी जातियों के बारे में घृणित व अपमानजनक शब्द लिखकर हमारे आपसी सद्भाव को नष्ट करने की कोशिश में जी-जान से लगातार जुटे हुए हैं। कम पढ़े-लिखे व अल्पबुद्धि के लोग उनके प्रभाव में जल्दी आ जाते हैं और उनकी कठपुतली बनकर अपने जाति बंधुओं के बीच इस घृणा को फैलाने में माध्यम बनने का कार्य करते हैं। विभिन्न जातियों के देवताओं व महापुरुषों के साथ अभद्र व्यवहार करते हुए लेख व चित्र सोशल मीडिया पर डालकर जातियों को आपस में उलझाने की निरंतर साजिश रची जा रही है। इस साजिश के परिणामस्वरूप लोग एक-दूसरे के जानी दुश्मन तक बनते जा रहे हैं और ये लोग भावनाओं में अंधे होकर हत्या तक करने से नहीं चूक रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो दुश्मन देश अपने मकसद में कुछ हद तक कामयाब होता दिख रहा है। इससे पहले कि  जातियों के बीच आपसी वैमनस्यता इतनी अधिक बढ़ जाए कि अपने देश में गृह युध्द की नौबत आ जाए और ये देश खंडित होने के कगार पर पहुँच जाए हम देशवासियों को जागना होगा। सोशल मीडिया पर जो भी व्यक्ति किसी जाति के देवता अथवा महापुरुष के विषय में कोई अभद्र टिप्पणी, लेख अथवा चित्र पोस्ट करे तो उसके बारे में सोशल मीडिया के उस प्लेटफार्म के प्रबंधन समूह को सूचना देकर आपत्ति दर्ज करवाई जाए। यदि ऐसा घृणित कार्य करनेवाला आपके आस-पास ही रहता है तो इस संबंध में निकटवर्ती थाने में लिखित शिकायत दी जाए। यदि आप उससे अपरिचित हैं तो साइबर क्राइम सेल को ई मेल द्वारा इसकी शिकायत भेजी जाए। आपका कोई मित्र घृणा फैलानेवाले ऐसे किसी संदेश को सोशल मीडिया पर शेयर करता है तो उसे प्रेमपूर्वक समझाया जाए। यदि वह आपकी बात नहीं मानता है तो उसे अपनी मित्र मंडली से तड़ीपार कर अपने मित्र समूह को इस संबंध में पोस्ट के माध्यम से बाकायदा सूचित करते हुए जानकारी दी जाए। सोशल मीडिया को निरंतर प्रयोग में लानेवाले अपने मित्रों व संबधियों को दुश्मन देश के षड़यंत्र के बारे में बताया जाए।
ऐसे ही कुछ छोटे-छोटे प्रयासों से हम अपने प्यारे देश भारत की अखंडता व संप्रभुता की रक्षा कर सकते हैं। इस बात को हम हमेशा याद रखें कि हर जाति के लिए उसके देवता व महापुरुष आदरणीय और वंदनीय हैं और हमें कोई अधिकार नहीं है कि हम उनके देवताओं अथवा महापुरुषों के विषय में कुछ भी उल-जलूल लिखकर या फिर इस तरह की बातों को शेयर करके उनकी भावनाओं को ठेस पहुचाएं।

नफरत का ये नाग 
चैन-ओ-अमन को डस जाएगा
तू अब भी न जागा 
तो ये मुल्क़ बंट जाएगा।

याद रखिए यदि हमने इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया तो ये अपना देश कई टुकड़ों में बंट जाएगा और कोई भी देशप्रेमी कभी भी  नहीं चाहेगा कि इस देश का कोई भी हिस्सा इससे अलग हो।
जय हिंद!
वंदे मातरम!
लेखक : सुमित प्रताप सिंह

चित्र गूगल से साभार

रविवार, 1 अक्टूबर 2017

कविता : घर में बुजुर्ग होने का अर्थ


('अंतरराष्ट्रीय वरिष्ठ नागरिक दिवस' पर विशेष कविता)

घर में बुजुर्ग होने का अर्थ है
जीवन की एक विशेष पाठशाला का होना
जिसमें मिल सकते हैं हमको
नित्य नए-नए सबक

घर में बुजुर्ग होने का अर्थ है
तजुर्बों को अपने मस्तिष्क में संजोए हुए
एक तजुर्बेकार व्यक्तित्व की उपस्थिति
जो सिखा सकता है हमें
गलत और सही में सच्चा फर्क

घर में बुजुर्ग होने का अर्थ है
अपनी जिम्मेवारियों को
बखूबी निभा लेने के बाद भी
जिम्मेवारियों का बोझ उठाए हुए
एक बहुत ही खास शख्सियत

घर में बुजुर्ग होने का अर्थ है
अपने हृदय में
स्नेह का सागर भरे हुए
एक प्यारी सी मानव कृति

घर में बुजुर्ग होने का अर्थ है
हमारे परिवार के चारों ओर
एक मजबूत चारदीवारी का होना
जो करती है सुरक्षा
हर असंभावित खतरे से

इसलिए बुजुर्ग आदणीय हैं, वंदनीय हैं
और हमारे घर के अभिन्न अंग हैं
यदि बुजुर्गों का आशीष हमारे संग है
तो फिर इस जीवन में उमंग ही उमंग है।

