बुधवार, 30 अगस्त 2017

हास्य व्यंग्य : मुल्ला जी और शुभचिंतक काफ़िर लल्ला जी


मुल्ला जी अपना सिर पकड़े बैठे हुए थे। उनके दिमाग में बार-बार ‘तलाक़ तलाक़ तलाक़’ की तेज आवाज गूँज रही थी। जब उनसे बर्दाश्त न हुआ तो अपने दोनों हाथों को आसमान की ओर उठाकर चीखते हुए बोले, “या अल्लाह अब हमारे क़ौमी मसले का फैसला ये मुआँ कोर्ट करेगा। जो पाक काम 1400 साल से होता चला रहा था उसपर कोर्ट का यूँ कानून हथौड़ा चला देना कहाँ का इंसाफ है?” “सही कह रह रहे हो भाई जान! ये सुप्रीम कोर्ट की सरासर नाइंसाफी है।” मुल्ला जी ने अपनी दाढ़ी को खुजाते हुए सामने नज़र डाली तो देखा कि उनके सामने उनके शुभचिंतक काफ़िर लल्ला जी खड़े हुए थे। लल्ला जी दूसरे मजहब के होने के कारण मुल्ला जी की नज़रों में हमेशा काफ़िर ही रहे लेकिन काफ़िर होकर वो भी उनके हर सुख-दुःख में हमेशा संग रहे। चाहे तलाक़ का मसला हो या हलाला हो या फिर मुताह का मामला हो काफ़िर लल्ला जी ने हर बात में मुल्ला जी और उनकी क़ौम का दिलोजान से समर्थन किया। असल में काफ़िर लल्ला जी अपने दल के प्रति बड़े वफादार हैं और उनका दल मुल्ला जी और उनकी क़ौम के सहारे ही देश की सत्ता सुख भोगता रहा है। अपने दल की कृपा से लल्ला जी भी जीवन के सारे सुख और आराम लेते हुए जीने का मजा लेते रहे हैं। काफ़िर लल्ला जी को सामने देख मुल्ला जी एक पल को खुश होते हैं और अचानक ही दुःख के मारे माँ-बहिन की गालियों की खेप निकलना शुरू कर देते हैं। काफ़िर लल्ला जी समझ जाते हैं कि मुल्ला जी इतनी मनमोहक गालियाँ किसको समर्पित कर रहे हैं। वो उनके पास आते हैं और उनके हाथों को अपने हाथ में लेकर उन्हें सांत्वना देते हुए समझाते हैं कि जो भी हुआ बहुत गलत हुआ तथा उन्हें सुझाव देते कि इस गलत फैसले के खिलाफ पूरी क़ौम को अपनी आवाज बुलंद करनी चाहिए। मुल्ला जी को काफ़िर लल्ला जी की बातें सुनकर अचानक जोश आ जाता है और उनका खून गुस्से के मारे उबाल मारने लगता है। वो बुलंद आवाज में ‘हमारी क़ौम हमारा कानून’ का नारा लगाते हैं। उनके शुभचिंतक काफ़िर लल्ला जी उनका साथ देते हैं तथा इस गलत फैसले का समर्थन देने के लिए अपने धर्मवालों का मजाक उड़ाते हैं और उनपर कटाक्ष से भरे हुए अनेकों जुमले उछालते हैं। उधर मुल्ला जी की अम्मी और बहिनें उन्हें समझाती हैं कि इस फैसले से उनके परिवार और क़ौम की औरतों का भी भला होगा और उनकी जिंदगी नर्क नहीं बन पाएगी। मुल्ला जी ये सुनकर अपनी टोपी उतारकर अपने सिर पर हाथ फेरते हुए गहरी सोच में डूब जाते हैं। सोचते-सोचते वो एक पल को बुर्के के भीतर मुँह छिपाए हँस रहीं अपनी बेगम को झल्लाहट में देखते हैं और दूसरे ही पल पड़ोस में रहनेवाली हुश्न में हूर को भी मात देनेवाली रेशमा को हसरत भरी निगाहों से देखते हुए ठंडी-ठंडी आहें भरने लगते हैं। रेशमा के लिए लार टपकाते मुल्ला जी को उनके मोहल्ले में रहनेवाले उनकी क़ौमवाले समझदार लोग भी उन्हें कोर्ट के फैसले के फायदे गिनाने लगते हैं। उनके शुभचिंतक काफ़िर लल्ला जी भी बहती हवा का रुख भाँपकर और अपने-आपको एकदम से उसके अनुसार ढालकर मुल्ला जी को कोर्ट के फैसले के उजले पक्ष के बारे में विस्तार से बताने लगते हैं। ये देख मुल्ला जी अपने मुँह में भरी पान की पीक एक ओर थूकते हैं और अपना सिर खुजाते हुए काफ़िर लल्ला जी को घूरकर देखते हुए सोचने लगते हैं, “ये साला लल्ला जी हमारा शुभचिंतक है या फिर खुदचिंतक?”

लेखक : सुमित प्रताप सिंह 

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