मंगलवार, 13 दिसंबर 2016

व्यंग्य : क्या देश वाकई में चीख रहा है


    देश में इन दिनों चीख-पुकार मची हुई है। जब भी देश में कुछ नया होता है तो लोग चीखते हैं और पूरा दम लगाकर चीखते हैं। इस बार चीखने की शुरुआत नवंबर, 2016 को हुई थी। बड़े नोटों की बंदी ने देश के कुछ भले और ईमानदार लोगों के दिलों पर करारा आघात किया, जिससे वो एकदम से बिलबिला उठे। उनसे ज्यादा परेशान उनके संरक्षक और आका हो गए और सड़क से लेकर संसद तक उन्होंने जमकर चीख-पुकार मचानी शुरू कर दी। हालाँकि इस फैसले से उनका नेक दिल बहुत दुखा और उन्होंने काफी कष्ट और परेशानी महसूस की पर उन्होंने देश की जनता के कष्टों को ढाल बनाकर तलवारबाजी करनी शुरू कर दी। वैसे अगर देखा जाए तो उनका चीखना जायज भी है। देश की जनता का खून चूस-चूसकर ईमानदारी और मेहनत से जमा किया इतना ढेर सारा धन यूँ अचानक रद्दी हो जाए तो भला कोई चुप रह भी कैसे सकता है। इसलिए भुक्तभोगी चीख रहे हैं और इस चीख-पुकार से जनता को दिग्भ्रमित करते हुए अपने रद्दी हो चुके धन को फिर से धन की श्रेणी में लाने की भरपूर जुगत लगा रहे हैं। बैंक कर्मचारियों के रूप में अपने देश में एक नई ईमानदार कौम का उदय हुआ है और ईमानदारी में वो बाकी कौमों को तेजी से पीछे छोड़ने को तत्पर है। उनकी ईमानदारी देखनी हो तो बैंक के पिछले दरवाजे पर खड़े हो जाएँ। आपको बिना किसी विशेष परिश्रम के ही बैंककर्मियों के दिलों से झाँकती हुई विशेष ईमानदारी के दर्शन हो जाएँगे। साथ ही साथ दिख जाएँगे चीखते रहनेवाले वे भले और ईमानदार लोग भी। बैंक कर्मचारियों द्वारा चीखनेवाले भले मानवों को पूरी ईमानदारी और निष्ठा से गड्डियों का भोग लगाया जाता है, जिसे वे अपने सेवकों को प्रसाद के रूप में वितरित करके फिर से चीखना-चिल्लाना शुरू कर देते हैं। यह देख उनके चमचे भी प्रसाद को ठिकाने लगाकर अपने गुरुओं का समर्थन करते हुए उनका साथ देते हुए रेंकना शुरू कर देते हैं। जो चमचे चीखने में असमर्थ हैं और कलम तोड़ने में सिद्धहस्त हैं उन्हें आभासी दुनिया पर बिठा दिया जाता है और वो सभी निष्ठापूर्वक अपने आकाओं के समर्थन व नोटबंदी के विरोध में आभासी दुनिया पर चिल्ल-पों मचाना आरंभ कर देते हैं तथा ये घोषित करने का पूरा प्रयास करते हैं कि पूरा देश उनके संग विरोध में चीख रहा है जबकि मामला कुछ और ही होता है। दरअसल पूरा देश उन सबकी चीख-पुकार सुनते हुए खिलखिलाकर हँस रहा होता है।