लेखक : सुमित प्रताप सिंह

गुरुवार, 28 सितंबर 2017

हास्य व्यंग्य : युवराज का सपना


कई दशकों तक देश की कथित रूप से सेवा करने का दम भरनेवाले राजनैतिक दल के लाड़ले युवराज ने विदेशी धरती से देश में 2019 ईसवी में होनेवाले लोकसभा चुनावों का बिगुल अभी से फूँक दिया है। ये निर्णय उन्होंने बहुत सोच-समझकर लिया है। भारतीय धरती से उन्होंने बहुत प्रयास कर लिया, लेकिन सफलता ने उनके पास फटकना भी मंजूर नहीं किया है। क्या-क्या नहीं किया उन्होंने। अपने लाव-लश्कर के संग दलित के घर में आधी रात को जा धमके और वहाँ बाकायदा मीडिया की मौजूदगी में दलित के हाथों से अपना भोग लगवाया। भोग लगवाने के उपरांत अपनी सहृदयता के गीत गाकर उस दलित परिवार को सपनों का झुनझुना पकड़ाया और वहाँ से रफूचक्कर हो लिए। वो बेचारा दलित परिवार अभी भी सपनों में खोकर झुनझुना बजा रहा है और युवराज सपनों के सौदागर बनकर इत-उत डोलने में मस्त हैं। युवराज ने अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए खाट पंचायत का बड़े स्तर पर आयोजन किया। ये आयोजन इतने बड़े स्तर का था, कि आसपास के गाँववालों की अपने-अपने घरों के लिए टूटी खाटों की जगह नई खाटों को लाने की समस्या चुटकियों में हल हो गई। वे सब खाट पंचायत से नई और मजबूत खाटें लूटकर ले गए और अब उन खाटों पर बैठकर हुक्का फूँकते हुए खाट पंचायत की जोर शोर से ठहाका लगाते हुए चर्चा करते रहते हैं। वहाँ वो सभी खाट पर बैठे-बैठे हुक्का फूँकते हैं और यहाँ कलेजा फुंकता है युवराज का। युवराज इस कृत्य के लिए विरोधियों को जिम्मेवार ठहरा उन्हें पानी पी-पीकर कोसते हुए गरियाते रहते हैं। युवराज ने समय-समय पर अपने कुर्ते की बाजुएँ ऊपर चढ़ाकर सत्ता को सीधी चुनौती भी दी है। वो और उनके दलीय चमचे आए दिन सुंदर और सुशील गालियों से सत्ता पक्ष को सुशोभित करते हुए अपने विपक्षी होने का हक अदा करते रहते हैं। चाहे महागठबंधन की रैलियाँ हों या ‘देश के टुकड़े होंगे हजार’ जैसे नारे लगानेवाले कथित देशप्रेमियों का प्रदर्शन हो या फिर खुद ही दंगा करके खुद ही को पीड़ित दर्शानेवाले शांतिप्रिय समुदाय की विरोध सभा हो युवराज हर जगह पूरी तत्परता से और सबसे पहले उपस्थित मिलते हैं। पर उनकी इस योग्यता से बैर रखनेवाले उन्हें सत्तापक्ष का एजेंट करार देते हैं और उनपर आरोप मढ़ते रहते हैं, कि सत्ता पक्ष के इशारों पर काम करते हुए वो अपनी देश के सबसे ईमानदार राजनैतिक दल की नैया डुबोने में लगे हुए हैं। ऐसे वचन सुनकर युवराज का चेहरा गुस्से के मारे तिलमिला उठता है और उनकी बाजुएँ फडकने लगती हैं। वो क्रोध में अपने कुर्ते की बाजुओं को ऊपर चढ़ाते हैं और वंशवाद के रथ पर सवार हो अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर भोंथरे बाण से लोकसभा चुनाव-2019 रुपी मछली पर निशाना साधने को तैयार होते हैं, कि तभी कोई उनकी कमर पर गदे से जोरदार प्रहार करता है और युवराज उस अप्रत्याशित आक्रमण से घायल हो रथ से नीचे गिर जाते हैं। अचानक उनकी आँख खुल जाती है और वो खुद को औंधे मुँह बिस्तर से जमीन पर गिरा हुआ पाते हैं। वो अपना सिर उठाकर सामने देखते हैं तो सामने राजमाता दुखी और उदास होकर खड़ी हो अपना माथा पीट रही होती हैं।

लेखक : सुमित प्रताप सिंह 
कार्टून गूगल से साभार


शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

व्यंग्य : असहिष्णु देश के दीवाने लोग


    पना भारत देश बहुत ही असहिष्णु देश है। ये इतना असहिष्णु देश है कि आए दिन इस देश में असहिष्णुता से परेशान बेचारों को सार्वजनिक रूप से घोषित करना पड़ता है, कि ये देश कितना अधिक असहिष्णु है। इस देश के बहुसंख्यक असहिष्णु समुदाय के सहारे अपना सफल फिल्मी कैरियर बनानेवाले अभिनेता को सालों बाद अचानक ये अहसास होता है कि ये देश तो बड़ा असहिष्णु है। वो बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस करके ये घोषित करते हैं कि इस देश में इतनी ज्यादा असहिष्णुता बढ़ चुकी है कि यहाँ रहने में उन्हें और उनकी बीबी को बहुत डर लगने लगा है। हालाँकि इतना ज्यादा डरा हुआ होने के बावजूद भी वो इस असहिष्णु देश को छोड़कर कहीं और बसने का विचार भी नहीं करते। हमारे देश के असहिष्णु जीवों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है और वे उन अभिनेता को फिल्मी दंगल में पटखनी देने के बजाय जीत दिलवाकर अपने असहिष्णु होने का ठोस सबूत देते हैं। अभिनेता के शुभचिंतक भी अवसर का लाभ उठाते हुए असहिष्णुता का विरोध करते हुए अपने धूल जम चुके पुरस्कारों और सम्मानों को लगे हाथों लौटाकर विरोध के साथ-साथ अपने आपको गुमनामी से निकालने का प्रयास कर एक तीर से दो शिकार कर डालते हैं और वो भी इस देश को छोड़ने की बजाय इसकी छाती पर ही मूँग दलते  रहते हैं।
बीते दिनों कई साल संविधान के उच्च पद पर बैठकर मलाई खाने के बाद एक बेचारे जाते-जाते असहिष्णुता का रोना रो गए और देश में असहिष्णुता का भोंपू फिर से बजने लगा। वो इतने सालों तक मलाई खाते रहें, लेकिन इस दौरान उन्हें असहिष्णुता के बिल्कुल भी दर्शन नहीं हुए, लेकिन जैसे ही उन्हें लगा कि उनका मलाई खाना अब बंद होनेवाला है, उन्होंने असहिष्णुता का शिगूफा छोड़ दिया और जाते-जाते इस असहिष्णु देश में इतनी इज्जत कमा गए कि अब उन्हें लोगों को अपना मुँह दिखाने में भी सोच-विचार करना पड़ रहा है। बहरहाल अपने देश के इतने असहिष्णु होने के बावजूद भी आए दिन कोई न कोई  मुँह उठाए इसमें बसने के लिए चला आता है। ये सिलसिला आज से नहीं बल्कि हजारों सालों से चल रहा है। बाहर से यहाँ आ धमकने के बाद लोग यहीं डेरा डाल लेते हैं और जब लगता है कि इनका डेरा उखड़ने का खतरा नहीं रहा तो फिर ये असहिष्णुता का राग अलापने लगते हैं। अपना देश कोई देश न होकर धर्मशाला का प्रमाणपत्र पानेवाला है। पहले ही यहाँ नेपालियों और बांग्लादेशियों ने डेरा जमाकर उत्पात मचा रखा है और अब रोहिंग्या भी अपना रोना रोते हुए बोरिया-बिस्तर लादकर आ धमक रहे हैं। उन्हें कोई ये क्यों नहीं बताता कि उन्हें ऐसे असहिष्णु देश में न बसकर बांग्लादेश, पाकिस्तान या फिर अरब के किसी सहिष्णु देश में जाकर पनाह मांगनी चाहिए। पर ये बात शायद उन्हें समझ में नहीं आनेवाली। हमारे असहिष्णु देश के दीवानों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। कभी-कभी लगता है कि आने समय में देश के इन बाहरी दीवानों के आगे के हम असहिष्णु बहुसंख्यकों की संख्या लुप्तप्राय न हो जाए।
लेखक : सुमित प्रताप सिंह 
कार्टून गूगल से साभार 

