सोमवार, 28 दिसंबर 2015

छोटे शहर के बड़े दाज्यू


- भाई नफे!
- हाँ बोल भाई जिले!
- हल्द्वानी की सैर कैसी रही?
- भाई बहुत बढ़िया रही। छोटे शहर के बड़े दाज्यूओं के संग दो दिन बहुत शानदार बीते।
- भाई ये दाज्यू का मतलब क्या है?
- कुमाऊनी भाषा में दाज्यू का अर्थ होता है भाई।
- तो नफे दाज्यू अब खोलके बता कि वहाँ दो दिन क्या-क्या किया?
- जिले दाज्यू 24 दिसंबर की रात हम दिल्ली से हल्द्वानी पहुँचे। वहाँ हमारा स्वागत देश के चर्चित युवा कवि एवं व्यंग्यकार दाज्यू गौरव त्रिपाठी ने किया। दाज्यू गौरव हल्द्वानी में अमर उजाला में वरिष्ठ उपसंपादक हैं। हल्द्वानी में अमर उजाला के संपादक दाज्यू अनूप वाजपेयी ने दाज्यू गौरव त्रिपाठी को शहर में पर्वतीय उत्थान मंच द्वारा आयोजित होनेवाले मेले में कवि सम्मेलन को संयोजित करने की कमान सौंपी थी। जिस होटल में दाज्यू गौरव हमें ठहराने के लिए ले गए वहाँ आगरा से गीतकार दाज्यू दीपक सरीन भी पहले से पहुँचे हुए थे। आधी रात के बाद वहाँ अगले दिन होनेवाले कवि सम्मेलन का पूर्वाभ्यास ऐसा चला कि सुबह होटल के संचालक ने उलझन में पूछ डाला कि रात को इतनी तेज आवाजें क्यों आ रही थीं। तो दाज्यू गौरव ने उसे समझा दिया कि दिल्ली और आगरा से दो कवि आए हैं और रात को कविता सम्मेलन से पहले एक कवि गोष्ठी चल रही थी।
- हा हा हा दाज्यू मतलब कि तीनों कवियों ने आधी रात को हल्द्वानी के उस होटल को अपनी कविताओं से कँपा डाला।
- हाँ बिलकुल दाज्यू जोश में तीनों कवि ऐसे बहके कि उन कुछ घंटों के दौरान होटल के उस कमरे में बस कविता ही कविता छाई रही।
- अच्छा दाज्यू अब अगले दिन का हाल बता कि कवि सम्मेलन कैसा रहा?
- कवि सम्मेलन बहुत ही शानदार रहा। हल्द्वानी बेशक छोटा शहर है लेकिन यहाँ के लोग दिल से बड़े हैं।
- अच्छा तूने तभी मेरे पूछने पर इनके लिए कहा था छोटे शहर के बड़े दाज्यू।
- हाँ बिलकुल! शहर के सभी कवियों व कवियित्रियों ने इस कवि सम्मेलन को ऊर्जावान बना दिया। दाज्यू दीपक सरीन ने जहाँ अपने हसीन गीतों से शमा बाँधा, वहीं हल्द्वानी की युवा कवियित्री गौरी मिश्रा 'काजल' के मधुर स्वर में सुनाए गीतों ने श्रोताओं के दिलों में हलचल पैदा कर दी। वरिष्ठ और सबसे सेहतमंद हास्य कवि दाज्यू राजुकुमार भंडारी ने खूब हँसाया और इस कवि सम्मेलन के संयोजक दाज्यू गौरव त्रिपाठी ने अपनी रचनाओं से हम सबके दिलों को गुदगुदाया। विवेक वशिष्ठ ‘नीलकंठ’, वेद प्रकाश ‘अंकुर’, मंजू पांडेय ‘उदिता’ व वीणा जोशी ‘हर्षिता’ इत्यादि कवियों और कवियित्रियों ने भी अपने-अपने अंदाज में श्रोतागणों का मनोरंजन किया।
- और दाज्यू सुमित प्रताप सिंह का कविता पाठ कैसा रहा?
- अगर उनका कविता पाठ बढ़िया न रहता तो क्या उनकी कलम हमें बोलने देती?