लेखक : सुमित प्रताप सिंह

शुक्रवार, 18 नवंबर 2016

व्यंग्य : अब तेरा क्या होगा कालिया


   काले धन उर्फ़ कल्लूकल्लनकालिया इन दिनों अधिकांश देशवासी तुम्हें दे रहे हैं जी भरकर गालियाँ। सरकार ने तुम्हें बाहर निकलने को कहा था लेकिन तुम नहीं निकले। फलस्वरूप तुम्हें बाहर निकालने को सरकार को बड़ा कदम उठाना पड़ा और उसके एक कदम उठाने से ही तुम्हारी ढिमरी टाइट हो गई तथा तुम्हारे आकाओं की चूलें तक हिल गईं। अब ये और बात है कि तुम्हें बाहर निकालने के लिए सरकार के इस औचक हमले का परिणाम आम जनता को भी झेलना पड़ रहा है। नोट चेंज करवाना और नोट छुट्टे करवाना अब राष्ट्रीय चिंता और समस्या बन गई है। इन दिनों लोगों का समय ए.टी.एम.बैंकों व डाकघरों की चौखट पर लाइन लगाकर नए नोटों के दर्शन करने की इच्छा लिए हुए ही बीत रहा है। उनका सुबह का ब्रेकफास्ट, दोपहर का लंच और रात का डिनर वहीं लाइन में लगे हुए ही हो रहा है। जो लोग खुशनसीब हैं वे तो नए नोटों के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त कर पाते हैं, लेकिन जो अभागे मानव हैं वे बेचारे नए नोटों के दर्शनों का स्वप्न देखते हुए ही लाइन में लगे रहते हैं। इन दिनों बैंककर्मी देवदूतों से कम प्रतीत नहीं हो रहे हैं और हर व्यक्ति लाइन में लगे हुए ये कामना कर रहा है कि उसपर इन देवदूतों की कृपा हो जाए और उसकी मुट्ठी नई करेंसी से गर्म हो जाए। अब ये और बात है कि ये देवदूत गुपचुप दानवपना दिखा रहे हैं और अपने परिचितों और सगे-सम्बन्धियों को नवनोट मिलन परियोजना का भरपूर लाभ प्रदान कर रहे हैं। लोग नोट दर्शन की आस लिए रात से ही बिस्तर डालकर ए.टी.एम.बैंकों व डाकघरों के आगे धरना सा दिए बैठे हुए हैं। एक बार को तो लगता है कि जितनी शिद्दत से लोग नवनोट मिलन की इच्छा कर रहे हैं, उतनी शिद्दत से अगर ऊपवाले को याद कर लिया जाए तो उसके दर्शन पाकर इस जीवन-मरण के बंधन से मुक्ति मिल जाए।
वैसे मजे की बात ये है कि जनता इतने कष्टों को झेलकर भी प्रसन्न है और सरकार के इस सार्थक कदम की प्रशंसा कर-करके विपक्षी दलों का कलेजा फूँककर कोयला बनाने की साजिश में लगी हुई है। गांधी जी हरे से गुलाबी हो मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं। अचानक नोटबंदी से अवैध खजानों में बंदी बन रखे नोट रद्दी का ढेर बन चुके हैंजिससे नक्सलियों और आतंकियों के पाक कामों में अचानक विराम लग गया है। कश्मीर में पत्थरबाजी नामक लघु उद्योग को करारा झटका लगा है। पड़ोसी देश के शांति मिशन में अवरोध उत्पन्न हुआ है और वो शांतिदूतों की सप्लाई में काफी दिक्कत महसूस कर रहा है। तुम्हारे आकाओं के ताऊ-ताईचाचा-चाचीमामा-मामी व अन्य सगे-संबंधी विरोध का झंडा उठाए हुए कभी मार्च कर रहे हैं तो कभी संसद का सदन जाम करने के लिए कमर कस रहे हैं। इन सबसे इतर अधिकतर देशवासी एक नए भारत के उदय होने की आहट सुन रहे हैं। इन दिनों देश भी मुस्कुराकर तुमसे गब्बरी अंदाज में पूछ रहा है "अब तेरा क्या होगा कालिया?"
लेखक : सुमित प्रताप सिंह
*कार्टून गूगल से साभार 

शनिवार, 5 नवंबर 2016

व्यंग्य : देशी ड्रैगन


- भाई नफे!
- हाँ बोल भाई जिले!
- किन हसीन ख्यालों में खोया हुआ मुस्कुरा रहा है?
- भाई मैं तो चीनी ड्रैगन की हालत देखकर मुस्कुरा रहा था।
- क्यों क्या हुआ चीनी ड्रैगन को?
- होना क्या है बेचारा अधमरा हो रखा है।
- वो भला कैसे?
- भाई इस दिवाली देशवासियों ने देशभक्ति का दम दिखाया और चीनी माल का बहिष्कार कर चीनी ड्रैगन की हालत खस्ता कर दी।
- सुना है भाई कि इस बार व्यापारी वर्ग ने इस काम में बड़ी भूमिका निभाई।
- हाँ भाई इस बार व्यापारी भाइयों ने चीनी ड्रैगन की नैया डुबोने में पूरी भूमिका निभाई। इस बार दिवाली पर चीनी सामान की खपत में 60% की गिरावट दर्ज की गई, जिसके कारण  चीनी ड्रैगन अधमरा हो रखा है।
- मतलब कि अभी भी अपने देश में 40% ऐसे महान लोग मौजूद हैं, जो चीनी सामान को इस्तेमाल करने में गर्व करते हैं।
- हाँ भाई दुर्भाग्यवश ऐसे महान लोग भी इस देश में मौजूद हैं।
- वैसे कौन हैं ये महान लोग?
- ये महान लोग देशी ड्रैगन  हैं।
- देशी ड्रैगन?
- हाँ भाई देशी ड्रैगन।
- भाई अब तू कंफ्यूज मत कर, बल्कि इनके बारे में खुलके बता।
- भाई देशी ड्रैगन ऐसे महान लोग हैं जो इस देश में रहते और यहाँ का खाते बेशक हैं लेकिन इन्हें इस देश और इसके नफे-नुकसान से कोई मतलब नहीं है। ये लोग तो हमेशा इस चिंता में डूबे रहते हैं कि इन्हें किसी प्रकार की कोई असुविधा नहीं होनी चाहिए बल्कि इनका स्वार्थ सिद्ध होते रहना चाहिए।
- भाई इन देशी ड्रैगनों की पहचान क्या है?
- भाई इन देशी ड्रैगनों को आसानी से पहचाना जा सकता हैं। हर गली-मोहल्ले और नुक्कड़ पर इनकी उपस्थिति मिल जाएगी। इनमें से कुछ लोग दिवाली से पहले और बाद में चीनी सामान खरीदने की वकालत करते हुए मिल जाते हैं और कुछ पड़ोसी देश के कलाकारों के लिए आँसू बहाते दिख जाते हैं। कुछ आतंकियों के जनाजों में छाती पीटते हुए देश विरोधी नारे लगाते हुए मिल जाते हैं तो कुछ किसी मुठभेड़ में अपराधियों के मारे जाते ही सेना अथवा पुलिस के विरुद्ध मोर्चा ले जाँच आयोग बिठाने की सिफारिश करते हुए दिख जाते हैं।
- आखिर कैसे लोग हैं ये?
- लोग नहीं भाई देशी ड्रैगन बोल।
- हाँ भाई ये लोग सही मायने में ड्रैगन ही हैं। भारत की पवित्र भूमि में पल रहे अपवित्र देशी ड्रैगन।
- अब तू ठीक से इन्हें समझा।
- हाँ भाई बिलकुल समझ गया। पर ये तो बता कि इन दिनों इन देशी ड्रैगनों के हाल क्या हैं?
- इन दिनों बेसुध होकर पड़े हुए हैं बेचारे।
- हालत ज्यादा नाजुक तो नहीं हो गई इनकी।
- भाई इस समय देश के हालात ही ऐसे हो रखे हैं कि इनकी हालत नाजुक होना लाजिमी है। मुझे तो इस बात का डर है कि कहीं आए दिन लगनेवाले सदमों से ये मर न जाएँ।
- हा हा हा भाई अगर ऐसा हुआ तो बढ़िया ही रहेगा। कम से कम इस देश की धरती से फालतू का कुछ बोझ तो कम हो जाएगा। 