रविवार, 17 सितंबर 2017

लघुकथा : कागौर


   श्राद्धों में कौओं को कागौर खिलाने के बाद भेदा कमरे में बने मंदिर के आगे हाथ जोड़कर बोला, "हे भगवान हमाई अम्मा को स्वर्ग में आराम और चैन से रखियो।"
तभी कमरे में टँगी भेदा की अम्मा की तस्वीर फर्श पर आ गिरी।
भेदा ने तस्वीर को ध्यान से देखा तो उसे ऐसा अनुभव हुआ कि जैसे उसकी अम्मा उससे कह रही हों, "लला अगर बहू की बातन में न आयकै हमाओ समय से इलाज करवाय देते तो आज तुम्हाये संगें हमऊ कागौर खिलाय रहीं होतीं।"

लेखक : सुमित प्रताप सिंह


मंगलवार, 5 सितंबर 2017

हास्य व्यंग्य : ढीले लंगोटवाले बाबा


“महाराज आप कौन हैं?”
“हम बाबा हैं।“
“कौन से बाबा?”
“हम कलियुग के बाबा हैं।“
“आप करते क्या हैं?”
“हम लोगों के दुःख और परेशानी दूर करते हैं।“
“क्या वास्तव में आप लोगों के दुःख व परेशानी दूर करते हैं?”
“अब अगर शक हैं तो हमारे भक्तों से जाकर पूछ लो। हम क्या बताएँ।“
“आपके भक्त इस देश की जनता के ही अंग हैं और क्या आपको लगता है कि जनता वाकई में कुछ बताने लायक है। फिर उससे पूछने से फायदा क्या? वैसे आप ही क्यों नहीं बता देते?”
“देखो बालक भक्तों के दुःख और परेशानी दूर हुए हों या न भी हुए हों लेकिन वे सब इस बात में यकीन करते हैं कि इनका खात्मा एक न एक दिन अवश्य होगा। ये आस ही उनमें ऊर्जा का संचार करती है और वे आनंद व प्रसन्नता का अनुभव करने लगते हैं।“
“और एक दिन इसी आस में भक्तों का राम नाम सत्य हो जाएगा लेकिन शायद उनके कष्ट दूर नहीं हो पाएँगे।“
“बालक ऐसी निराशावादी सोच से उबरो।“
“निराशावादी सोच नहीं बल्कि हकीक़त है। आप झूठे संसार में अपने भक्तों को रखकर उनकी भावनाओं से खिलवाड़ कर रहे हैं।“
“बालक हम खिलवाड़ नहीं बल्कि हमारे और हमारे भक्तों के जीने का जुगाड़ कर रहे हैं।“
“वो भला कैसे?”
“बालक इस संसार में इतने कष्ट हैं कि किसी भी व्यक्ति का जीना बहुत ही मुश्किल है। इसलिए हम अपने भक्तों को इस संसार से दूर स्वप्नों के संसार में जीने का तरीका सिखाते हैं।“
“हाँ और इसके बदले आपके मूर्ख भक्त आपकी झोली भरके आपको मालामाल कर देते हैं।“
“बालक ये तुम गलत कह रहे हो।“
“तो फिर सही बात क्या है?”
“सही बात ये है कि हम बाबा होने का फर्ज निभाते हुए अपने भक्तों को मोहमाया के बंधन से मुक्त करते हैं।“
“और अपनी मोहमाया के जाल में अपने भक्तों को क़ैद कर लेते हैं। बाबा वैसे आप किस धर्म के हैं?”
“बालक कार्ल मार्क्स ने कहा है कि धर्म अफीम है और हम किसी भी नशे के खिलाफ हैं इसलिए हम किसी भी धर्म का प्रतिनिधित्व नहीं करते। वैसे तुम हमारा पंथ, संप्रदाय अथवा धर्म बाबागीरी ही मान सकते हो।“
“मतलब आप अफीम की बजाय भक्तों को बाबागीरी नाम की चरस पिला रहे हैं।“
“बालक हम भक्तों को चरस नहीं बल्कि प्रेमरस पिला रहे हैं, जिससे विश्व में बंधुत्व की भावना का विकास हो सके।“
“खैर छोड़िए आप ये बताइए कि आपका असली नाम क्या है?”
“बालक सच कहें तो हमें हमारा असली नाम याद ही नहीं रहा है। अब तो हमें लंगोटवाले बाबा के नाम से ही जाना जाता है।“
“अच्छा बाबा एक बात और बताएँ।“
“अब बाकी बातें फिर कभी करेंगे फ़िलहाल हम अपने भक्तों को आशीर्वाद देने जा रहे हैं।“
यह कह बाबा बहुत ही अधीर हो कुछ समय पहले ही वहाँ पधारीं महिला भक्तों की ओर चलने को हुए। उनकी ऐसी हालत देखकर मेरे मुँह से अनायास ही निकल गया, “बाबा आपने तो अपना नाम लंगोटवाले बाबा बताया था पर आप तो लंगोट के ढीले लगते हैं।”
बाबा आँख मारके मुस्कुराते हुए बोले, “बालक नाम तो हमारा ढीले लंगोटवाले बाबा ही है, लेकिन बोलने में ढीले शब्द साइलेंट हो जाता है।”