- हा हा हा दाज्यू बात तो तूने पते की कही है।
- दाज्यू सुमित प्रताप सिंह और दाज्यू दीपक सरीन के प्रस्तुतीकरण का अंजाम ये रहा कि हल्द्वानी की जनता ने उन्हें जल्द ही फिर से किसी कवि सम्मेलन में बुलाने की इच्छा जताई है।
- अरे वाह! इसका मतलब है कि हल्द्वानी की जनता कविताप्रेमी है।
- हाँ दाज्यू हल्द्वानीवाले कविताप्रेमी होने के साथ-साथ बहुत अच्छे श्रोता भी हैं। कवि सम्मेलन के मुख्य अतिथि हल्द्वानी के मेयर दाज्यू जोगेन्द्र सिंह रौतेला, पी.एफ. सहायक आयुक्त दाज्यू एम.सी. पांडेय, युवा व्यापार मंडल जिलाध्यक्ष दाज्यू जसविंदर भसीन इत्यादि अतिथिगण श्रोताओं के साथ कवि सम्मेलन में आखिरी समय तक बने रहे। कवि सम्मेलन के सूत्रधार व अमर उजाला हल्द्वानी के संपादक दाज्यू अनूप वाजपेयी ने प्रसन्नतापूर्वक कवि सम्मेलन के सफलतापूर्ण समापन की घोषणा की। इसकी व्यवस्था देख रहे इवेंट मैनेजर दाज्यू नागेश दुबे तो इसकी सफलता के बाद दुबे से चौबे हो गए।
- दाज्यू हल्द्वानी से कोई परिचित आकर मिला या नहीं?
- हल्द्वानी से व्यंग्य यात्रा की सहयात्री मीना अरोड़ा मिलने आयीं थीं और हम सबके लिए  प्रेम और स्नेह से भरा उपहार भी लायीं थीं।
- अरे वाह! अच्छा दाज्यू ये बता कि कवि सम्मेलन के तुम सबने मेला घूमा कि नहीं?
- हाँ दाज्यू मेला घूमने का सुख भला कैसे छोड़ते। जहाँ हम कवियों ने मेले में विवेक वशिष्ठ 'नीलकंठ' द्वारा आयोजित चटपटी भेलपूरी पार्टी और दाज्यू गौरव त्रिपाठी द्वारा दी गयी स्वादिष्ट मुंगोड़ों की पार्टी का आनंद लिया वहीं मुख्य अतिथि दाज्यू जोगेन्द्र सिंह रौतेला ने ऊँट की सवारी का लुफ्त उठाया।
- चटपटी भेलपुरी और मुंगोड़ों का सुनके तो मुँह में पानी आ गया। और ऊँट की सवारी। दाज्यू ये रेगिस्तान का जहाज पहाड़ों में कहाँ से पहुँच गया?
- दाज्यू ऊँट की सवारी ही तो इस मेले का मुख्य आकर्षण थी।
- तो तुम सबने ऊँट की सवारी की या नहीं?
- नहीं दाज्यू फुरसत ही नहीं मिली। हम मेले से निकलकर अगले दिन की योजना बनाकर होटल के कमरा नंबर 102 में रात को बिस्तर में गोल हो गए।
- अच्छा दाज्यू अगले दिन कहाँ घूमे-फिरे?
- दाज्यू दीपक सरीन का बावरा मन हल्द्वानी में नहीं लगा और वो सुबह जल्दी ही आगरा को रफू-चक्कर हो गए। वो बता रहे थे कि उनके घर से कुछ दूर स्थित पागलखाने से बहती हुई हवा उनके घर के बगल से होकर गुजरती है और उनका बावरा मन उस हवा से बिछोह ज्यादा दिन नहीं झेल सकता है सो उन्हें तो जल्द से जल्द आगरा पहुँचना ही था।
- दाज्यू वाकई में अजब-गजब हैं दाज्यू दीपक सरीन का बावरा मन। खैर छोड़ दाज्यू ये बता कि तुम सब कहाँ-कहाँ घूमने गए?