लेखक : सुमित प्रताप सिंह

सोमवार, 31 अक्टूबर 2016

व्यंग्य : कंस का प्रतिशोध


 विष्णु जी को उदास हो किन्हीं ख्यालों में खोए देखकर लक्ष्मी जी से रहा नहीं गया और उनसे पूछ ही लिया।
-
प्रभु किन विचारों में खोए हुए हैं?
-
बस ऐसे ही कुछ सोच रहे थे।
-
कुछ न कुछ तो बात है प्रभु। आप यूँ ही गुमसुम और उदास नहीं हो सकते।
-
नहीं-नहीं देवी ऐसी कोई विशेष बात नहीं है।
-
प्रभु शायद मेरी सेवा में कोई कमी रह गयी है।
-
मैंने कहा न लक्ष्मी ऐसी कोई बात नहीं है।
-
तो जो भी बात है कृपया मुझे बताएँ।
-
द्वापर युग में हमने कृष्ण का अवतार लिया था।
-
हाँ तो उस युग में हमने भी रुकमणि के रूप में आप संग अवतार लिया था।
-
हाँ बिलकुल! उस युग में हमने अपने अत्याचारी मामा कंस और उसके दुष्ट सहयोगियों का वध किया था।
तो!
-
तो हुआ ये कि कंस ने मरते हुए चुपके से हमारे पाँव पकड़कर अपने कर्मों के लिए क्षमा माँगी और हमसे धोखे से एक वरदान ले लिया।
धोखे से! किन्तु मैंने तो ये सुना है कि भोले शंकर ही भोलेपन के कारण धोखे में फँसते हैं पर आप भी...।
-
अब क्या करतेउस समय मानवातार में कुछ पल के लिए बुद्धि भी मानवीय हो गयी थी इसलिए धोखे में फँस गए।
-
आप तो फँस गए और साथ ही मुझे भी फँसवा दिया।
-
वो कैसे?
-
अभी तक तो मैं और सरस्वती अपनी सहेली पार्वती का उनके पति के भोलेपन के लिए मजाक उड़ाती थीं, लेकिन अब सरस्वती और पार्वती मुझे जीने नहीं देंगी।
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अरे भई भूल हो गयी सो हो गयी।
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वैसे कंस ने आपसे वो कौन सा वर लिया था जिसने आपको इतनी परेशानी में डाल दिया?
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उसने वर माँगा था कि अगले युग उसका जन्म कंस के रूप में न हो।
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कंस के रूप में नहीं तो फिर किस रूप में वह जन्म लेना चाहता था?
-
वह मेरे रूप में जन्म लेना चाहता था।
-
इसका अर्थ है कि मरते समय उसको वास्तव में सद्बुद्धि आ गयी थी।
-
देवी जैसे कि कुत्ते की पूँछ कभी सीधी नहीं हो सकती, उसी तरह दुष्ट प्रवृत्ति के लोग अपनी दुष्टता से कभी भी बाज नहीं आ सकते।
-
अब इसमें दुष्टता वाली बात क्या हो गयीउस बेचारे ने तो तुम्हारे आदर्शों से प्रभावित होकर तुम्हारे रूप में जन्म लेने का वर माँगा और आप उसे दुष्ट मानने पर तुले हुए हैं।
-
देवी यही तो उसकी दुष्टता थी।
-
वो भला कैसे?
-
उसने मरते समय अपने साथियों व अपनी मृत्यु का बदला लेने के लिए षड़यंत्र रचा था।
-
कैसा षड़यंत्र प्रभु?
-
कंस द्वापर युग में तो हमारा बाल-बांका नहीं कर सकाकिन्तु कलियुग में उसने हमारे नाम पर पूर्व योजनानुसार ऐसी कालिख पोती है कि लोग हमारा  नाम लेने से भी कतराने लगे हैं और जो लोग नाम ले भी रहे हैं वो अभद्रतापूर्वक ले रहे हैं।
-
अच्छा ऐसी बात है। वैसे प्रभु कंस ने कहाँ और किस नाम से जन्म लिया है?
-
उस दुष्ट ने भारत देश में मेरे पर्यावाची नाम से जन्म लिया है और इस समय वहाँ के एक तथाकथित राष्ट्रभक्त विश्वविद्यालय में अपने हरकतों से मेरे नाम का मानमर्दन करने में लगा हुआ है।
इतना कहकर विष्णु जी ने गहरी साँस छोड़ी और उदास हो फिर से ध्यान मग्न हो गए।