लेखक : सुमित प्रताप सिंह 
* कार्टून गूगल से साभार 

शनिवार, 2 सितंबर 2017

लघुकथा : बाहरी


  रीबा समुद्र के किनारे बैठा देख रहा था, कि लोग बारी-बारी से गणेश जी की विभिन्न आकर की प्रतिमाएँ लाते और उन्हें समुद्र मैं विसर्जित करके नाचते-गाते हुए वहाँ से अपने-अपने घर की ओर चले जाते।

गरीबा बहुत देर तक यह सब देखता रहा।

फिर अचानक ही वह बुदबुदाया, "ये और हम लोग गणपति बप्पा को बरोबर पूजता है, लेकिन ये महाराष्ट्र का लोग हम उत्तर भारतीयों  को भैया बोलता है और हमसे बहुत बुरा व्यवहार करता है। हम लोग कई पीढ़ी से यहाँ रह रहा है, फिर भी ये लोग हमको बाहरी ही मानता है।"

गरीबा ने बीड़ी जलाकर एक लंबा सा कश खींचा और बड़बड़ाया, "गणपति बप्पा को ये लोग अपना सबसे बड़ा देवता मानता है, तो वो भी तो उत्तर भारत के हिमालय परबत पर जन्म लिया था। फिर तो अपना गणपति बप्पा भी बाहरी हुआ न?"

फिर अचानक गरीबा जोर से खिलखिलाया, "या फिर हो सकता है, कि इन लोगों का हिमालय परबत महाराष्ट्र में ही किसी जगह पर हो?"

लेखक : सुमित प्रताप सिंह

बुधवार, 30 अगस्त 2017

हास्य व्यंग्य : मुल्ला जी और शुभचिंतक काफ़िर लल्ला जी


मुल्ला जी अपना सिर पकड़े बैठे हुए थे। उनके दिमाग में बार-बार ‘तलाक़ तलाक़ तलाक़’ की तेज आवाज गूँज रही थी। जब उनसे बर्दाश्त न हुआ तो अपने दोनों हाथों को आसमान की ओर उठाकर चीखते हुए बोले, “या अल्लाह अब हमारे क़ौमी मसले का फैसला ये मुआँ कोर्ट करेगा। जो पाक काम 1400 साल से होता चला रहा था उसपर कोर्ट का यूँ कानून हथौड़ा चला देना कहाँ का इंसाफ है?” “सही कह रह रहे हो भाई जान! ये सुप्रीम कोर्ट की सरासर नाइंसाफी है।” मुल्ला जी ने अपनी दाढ़ी को खुजाते हुए सामने नज़र डाली तो देखा कि उनके सामने उनके शुभचिंतक काफ़िर लल्ला जी खड़े हुए थे। लल्ला जी दूसरे मजहब के होने के कारण मुल्ला जी की नज़रों में हमेशा काफ़िर ही रहे लेकिन काफ़िर होकर वो भी उनके हर सुख-दुःख में हमेशा संग रहे। चाहे तलाक़ का मसला हो या हलाला हो या फिर मुताह का मामला हो काफ़िर लल्ला जी ने हर बात में मुल्ला जी और उनकी क़ौम का दिलोजान से समर्थन किया। असल में काफ़िर लल्ला जी अपने दल के प्रति बड़े वफादार हैं और उनका दल मुल्ला जी और उनकी क़ौम के सहारे ही देश की सत्ता सुख भोगता रहा है। अपने दल की कृपा से लल्ला जी भी जीवन के सारे सुख और आराम लेते हुए जीने का मजा लेते रहे हैं। काफ़िर लल्ला जी को सामने देख मुल्ला जी एक पल को खुश होते हैं और अचानक ही दुःख के मारे माँ-बहिन की गालियों की खेप निकलना शुरू कर देते हैं। काफ़िर लल्ला जी समझ जाते हैं कि मुल्ला जी इतनी मनमोहक गालियाँ किसको समर्पित कर रहे हैं। वो उनके पास आते हैं और उनके हाथों को अपने हाथ में लेकर उन्हें सांत्वना देते हुए समझाते हैं कि जो भी हुआ बहुत गलत हुआ तथा उन्हें सुझाव देते कि इस गलत फैसले के खिलाफ पूरी क़ौम को अपनी आवाज बुलंद करनी चाहिए। मुल्ला जी को काफ़िर लल्ला जी की बातें सुनकर अचानक जोश आ जाता है और उनका खून गुस्से के मारे उबाल मारने लगता है। वो बुलंद आवाज में ‘हमारी क़ौम हमारा कानून’ का नारा लगाते हैं। उनके शुभचिंतक काफ़िर लल्ला जी उनका साथ देते हैं तथा इस गलत फैसले का समर्थन देने के लिए अपने धर्मवालों का मजाक उड़ाते हैं और उनपर कटाक्ष से भरे हुए अनेकों जुमले उछालते हैं। उधर मुल्ला जी की अम्मी और बहिनें उन्हें समझाती हैं कि इस फैसले से उनके परिवार और क़ौम की औरतों का भी भला होगा और उनकी जिंदगी नर्क नहीं बन पाएगी। मुल्ला जी ये सुनकर अपनी टोपी उतारकर अपने सिर पर हाथ फेरते हुए गहरी सोच में डूब जाते हैं। सोचते-सोचते वो एक पल को बुर्के के भीतर मुँह छिपाए हँस रहीं अपनी बेगम को झल्लाहट में देखते हैं और दूसरे ही पल पड़ोस में रहनेवाली हुश्न में हूर को भी मात देनेवाली रेशमा को हसरत भरी निगाहों से देखते हुए ठंडी-ठंडी आहें भरने लगते हैं। रेशमा के लिए लार टपकाते मुल्ला जी को उनके मोहल्ले में रहनेवाले उनकी क़ौमवाले समझदार लोग भी उन्हें कोर्ट के फैसले के फायदे गिनाने लगते हैं। उनके शुभचिंतक काफ़िर लल्ला जी भी बहती हवा का रुख भाँपकर और अपने-आपको एकदम से उसके अनुसार ढालकर मुल्ला जी को कोर्ट के फैसले के उजले पक्ष के बारे में विस्तार से बताने लगते हैं। ये देख मुल्ला जी अपने मुँह में भरी पान की पीक एक ओर थूकते हैं और अपना सिर खुजाते हुए काफ़िर लल्ला जी को घूरकर देखते हुए सोचने लगते हैं, “ये साला लल्ला जी हमारा शुभचिंतक है या फिर खुदचिंतक?”