- दाज्यू पहले तो हमारा मन नैनीताल घूमने का था पर दाज्यू गौरव त्रिपाठी ने बताया कि नैनीताल में बहुत भीड़ चल रही है सो हम भीमताल घूमने निकल पड़े।
- भीमताल में कहाँ-कहाँ घूमे और क्या-क्या किया?
- सबसे पहले हमने स्वादिष्ट मोमो का स्वाद लिया फिर भीमताल के आजू-बाजू फोटोग्राफी की। इसके बाद हमने भीमताल में बोटिंग का आनंद लिया। फिर दाज्यू सुमित प्रताप सिंह का मन बादशाह बनने का हुआ और वो अचानक बादशाह के वस्त्र धारण कर शाही अंदाज में आ गए। इसके कुछ पलों के बाद उन्होंने बगावत कर दी और बागी का वेश धर उन्होंने दाज्यू गौरव त्रिपाठी पर बंदूक तान दी।
- बंदूक तान दी! पर दाज्यू क्यों?
- दाज्यू सुमित प्रताप सिंह ने दाज्यू गौरव त्रिपाठी के सीने पर बंदूक की नली लगा पूछा कि उत्तराखंड में जल्दी ही कवि सम्मेलन करवाओगे या नहीं?
- हा हा हा! तो फिर दाज्यू गौरव त्रिपाठी ने क्या कहा?
- उन्होंने हाथ जोड़कर घोषणा की कि हल्द्वानी और उत्तराखंड में कविता और व्यंग्य को और अधिक समृद्ध करने के लिए समय-समय पर कार्यक्रम होते रहेंगे।
- जे बात! तो भीमताल भ्रमण के साथ ही तुम्हारे दो दिवसीय यात्रा कार्यक्रम का समापन हो गया।
- नहीं भीमताल के बाद हम फिर से हल्द्वानी के मेले में गए।
- मेला दोबारा घूमने का कोई खास मकसद था?
- हाँ बिलकुल ख़ास मकसद ही था। दाज्यू सुमित प्रताप सिंह की ऊँट सवारी की तीव्र इच्छा को पूर्ण करना था और उन्हें मेले में कुछ खरीदारी भी करनी थी। अंततः दाज्यू गौरव त्रिपाठी द्वारा दिए गए स्वादिष्ट रात्रि भोज के साथ दूसरे दिन की समाप्ति हुयी। अगले दिन दाज्यू गौरव त्रिपाठी के पहले व्यंग्य संग्रह 'पैकेज का पपलू' और दूसरी पुस्तक 'दोराहे पर जिंदगी', जो कि कहानी व व्यंग्यों का कॉम्बो पैक है, को प्राप्त करने के साथ ही हल्द्वानी यात्रा का समापन संपन्न हुआ। दाज्यू गौरव त्रिपाठी हमें हल्द्वानी रेलवे स्टेशन तक इस भय से अपनी कार से छोड़ कर गए कि कहीं हम हल्द्वानी में ही न बस जाएँ।
- हा हा हा! दाज्यू हो सकता है हल्द्वानी से तुम्हें लगाव हो गया हो और यह लगाव ही उनके भय का कारण हो। वैसे तू हल्द्वानी से मेरे लिए कुछ लाया है या नहीं?
- दाज्यू तेरे लिए भी कुछ लाना था?
- देख दाज्यू अगर तू मेरे लिए कुछ नहीं लाया होगा तो आज से तेरी-मेरी कट्टी।
- अरे दाज्यू तेरे लिए हल्द्वानी की स्पेशल बाल मिठाई लाया हूँ। अब रूठना छोड़के मान जा और ले ये मिठाई खा।
- एक शर्त पर मानूँगा।
- कौन सी शर्त दाज्यू?
- अगली बार अपने साथ मुझे भी हल्द्वानी ले चलेगा। 
- हाँ हाँ क्यों नहीं दाज्यू। चल इसी बात पर बाल मिठाई से अपना मुँह मीठा कर।
- दाज्यू तो फिर हम एक-दूसरे को बाल मिठाई खिलाकर एक-साथ मुँह मीठा करते हैं।
- ठीक है दाज्यू।
 लेखक : सुमित प्रताप सिंह