लेखक : सुमित प्रताप सिंह 



सोमवार, 24 अक्टूबर 2016

Satire : My real Indian Diwali




     Whenever I decided that I will try to inspire my friends, relatives and people around me by boycotting Chinese products & will convey my message about empowering local businesses in our own country to produce those products. Suddenly, some people with jolterhead attitudes appeared infront of me and started arguing that this is not at all possible and I would not be enough capable to do this. I replied them “Every drop of sea is the whole ocean”.They started laughing on me sarcastically and told me that you can’t avoid Chinese products from your routines where every second item belongs to China because of its cheapness in comparison to India. I could not understand the points why they were favouring Chinese items, either they were of Chinese origin or it may be that they were Chinese agents. I said that it may be cheap but not so good to empower our economy so I must boycott Chinese products and would also suggest my friends and relatives to boycott these products on a big scale. They again asked me "How would you reach up to more and more people by conveying the message?" I told them frankly, "You can see my smart phone and I will begin from it. I will send SMS, start calling people over phone using different platforms, and will share message on Social media too."
This time they laughed out loudly and said, "Dear, You are carrying a cellphone in your hand that is also being manufactured from Chinese companies."
I smiled and said, "You must that; Only Iron can cut Iron. So I will use this Chinese smart phone against Chinese products."
After sometimes, The same people were going their way angerly and I just kept lighting Diyas and Lamps after destroying Chinese lights. First time ever I celebrated real Indian Diwali. When I was lighting Diyas made of mud by poor people, I could feel their smiling faces in oil containing in it. 