लेखक : सुमित प्रताप सिंह 

शुक्रवार, 18 अगस्त 2017

व्यंग्य : जीना इसी को कहते हैं

भाई जिले!
हाँ बोल भाई नफे!
आज कैसे उदास हो बैठा है?
कुछ नहीं भाई बस इस जीवन से निराश हो गया हूँ।
वो क्यों भला?
भाई सारी जमा पूंजी लगाकर एक धंधा शुरू किया था पर वो जमा नहीं। सारा पैसा डूब गया। अब समझ में नहीं आता कि क्या करूँ।
तो इसमें इतना निराश क्यों होता हैथोड़ी कोशिश और मेहनत कर सब ठीक हो जाएगा।
भाई अगर तू मेरी जगह होता तो अब तक किसी पेड़ पर लटक चुका होता 
- भाई इतना भी सिरफिरा नहीं हूँ, जो पेड़ पर लटककर अपनी कीमती जान दे दूँ और न ही मैं उन लोगों जितना महान नहीं हूँ, जो आए दिन जरा सी परेशानी या मुसीबत आनेपर इस अनमोल जीवन का राम नाम सत्य कर डालते हैं। मेरा मानना है कि कई योनियों के बाद नसीब हुआ ये मानव जीवन यूँ एक पल में गँवाने के लिए नहीं है जब तक कि इसके पीछे कोई नेक उद्देश्य न हो।
- नफे तू भी कहाँ मेरे और मेरे जैसे लोगों के दुखों को सुन भावुक हो उठा। खैर तू मेरी छोड़ अपनी सुना। आज तेरे चेहरे पर बड़ी रौनक लग रही है। कहाँ से आ रहा है?
भाई आज इंडिया गेट की सैर करके आ रहा हूँ।
अरे वाह तो क्या-क्या देखा वहाँ?
वहाँ अंग्रेजों की सेवा करते हुए प्रथम विश्व युद्ध और अफगान युद्धों में मारे गए 90,000 अंग्रेज भक्त भारतीय सैनिकों की याद में अंग्रेजों द्वारा बनवाया गया युद्ध स्मारक रुपी इंडिया गेट देखाइसकी मेहराब के नीचे स्थित आजादी के बाद स्थापित की गई अमर जवान ज्योति को सादर नमन कियाइंडिया गेट के इर्द-गिर्द घूमते हुए पानी पूरी खायी और जिले सिंह से मुलाकात की।
अरे भाई मैं वहाँ कहाँ मिल गया जबकि मैं तो कल दुखी हो अपना सिर पकड़े हुए घर पर ही पड़ा रहा।
भाई वो जिले सिंह कोई और था। हमें देखते ही पुकारकर अपने पास बुला लिया। गुब्बारे बेच रहा था। अब से कुछ साल पहले नाई का काम करता था। दिल्ली के एंड्रूज गंज इलाके में मालिक सनी की दुकान में जिले सिंह नौकर नहीं बल्कि मालिक की तरह काम करता था। बहुत ही हाजिर जवाब था। अपने ग्राहक के बालों को काटते हुए उनका खूब मनोरंजन करता रहता था और साथ ही साथ अपने मालिक सनी की खिंचाई भी करता रहता था।
फिर वो गुब्बारे क्यों बेचने लगा?
उसके मालिक को रोज शराब पीने की बुरी आदत थी। जिले ने उसे बहुत समझाया पर वो नहीं माना। सनी भी उन भले लोगों में से एक था जो नेक सलाह को एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकालना अपना परम कर्तव्य समझते हैं। और एक दिन वो भी आया जब शराबखोरी ने सनी का एक्सीडेंट करवा दिया और सनी अपने परिवारअपनी दुकान और जिले सिंह को छोड़कर हमेशा के लिए चला गया।
- ओहो ये तो बहुत दुखद हुआ। अच्छा फिर जिले का क्या हुआ?
- जिले अच्छा कारीगर था पर उसे कहीं काम नहीं मिला।
- क्यों भई अच्छे कारीगर को तो काम मिलने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए थी।
- भाई जिले सिंह खरी बात कहनेवाला खरा इंसान ठहरा और आज के जमाने में खरी-खरी कहनेवालों को बिलकुल भी पसंद नहीं किया जाता। और फिर उसकी उम्र और बालों में आ रही सफेदी भी उसके काम मिलने के आड़े आ गयी।
और वो बेचारा इंडिया गेट पर गुब्बारे बेचने लगा।
हाँ पर वो निराश नहीं था। उसके भीतर जिंदगी को जीने का जज्बा दिखाई दे रहा था। वो और लोगों की तरह निराशा से अपना जीवन बर्बाद करने की बजाय मेहनत करके अपने और अपने परिवार की गुजर-बसर करने के लिए प्रयासरत है और कुला मिलाकर खुश है। वैसे दोस्त एक बात कहूँ जीना इसी को कहते हैं।
बात तो तू ठीक कह रहा है भाई। उस जिले सिंह ने इस जिले सिंह को सबक दिया है। जिले सिंह को ये तेरा दोस्त अपनी प्रेरणा बनाएगा और जिंदगी को पूरी हिम्मत से लड़ते हुए जिएगा।
अब आया न लाइन पर।
हाँ भाई बेशक देर से आया पर दुरुस्त आया।  है कि नहीं?
बिलकुल भाई!