Writer : Sumit Pratap Singh

* Image from google with thanks

शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2016

व्यंग्य : राम नाम की शक्ति

-भाई नफे!
-हाँ बोल भाई जिले!
-आज तू क्या बुदबुदाने में लगा हुआ है?
-भाई मैं राम नाम का जाप कर रहा था।
-भाई आज तुझे राम का नाम का जाप करने की क्या सूझ पड़ी?
-राम नाम में बहुत शक्ति है भाई।
-अच्छा ऐसा क्या?
-हाँ भाई! राम नाम का प्रयोग करते हुए देश की शीर्ष सत्ता तक पहुँचा जा सकता है और राम नाम को गरियाते हुए देश की सत्ता को पलटा भी जा सकता है।  
-क्या वास्तव में ऐसा कुछ है?
-हाँ भाई बिलकुल ऐसा ही है। और तो और अगर किसी भी गलत कार्य को सही सिद्ध करना हो तो राम का नाम बड़ा ही काम आता है।
-वो कैसे भाई?
-एक महोदय हैं। काफी चर्चित व्यक्ति हैं। एक बार उनसे किसी ने कह दिया कि ब्राम्हण होकर माँसाहार करते हुए शर्म नहीं आती।
-अच्छा तो फिर उन्होंने क्या जवाब दिया?
-जवाब क्या देना था उन्होंने झट से राम का सहारा ले लिया।
-वो भला कैसे?
-वो ऐसे कि उन्होंने राम द्वारा सोने के हिरण को मारने की घटना का उल्लेख करते हुए उनका माँसाहार प्रेमी होना सिद्ध कर दिया और उसी घटना का उदारहण देते हुए स्वयं के माँसाहारी होने को सही साबित कर डाला।
-मतलब कि उन महोदय ने अपने उदर को माँसाहार से तुष्ट करने के लिए राम नाम की बैसाखी का सहारा लिया।
-और नहीं तो क्या। वैसे भाई तुझे नहीं लगता कि लोग शाकाहारी या माँसाहारी चाहे जैसा भी भोजन करें लेकिन उसको सही साबित करने के लिए लोगों की धार्मिक भावना को ठेस पहुँचाने का उन्हें कोई अधिकार नहीं होना चाहिए।
-भाई बात तो तेरी ठीक है पर क्या करें अपने देश में बहुसंख्यक अपने धर्म के पक्ष में चूँ भी कर दें तो उनको सांप्रदायिक होने का तमगा देने के लिए कुछ लोग हमेशा तैयार बैठे रहते हैं।  
-पर दूसरा पक्ष देखें तो राम के नाम से इन लोगों को इतना प्रेम है कि वो राम का नाम मुँह में और बगल में छुरी रखकर अपना काम सिद्ध करते हुए औरों का काम-तमाम करने को तत्पर रहते हैं।   
-इसका मतलब कि राम का नाम बस दिखावे के लिए ही बचा है।
-ये मैंने कब कहा?
-तो फिर तेरे कहने का मतलब क्या है?
-भाई माना कि राम के कपूत राम नाम का अपने स्वार्थों के लिए मानमर्दन कर रहे हैं लेकिन ये सब होने के बावजूद भी राम नाम की महत्ता अब भी मौजूद है।
-भाई क्या सचमुच में ऐसा है?
-हाँ भाई बिलकुल ऐसा ही है। राम के पूत अभी भी अपने राम और उनके आदर्शों को अपने-अपने दिलों में बसाए हुए समाज की बेहतरी के लिए निरंतर प्रयासरत हैं।
-भाई अब तो मेरा दिल भी कर रहा है कि मैं भी तेरे साथ बैठकर राम नाम का जाप करूँ।
-ठीक है पर पहले अपने बगल की छुरी तो निकालकर बाहर फैंक दे।
-हा हा हा भाई हम राम के पूतों में से हैं न कि कपूतों में से। इसलिए हमें बगल में छुरी रखने की न तो इच्छा रहती है और न ही कोई जरुरत।  
-
तो फिर दिल से बोल राम-राम।
-
राम-राम, जय श्री राम।


लेखक : सुमित प्रताप सिंह


शुक्रवार, 14 अक्टूबर 2016

कविता : राम जाने

 एक विश्वविद्यालय में 
रावण के वंशजों ने 
राम के वंशज का 
पुतला जलाया
और जोर-जोर से
हो-हल्ला मचाया
देखो-देखो हमने
रावण को जलाया 
ये देख रावण ने
अपना सिर खुजाया
और उनकी मूर्खता पर 
मंद-मंद मुस्कुराया 
फिर अपने वंशजों से
हँसते हुए बोला 
बेटा राम से 
लिया था मैंने पंगा तो 
उन्होंने मुझको 
लगा दिया था ठिकाने 
अब तुमने उसके 
वंशज को छेड़ा है 
अब तुम्हारा क्या होगा
ये तो राम ही जाने।
 लेखक : सुमित प्रताप सिंह 


शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

गीत : अभी असल तो है बाकी

जब 56 इंची सीनों ने
गोलीं बंदूक से दागीं 
दहशतगर्दों के अब्बू भागे
और अम्मी खौफ से काँपीं
ये तो सिर्फ नमूना था
अभी असल तो है बाकी...

धोखेबाजी और कायरता 
जिन दुष्टों के गहने थे
गीदड़ बनकर ढेर हुए 
जो खाल शेर की पहने थे 
हमपे गुर्रानेवालों की रूहें 
हूरों से जा मिलने भागीं 
ये तो सिर्फ नमूना था
अभी असल तो है बाकी...

नापाक पडोसी देता धमकी
एटम बम बरसाने की 
जबकि औकात नहीं उसकी 
खुद के बल रोटी खाने की
अब जान बचाने की चिंता में
डूबा होगा वो पाजी
ये तो सिर्फ नमूना था
अभी असल तो है बाकी...

शांतिवार्ता में खोकर 
हमने तो वक़्त गुजारा है
और उस बैरी ने धोखे से
खंजर ही पीठ में मारा है
ख़त्म करेंगे अब मिलके
उस मुद्दई की बदमाशी
ये तो सिर्फ नमूना था
अभी असल तो है बाकी...


दुनियावालो तुम ही समझा दो
अब भी वो होश में आ जाए
चरण वंदना कर भारत की
माफ़ी की भीख को ले जाए
वरना क्षणों में मिट जाएगा
दुनिया से मुल्क वो पापी
ये तो सिर्फ नमूना था
अभी असल तो है बाकी...
लेखक : सुमित प्रताप सिंह

शुक्रवार, 23 सितंबर 2016

व्यंग्य : प्रतिक्रिया

   मेशा की तरह फिर से पड़ोस से आतंकी हमला हुआ और इस आतंकी हमले में हमारे कई वीर सैनिक शहीद हो गए। इस लोमहर्षक घटना पर देश में सभी ने अपने-अपने तरीके से प्रतिक्रिया दी।
एक वीर रस के कवि ने इस आतंकी हमले पर त्वरित कार्यवाही की। उसने फटाफट एक आशु कविता का सृजन कर डाला। उसने कविता का आरंभ देश के सत्ता पक्ष को गरियाने और कोसने से किया और समापन शत्रु देश पर बम-गोले बरसाने के साथ किया। तभी उसके पड़ोस के किसी शरारती बच्चे ने उसके घर के बाहर पटाखा फोड़ दिया। पटाखे की आवाज सुन उस वीर रस के कवि ने अपने भय से काँपते हुए मजबूत हृदय पर अपने दोनों हाथ रखे और भागकर अपने घर के कोने में जाकर छुप गया।
सत्ता पक्ष ने सदा की भाँति निंदा नामक गोला निकाला और पड़ोसी देश पर दाग दिया। विपक्ष ने इस सुनहरे अवसर को हाथ से न निकल जाने देने के लिए अपनी कमर कसी और धरना-प्रदर्शन कर सत्ता पक्ष के नाक में दम कर दिया।
मीडिया ने भी इस मौके को भुनाने के लिए कुछ खाली टाइप के इंसानों को न्यूज़ रूम में आमंत्रित कर बहस का माहौल बनाया और धीमे-धीमे बहस इतनी गरमागरम हो गई कि जूतम-पैजार तक की नौबत आ गई। न्यूज़ चैनल ने इस बहस को दिन-रात बार-बार दिखाकर जनता के दिमाग का दही बना डाला।
देश के तथाकथित बुद्धिजीवियों ने इस दुर्घटना पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया और उन्होंने इसे आम घटना मानकर अपनी बुद्धि घिसने पर ही ध्यान केंद्रित रखा।
मानवाधिकार प्रेमियों ने भी इसे सामान्य घटना मानकर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, बल्कि वे प्रतीक्षा करने लगे कि कोई एनकाउंटर वगैरह हो और अपराधी अथवा आतंकी नामक कोई भला जीव सुरक्षाकर्मियों द्वारा पकड़ा अथवा मारा जाए और फिर वे सभी मानवाधिकार की दुहाई देते हुए छाती पीटते हुए विधवा विलाप करना आरम्भ करें।
देश की जनता को ये सब देख बड़ा रोष हुआ और उसने इसके लिए अपनी आवाज बुलंद की पर जनता की आवाज तो पाँच सालों में एक बार ही सुनी जाती है और अभी उसमें काफी समय बाकी था। सो जनता ने कुछ देर चिल्ल-पौं की और फिर शांत हो अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गई।
इन सबसे इतर शहीद जवानों की माएँ और पत्नियाँ अपने-अपने लालों को सैनिक बन मातृभूमि की रक्षा करने के लिए पाल-पोसकर तैयार करने लगी। यह देख जननी जन्मभूमि ने उन वीरांगनाओं को कई-कई बार नमन किया। 
लेखक : सुमित प्रताप सिंह 

बुधवार, 21 सितंबर 2016

कविता : हल्के लोग

हल्के लोग
करते हैं सदैव
हल्की ही बातें
और करते हैं 
सबसे ये उम्मीद क़ि
उनकी हल्की बातों को
भारी माना जाए
इसके लिए देते हैं
वे बड़े-बड़े और
भारी-भारी तर्क
जब भी उन्हें
समझाया जाए
उनके हल्के
होने के बारे में
तो उतर आते हैं
वे अपने हल्केपन पर।