लेखक : सुमित प्रताप सिंह

शनिवार, 10 जून 2017

व्यंग्य : अन्नदाता का दुःख

इन दिनों अन्नदाता हैरान और परेशान हैं। उनकी हैरानी और परेशानी जायज है। वो उन कामों के लिए देश-विदेश में बदनाम हो रहे हैं, जिनको उन्होंने किया ही नहीं। उन्हें उत्पात और विध्वंश का दोषी ठहराया जा रहा है। अन्नदाता कभी उत्पात और विध्वंश करने की सोच ही नहीं सकते। वो तो इतना कर सकते हैं कि जब सहना उनके वश में न हो तो वो किसी पेड़ की डाली पर चुपचाप लटककर अथवा विषपान करके अपनी इहलीला का अंत कर लेंगे। पर उत्पात और विध्वंश करन उनके शब्दकोश में नहीं है। उन्हें सिर्फ सृजन करना आता है। उनके सृजन के फलस्वरूप ही इस संसार का पेट भर रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो संसार अन्नदाताओं के कारण ही पल रहा है,लेकिन फिर भी  संसार को अन्नदाताओं का होना खल रहा है। हर ओर से उम्मीद खोने के बाद राजनीतिक तूफान में अपनी राजनीति की नौका डुबो चुके लोगों ने अन्नदाताओं का सहारा ले फिर से नदी की धारा में अपनी नौका खेवने की भरकस कोशिश शुरू कर दी है। इसके लिए वे किसी भी हद तक गिरने को तैयार हैं। उनके गुंडों ने अन्नदाताओं का भेष धरकर देश में जगह-जगह विनाशलीला आरंभ कर दी है। कभी वो बहरूपिए चूहों को खाने का दिखावा करते हैं तो कभी नरमुंडों के संग फैशनेबल पोज़ देते हैं। कभी किसानों की दुर्दशा का रोना रोकर लूटपाट का सहारा लेते हैं तो कभी आगजनी कर अपने गुस्से का इजहार करते हैं। अब फिर से वो मैदान में हैं। उनके द्वारा दूध किसी भूखे के पेट में जाने की बजाय सड़कों पर बहाया गया। बसें और गाड़ियाँ फूँककर विरोध दर्शाने का ड्रामा रचा गया। लूटपाट और मारपीट का सहारा ले आंदोलन को चमकाने की भरपूर कोशिश हुई। अन्नदाताओं के कंधों का सहारा ले अपनी किस्मत चमकाने का प्रयास करनेवाले राजनीति के बाजीगर नित नई बाजी चल रहे हैं और देश और समाज को छल रहे हैं। उनका क्रोध उचित है। इतने सालों से देश में राम राज्य चल रहा था और एक दिन एक व्यक्ति आया और उसने आकर अचानक उस रामराज्य का दी एंड कर दिया। तथाकथित बुद्धिजीवी सामूहिक रूप से रामराज्य के फिर से लौटने की प्रार्थना आए दिन करते रहते हैं। उस राम राज्य की वापसी के लिए संग्राम जरूरी है और उस संग्राम को लड़ने की जिम्मेवारी किसान का भेष धरे बहरूपियों ने संभाली है। उन बहरूपियों की डोर राजनीति के बाजीगरों के हाथों में हैं। जैसे-जैसे  बहरूपियों का उत्पात बढ़ता जा रहा हैवैसे-वैसे ही अन्नदाताओं का दिल भय से धड़कने लग रहा है। वो उन बहरूपियों की लच्छेदार बातों में फँसकर बेमौत मारे जा रहे हैं। उनकी लाश पर राजनीति करनेवालों की बाँछें खिल उठी हैं। वो ब्रांडेड कपड़े पहने हुए शुद्ध पौष्टिक भोजन और बिसलेरी की बोतल अपनी काँख में दबाए हुए मोटरसाइकिल पर बिना हेलमेट पहने व ट्रिपल राइडिंग करते हुए अन्नदाताओं के दुखों और परेशानियों को हरने के दावे के साथ उनके बीच पधार चुके हैं। अब शायद अन्नदाताओं के दुःख और परेशानी दूर होने का वक़्त आ गया। या फिर ऐसा भी हो सकता है कि उनके दुःख और परेशानी सुरसा जैसा विशाल आकार लेने को अग्रसर हो रहे हों।    
लेखक : सुमित प्रताप सिंह 
चित्र गूगल से साभार 