लेखक : सुमित प्रताप सिंह

शुक्रवार, 16 सितंबर 2016

व्यंग्य : मच्छर तंत्र


    पिछले दिनों अपना पड़ोसी देश मलेरिया मुक्त घोषित कर दिया गया है जैसे हर नेक पड़ोसी के दिल में अपने पड़ोसी की अच्छी खबर को सुनकर आग लगती है वैसे ही इस खबर को सुनकर हमारा भी कलेजा धधकने लगा है देशवासी सोच रहे हैं कि एक छोटा सा देश इतना बड़ा काम कर गया और हमारा इतना बड़ा देश ये छोटा सा काम क्यों नहीं कर पाया? असल में देश तो अपना भी मलेरिया अथवा अन्य मच्छर जनित रोगों से अब तक मुक्त हो जाता लेकिन हमारे देश के सफेदपोश मच्छरों ने ऐसा होने ही नहीं दिया  वे तो आपस में लड़ने-झगड़ने और एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने में भी ही व्यस्त रहे उनकी व्यस्तता का लाभ पारंपरिक मच्छरों ने उठाया और जनता को अपने जहरीले डंक से इस दुनिया के मोह-माया और दुखों से मुक्ति दिलवाने में योगदान देते रहे जनता तड़पते-तड़पते मरने को विवश होती रही, लेकिन सफेद्फोश मच्छरों को कोई फर्क नहीं पड़ा फर्क पड़ता भी क्यों? सफेदपोश मच्छरों ने आंकड़ा नामक शस्त्र का ऐसा प्रयोग किया कि उनपर लगनेवाले सारे आरोप इस शस्त्र के सामने पल भर में धराशाही हो गए आंकड़ा शस्त्र धारण किए हुए योद्धाओं ने ऐसा चक्रव्यूह रचा कि मच्छर जनित बीमारियों से हुईं मौतों की असली संख्या उस चक्रव्यूह से निकलकर कभी बाहर आ ही न सकी भूले से किसी मौत की सच्चाई सामने आ भी गई तो जवाब में झट से आश्वासन का झुनझुना पकड़ा दिया गया जनता बेचारी उस झुनझुने में उलझकर रह गई और मच्छरों ने निर्भय होकर फिर से अपने आदमी मारू मिशन के लिए कमर कस ली मच्छरों को भी ये मालूम था कि अगर वो लाचार मानवों का खून चूसकर उनके शरीर में डेंगू, मलेरिया, चिकनगुनिया अथवा जीका इत्यादि बीमारियों का जहर भर रहे थे तो उसी प्रकार सफेदपोश मच्छरों ने भी देश का खून चूस-चूसकर उस ख़ून को स्विस बैंकों को सप्लाई कर बदले में गरीबी और बेकारी जैसी बीमारियों का जहर उसके शरीर में भर दिया था हमेशा की तरह इस बार भी कागजों पर अब भी जमकर फोगिंग हो रही है और मच्छर जनित रोगों से लड़ने की विभिन्न योजनाएँ बन रही हैं सफेदपोश मच्छर पारंपरिक मच्छरों के साथ मिलकर मच्छर राग गा रहे हैं और इस मच्छर राग के शोर में मरती जनता की करुण पुकार किसी को सुनाई नहीं दे पा रही है कभी-कभी लगता है कि जैसे हम लोकतंत्र में नहीं बल्कि मच्छर तंत्र में जी रहे हैं

लेखक : सुमित प्रताप सिंह


शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

व्यंग्य : चिट्ठी आई है



    चिट्ठी आई है। किसी के घर में नहीं बल्कि मीडिया में आई है। किसी ऐरे-गैरे ने नहीं बल्कि भारतीय सिनेमा के महानायक ने इसे लिखा है। इसलिए ये चिट्ठी स्वतः ही चिट्ठियों की महानायिका बन गई और मीडिया ने इसे हाथों-हाथ ले लिया। इसमें वास्तविक जीवन में नाना-दादा का डबल रोल कर रहे महानायक की भावनाओं का समंदर भरा हुआ है। एक जमाना था जब नाना और दादा के रूप में बुजुर्गों को नाती-पोते निष्ठा और आदर से सुनते थे पर अब इतना समय नाती-पोतों के पास है ही कहाँ जो वो अपने खूसट नाना या दादा की फालतू बातें सुन सकें। और यहाँ तो खुद नाना/दादा ही महाव्यस्त हैं। हालाँकि महानायक अपने अति व्यस्त समय में से कुछ पल निकालकर अपनी नातिन व पोती को बिना चिट्ठी लिखे भी जीवन के फलसफे समझा सकते थे, लेकिन वो महानायक जो ठहरे। सो कोई भी कार्य करेंगे भी तो महानायकीय अंदाज में। इसलिए उन्होंने चिट्ठी लिखकर समझाने का फैसला किया। पर उन्होंने चिट्ठी लिखकर सीधे नातिन और पोती को क्यों नहीं दी? कहीं उन्हें ये अंदेशा तो नहीं था कि वो दोनों चिट्ठी का हवाई जहाज बनाकर हवा-हवाई न कर दें। सोचिए ऐसा होने से महानायक के दिल को कितनी ठेस पहुँचती? इसीलिए शायद उन्होंने ये रिस्क नहीं उठाया। वैसे भी बड़े और चर्चित व्यक्ति कोई कार्य करें और दुनिया को पता न चले तो धिक्कार है उनके बड़े और चर्चित होने पर। जैसे घर की मुर्गी दाल बराबर होती है वैसे ही ऐसा भी हो सकता था कि ‘घर की चिट्ठी बेकार पर्ची बराबर’ जैसा कोई नया मुहावरा ईजाद हो जाता और चिट्ठी अपनी बेकद्री पर आँसू बहाती रहती। इसलिए शायद चिट्ठी ने ही अपने रचयिता के सम्मान में ये फैसला लिया हो कि नातिन या पोती के पास जाने से पहले दुनिया की सैर कर ली जाए और अपने रचयिता के महानायकीय सम्मान में थोड़ी और वृद्धि कर ली जाए। इधर चिट्ठी घुमक्कड़ बन मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर घूमने-फिरने में मस्त है और उधर बेचारी नातिन और पोती पलकें बिछाए चिट्ठी के आने की राह तक रही हैं। महानायक भी सोच रहे हैं कि चिट्ठी को तब तक व्यस्त रहने दो जब तक कि इसे दुनिया की हर नातिन और पोती न पढ़ ले। अपनी नातिन और पोती का क्या है उनके लिए कोई दूसरी चिट्ठी लिख दी जाएगी। पर क्या वास्तव में नातिन और पोती उस चिट्ठी को पढ़ना चाहेंगीं? फ़िलहाल तो यह एक यक्ष प्रश्न है।   

लेखक : सुमित प्रताप सिंह 


शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

एक पत्र शहीद सिपाही आनंद सिंह के नाम



प्यारे भाई आनंद सिंह 
सादर दिवंगतस्ते!
बहुत ही दुखी और उदास मन से तुम्हें यह पत्र लिख रहा हूँ कलम चलते-चलते अचानक रुक सी जाती है, लेकिन तुम जैसे बहादुर पुलिस के सिपाही को पत्र लिखने में ये कलम भी गौरव का अनुभव करते हुए रुक-रूककर एकदम से चल पड़ती है कुछ रोज पहले तुम अद्भुत शौर्य दिखाते हुए एक गरीब रेहड़ीवाली महिला को लुटने से बचाते हुए उन तीन बदमाशों से जाकर भिड़ गए और बदमाश की गोली खाकर भी तुमने तब तक उनका पीछा किया जब तक कि तुम निढाल होकर धरती पर गिर नहीं पड़े आसपास मौजूद कथित बहादुर जनता ने ये सब देखा, लेकिन उसकी कथित बहादुरी ने उसे उन बदमाशों को रोकने को प्रेरित नहीं किया, फलस्वरूप तुम्हें इस संसार को छोड़कर विदा होना पड़ा वैसे तुम तो इस बात को भली-भांति जानते और समझते थे कि देश का दिल कहे जानेवाले इस महानगर दिल्ली का माहौल कितना ख़राब हो रखा है और यहाँ लोगों के दिलों में दिल जैसी कोई चीज अब सलामत ही नहीं रही है ये तुम कैसे भूल गए कि यह महानगर अराजकता के शिकंजे में किस कदर जकड चुका है क्या तुम बीते दिनों की उन घटनाओं को भूल गए थे कि कैसे सरेआम जनता के वेश में छिपे अपराधियों द्वारा पुलिसकर्मियों को समय-समय पर सरेआम पीटा गया, जरा-जरा सी बात पर पुलिस थानों और चौकियों को घेरकर नारेबाजी और पत्थरबाजी करते हुए उन्हें जलाने तक कोशिश की गई और जाने कितने पुलिसकर्मियों को बिना गलती और बिना सुनवाई के जेल में ठूँस दिया गया कम से कम तुम्हें इतनी सावधानी तो बरतनी ही चाहिए थी कि अपने साथ सुरक्षा के लिए सरकारी पिस्तौल ही रखते पर फिर एक बार को ख्याल आता है कि सरकारी पिस्तौल को रखने का फायदा भी क्या होता? अगर तुम्हारी सरकारी पिस्तौल से कोई बदमाश मारा भी जाता तो जाने कितने संगठन तुम्हारे खिलाफ मोर्चा लेने को खड़े हो जाते तथा मानवाधिकार की दुहाई देते हुए तुम्हारे पुतले फूँक रहे होते और तुम्हें बिना समय गँवाए जेल में डाल दिया जाता समाचार चैनलों पर कथित बुद्धिजीवी तुम्हारे हाथों मारे गए अपराधी को संत घोषित करते हुए तुम्हें रावण या कंस का अवतार सिद्ध कर रहे होते और कलियुग के राजा हरीश चंद्र मारे गए अपराधी को शौर्य पदक देने की सिफारिश करते हुए उसके परिवार को गोद लेने की तैयारी में अब तक लग चुके होते पर चूँकि ऐसा कुछ हुआ नहीं और किसी लुच्चे-बदमाश की बजाय एक पुलिस का जवान मारा गया इसलिए अख़बारों ने भी इस खबर को पहले पन्ने पर स्थान देने में भी शर्म महसूस की मानवाधिकार प्रेमी शांत हैं और किसी दानव के मारे जाने पर सक्रिय होने के लिए वचनबद्ध हैं तथा कथित बुद्धिजीवी अपनी बुद्धि को धार लगते हुए उचित अवसर की ताक में हैं कम से कम इस बात की संतुष्टि है कि तुम्हें शहीद का दर्जा है दिया गया है और तुम्हारे परिवार को नौकरी और एक करोड़ रुपए देने की घोषणा कर दी गई हैहालाँकि इन सबसे शायद ही तुम्हारी भरपाई हो सके अंत में हम सभी पुलिस के भाई-बंधु तुम्हारे परिवार संग तुम्हारी आत्मा की शांति के लिए इस उम्मीद के साथ प्रार्थना करते हैं कि हृदयविहीन इस महानगर के हालात सुधरें और फिर कोई आनंद कुमार यूँ बेमौत न मारा जाए

तुम्हें अंतिम विदाई देते हुए वीरतामय नमस्कार

तुम्हें अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि देता हुआ

तुम्हारा एक विभागीय भाई     

लेखक : सुमित प्रताप सिंह 

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