शनिवार, 8 अप्रैल 2017

व्यंग्य : मुस्कुराइए फिर से इलेक्शन हैं


   कूंचे, गलियां और मोहल्ले फिर से गुलज़ार होने लगे हैं। वो फिर से टोली बनाकर दरवाजे-दरवाजे जाकर अपनी हाजिरी दर्ज करवा रहे हैं। पाँच साल पहले चोट खाए हुए लोग नज़रें उठाकर खोज रहें हैं कि शायद कोई जाना-पहचाना चेहरा मिल जाए तो उसे कुछ पलों के लिए गरियाकर अपने दिल की भड़ास निकाल लें। पर उन्हें जाना-पहचाना कोई चेहरा नहीं दिखता बल्कि उन्हें दीखता है एक बिलकुल ताज़ा-तरीन चेहरा जो न तोड़नेवाले अनेकों वादे अपने संग लिए हुए नमस्कार मुद्रा में सामने खड़ा हुआ है। पहली बार तो नज़र उठाकर उसे एक पल को देखा तो वो चेहरा अनजाना सा लगा था लेकिन फिर गौर से देखने पर उनकी सूरत कुछ जानी-पहचानी सी लगने लगती है। अचानक याद आता है कि ये सूरत तो उनसे मिलती-जुलती है जिन्होंने पाँच साल पहले इसी प्रकार अपने दिव्य दर्शन दिए थे और उसके बाद ऐसे गायब हुए जैसे गधे के सिर से सींग। पाँच सालों तक उन्होंने ‘उल्लू बनाओ अभियान’ को सुचारू रूप से चलाया। इस बार जब उन्हें इस अभियान की कमान नहीं सौंपी गई तो वे अपने भतीजेभांजे या फिर कुछ दूर के रिश्तेदार के माध्यम से इस अभियान को सुचारू रूप से चालू रखने के लिए लोगों के बीच फिर से मौजूद हैं। ‘उल्लू बनाओ अभियान’ का वर्तमान प्रतिनिधि और उनके सगे-संबंधी काफी जुझारू हैं। ये उनका जुझारूपन ही जो इतने सिर-फुटव्वल के बाद भी प्रतिनिधित्व प्राप्त करने का जुगाड़ कर लिया । हम उन्हें सम्मानपूर्वक ‘जुगाड़ी’ शब्द से भी सुशोभित कर सकते हैं। वो लुटे-पिटे जनों की चरण वंदना कर उनको देव होने की फिर से अनुभूति कराते हैं और इस अनुभूति के बदले में उनका आशीर्वाद प्राप्त करने की तीव्र इच्छा रखते हैं। जब उन्हें लगता है कि इस बार देव हठ करने पर उतारू हैं तो वो उनके समक्ष सुरा सहित विभिन्न मनभावन उपहार चढ़ावे के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इतना सब पाकर देव एकदम से खिल उठते हैं। वो आशा और विश्वास के साथ मुस्कुराते हैं। उनके संग कूंचों, गली-मोहल्लों और नाले-नालियों के इर्द-गिर्द सड़ांध मारता हुआ कूड़ा-करकट भी मुस्कुराता है। मच्छर और मक्खियाँ झूमते हुए नृत्य करते हैं। बीमारियाँ उम्मीद भरी निगाहों संग अंगड़ाई लेते हुए मुस्कुराती हैं। आस-पास का वातावरण भी गंधाते हुए मुस्कुराता है। तभी बिजली कड़कती है और आसमान से लखनवी अंदाज में आवाज गूँजती है 'मुस्कुराइए फिर से इलेक्शन हैं।" 

लेखक : सुमित प्रताप सिंह 


कार्टून गूगल से साभार 

शनिवार, 1 अप्रैल 2017

व्यंग्य : रोमियो तुम कब आओगे




     जकल बहुत परेशान हैं वो और काफी नाराज भी। वो चिंता में डूबकर विचार कर रहे हैं कि आखिर क्यों उन्हें शिकार बनाकर उन पर शिकंजा कसा रहा है। अभी तक तो कितने निश्चिन्त थे वे सब। न कोई रोक-टोक थी और न ही कोई बंधन था। बस उनकी मनमर्जी चलती थी। प्यार के नाम पर एक तो अय्याशी करने का मौका मिलता था ऊपर से ये सब करने के बदले जन्नत का दरवाजा खुलने का वादा भी। इस नेक काम में उन्हें बड़े-बड़ों का पूरा समर्थन और संरक्षण भी प्राप्त था। जिंदगी कितने मजे से बीत रही थी और अचानक यूँ मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। उन्हें रोमियो बता उनके खिलाफ बाकायदा अभियान चलाकर उनके प्रेम के धंधे को दफ़न करने की गहरी साजिश रची गयी। इस बार उनके आकाओं की चिल्ल-पौं भी कुछ काम न आ सकी। उनके शुभचिंतक चीखते रहे, चिल्लाते रहे और वो रोमियो को अपने  जाल में फँसाते रहे। वैसे तो ये लोग पश्चिमी संस्कृति को पानी पी-पीकर कोसते रहते हैं, पर अभियान चलाया तो पश्चिम के प्रेमी रोमियो के नाम पर। क्या मजनू और राँझे के प्यार में कोई कमी थी? क्या उन्होंने प्यार की खातिर क़ुरबानी नहीं दी थी? कम से कम मजनू और राँझे के नाम पर अभियान चलता तो उन पर सांप्रदायिक होने का दोष तो मढ़ा जा सकता था। पर नहीं उनके आदर्श तो पश्चिमवाले जो ठहरे। ये सोचते हुए वो अपने माथे पर चन्दन का तिलक लगाते हैं, अपने हाथों में पवित्र कलावा बाँधते हैं, हिन्दू देवी-देवताओं के लॉकेट गले में टाँगते हैं और पूरी तैयारी के साथ मँहगे कपड़े पहनकर अपनी फंडेड चमचमाती बाइक पर किक मारकर अपने इश्क़ मिशन पर रवाना हो जाते हैं। ये देखकर रोमियो-जूलियट, लैला-मजनू, हीर-राँझा प्रेम में क़ुर्बान हुए बाकी प्रेमी-प्रेमिकाओं संग मुस्कुराते हैं। पर उनकी मुस्कराहट में दुःख भरी उदासी है। वो आधुनिक रोमियो को धिक्कार रहे हैं। पर आधुनिक रोमियो इन सब बातों से बेपरवाह हैं। उन्हें तो बस उनके प्यार में फँसी हुईं मुर्गियाँ दिखाई दे रही हैं जिनको हलाल करना ही उनका मकसद है। उनका इंतज़ार उनके मकड़जाल  में फँसी हुईं अकलमंद आधुनिक जुलियटें पलकें बिछाकर कर रही हैं। उनके संग-संग अपने-अपने लट्ठ को तेल पिलाकर तैयार कर रोमियो की राह तकते हुए एंटी रोमियो स्क्वैड के सभी जवान बार-बार एक ही सवाल कर रहे हैं 'रोमियो! तुम कब आओगे?"
लेखक : सुमित प्रताप सिंह
कार्टून गूगल से साभार 

शनिवार, 18 मार्च 2017

व्यंग्य : इन दिनों


    न दिनों जाने क्या हो रहा है। मतलब कि इन दिनों कुछ अजीब सा ही हो रहा है। इन दिनों देश की सबसे ईमानदारी पार्टी को उसकी ईमानदारी के बदले में जनता ने फिर से ठेंगा दिखा दिया। जनता ने एक पल के लिए भी नहीं सोचा कि उस पार्टी ने देश के लिए कितना कुछ किया था। देश के स्वतंत्र होने के बाद से ही उसके द्वारा कर्मठता से किए गए कार्यों से पूरे विश्व में देश की चर्चा हुई। उन विशेष कार्यों पर नज़र दौड़ाई जाए तो इसके द्वारा अल्पसंख्यकों पर इतनी कृपा की गयी कि वो वोट बैंक बनने से ज्यादा आगे बढ़ ही नहीं पाए। इस वोट बैंक के सहारे उसने खूब मजे काटे पर इन दिनों इस परंपरागत वोट बैंक ने भी इसका बैंड बजाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। देश के संसाधनों का सदुपयोग करते हुए घोटालों की जमकर खेती की गयी और फसल से जो आय हुई उसे स्विस बैंक के चरणों में अर्पित कर दिया गया। देश के विकास का नारा देते-देते अपने परिवार की वंशबेल में पानी देकर पोषित किया जाता रहा। पर वो कहते हैं न कि किसी भी बात की होती है तो हद पार हुई और उसी वंशबेल से एक अनुपयोगी पौधा उपज गया जिसने अपने पुरखों के परिश्रम का राम नाम सत्य कर डाला। उस पौधे की संगत में आकर कुछ नए पौधे, जो जोश में आकर खुद को वटवृक्ष समझकर उछल रहे थे, वो भी अपना तिया-पाँचा करवा बैठे। अब क्या करें इन दिनों देश में ऐसी आंधी चल रही है जो देश के लिए अनुपयोगी पौधों व वृक्षों को जड़ से हिलाकर अपनी अंतिम साँसे गिनते हुए अपना शेष जीवन बिताने को विवश किए हुए है। इस आँधी ने सिर्फ राजनीति की वंशबेल को ही बेजान नहीं किया, बल्कि इसके परमप्रिय समर्थकों, जिन्हें लोग भूलवश चमचा समझ लेते हैं, का भविष्य भी दाँव पर लगा दिया। बीते दिनों इन परमप्रिय समर्थकों ने असहिष्णुता राग गाते हुए पुरस्कार वापसी अभियान चलाया था ताकि इस माध्यम द्वारा ही उस आँधी को रोका जा सके और उनके पापी पेट पर लात न पड़े। पर आँधी इतनी बेरहम निकली कि उसकी रफ़्तार के आगे उन परमप्रिय समर्थकों की भी कुछ न चली। फलस्वरूप इन दिनों परमप्रिय समर्थक अपने भविष्य को अंधकारमय पाते हुए सुबकने को विवश हैं। ऐसे गर्म माहौल में भी एक ये सर्दी है जो जाने का नाम नहीं ले रही। लगता है कि सर्दी ने भी ये सोच रखा है कि ये इन दिनों आँधी के मारे उन बेचारों को सर्द-गर्म की सौगात देकर उनके अंजर-पंजर ढीले करते हुए ही रवाना होगी।

लेखक : सुमित प्रताप सिंह


मंगलवार, 14 फ़रवरी 2017

लघुकथा : असली वैलेंटाइन

      

      रोहित को खिड़की में दूरबीन से दूसरी बिल्डिंग में झाँकते हुए देखकर जतिन ने पूछा, “अबे साले किसके बाथरूम की जासूसी हो रही है?”

“साले इतना भी कमीना मत समझ। मैं तो अखिल के घर पर निगाह टिकाए हुए हूँ।” रोहित दूरबीन में ही खोया हुआ बोला।
“अखिल की जासूसी? अबे तुझे और कोई शिकार नहीं मिला जो उस शरीफ लड़के के पीछे पड़ गया।” जतिन ने नाराजगी जताई।
“भाई हर शरीफ के दिल में एक कमीना भी छिपा हुआ बैठा होता है।” रोहित ने बिना दूरबीन से संधिविच्छेद किए अपनी राय रखी।
जतिन के कुछ समझ में नहीं आया, “अबे ज्यादा कंफ्यूज मत कर, बात क्या है वो बता।”
“आज अखिल ने फूलवाले बुड्ढे से दो गुलाब खरीदे हैं।” रोहित कुटिल मुस्कान के साथ बोला।
जतिन ने हैरान हो कहा, “एक नहीं वो भी दो-दो गुलाब। मतलब कि लड़कियों से दूर भागने वाला लड़का आज वैलेंटाइन डे दो-दो लड़कियों के साथ मनायेगा!”
"यही तो पता करना है।" और रोहित फिर दूरबीन में खो गया, “अरे वाह! आज तो बंदे का ड्रेसिंग सेंस देखने लायक है। ये लो जी वैलेंटाइन डे मनाने के लिए बंदा अपने माँ-बाप के पैर छूकर आशीर्वाद भी ले रहा है। अरे ये क्या अखिल ने तो एक-एक करके दोनों गुलाब अपने मम्मी-डैडी को दे दिए।” रोहित हैरान हो अपना सिर खुजाने लगा।
“अच्छा तो ये बात है। मतलब कि अखिल के मम्मी-डैडी ही हैं उसके असली वैलेंटाइन।” जतिन ने मुस्कुराते हुए कहा।
लेखक - सुमित प्रताप सिंह

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