सोमवार, 14 दिसंबर 2015

व्यंग्य : नेक सलाह


     रा सोचिए इस महँगाई के दौर में यदि हमें कुछ मुफ़्त में मिल जाता है तो यह अचंभित होनेेवाली बात ही होगी। पर यह सुखद अनुभूति आप और हम अक्सर न चाहते हुए भी प्राप्त करते रहते हैं और हमें ऐसी सुखद अनुभूति प्रदान करने का कार्य करते हैं हमारे अगल-बगल में वास करनेवाले कुछ सलाहवीर, जो बिन माँगे अपनी सलाह हमारी झोली में डालकर अपनी राह को निकल लेते हैं। अब ये और बात है कि ऐसे सलाहवीर शायद ही अपनी सलाह को अपने ऊपर भी कभी आजमाते हों।
ऐसे ही एक सलाहवीर हमारे दूर के एक चाचा हैं। स्वास्थ्य के ऊपर जब भाषण देने को आएँ तो एक घंटे से पहले उनका मुख विराम नहीं लेता, लेकिन उन्होंने अपनी सलाह  अपने ऊपर आजमाने का कभी भी प्रयत्न नहीं किया। फल ये मिला कि एक दिन अचानक उनको हृदयाघात हुआ और उन्हें अपने हृदय की सर्जरी करवानी पड़ी। बावजूद इसके चाचा अपनी सलाहबाजी से बाज नहीं आए।
हमारे पड़ोस में एक ताई रहती हैं। वो हमारी कॉलोनी की जानी-मानी सलाहवीर हैं। कॉलोनी की हर लड़की के चरित्र पर शक करते हुए वो लड़कियों की माँओं को अपनी लड़की के चाल-चलन पर ध्यान रखने की सलाह देती रहती थीं। बहरहाल हुआ ये कि कॉलोनी की लड़कियों की चिंता में डूबी रहनेवाली ताई की इकलौती लड़की ही ताई के घरेलू नौकर के साथ घर से भाग गयी। अब इन दिनों ताई दूसरों की सलाह माँगती हुयीं  मिल जाती हैं। 
हमारे दफ्तर में भी एक सलाहवीर मौजूद हैं। उनकी सलाह का क्षेत्र शिक्षा है। वो अक्सर अपने सहकर्मियों को उनके बच्चों के भविष्य के विषय में शिक्षा संबंधी सलाह थोक के भाव में बाँटते हुए मिल जाते थे। उनसे भूल ये हुई कि उन्होंने अपने दोनों बेटों को सलाह देने का कभी भी समय नहीं निकाला। परिणाम ये हुआ कि उनके दोनों बच्चे अपनी-अपनी  कक्षाओं में सभी विषयों में चारों खाने चित हो गए। इस दुर्घटना से उन सलाहवीर के ज्ञान चक्षु खुल गए और उन्हें अनुभव हुआ कि उनकी सलाह की बाहर की अपेक्षा घर में अधिक आवश्यकता है।
ऐसे बहुत से सलाहवीर हमें अक्सर रोज ही मिलते रहते हैं, जो बिन माँगे अपनी सलाह हम पर थोपना अपना परम कर्तव्य समझते हैं। आप कभी मुसीबत में पड़कर तो देखिए, आपके समक्ष सलाहवीर और उनकी अजब-गजब सलाह हाज़िरी बजाती हुयीं मिल जाएँगीं। उनके द्वारा भेंट की गयीं सलाह और कुछ करें या न करें पर आपकी मुसीबत में वृद्धि करने का सुकार्य अवश्य करेंगी। अब ये और बात है कि इन सलाहवीरों का व्यक्तिगत जीवन उलझनों से भरा ही मिल जाएगा। इसलिए कभी-कभी जी करता है कि इन सलाहवीरों को समझाते हुए कहूँ कि हे सलाहवीरो एक नेक सलाह मानिए कि आप अपनी सलाह का शुभारम्भ अपने घर से किया कीजिए क्योंकि यदि घर ठीक रहेगा तो समाज स्वस्थ रहेगा और स्वस्थ समाज ही देश की प्रगति में सहायक बनता है।


लेखक : सुमित प्रताप सिंह
इटावा, नई दिल्ली, भारत 
चित्र : गूगल से साभार 

शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

लघुकथा : क़ुरबानी


    रफ़ीक़ असलम के कान में फुसफुसाया - "भाई जान सामने देखो सलमा आ रही है। क्यों न आज इस गली के सूनेपन का फायदा उठा लिया जाये?"
असलम रफ़ीक के गाल पर जोरदार झापड़ मारते हुए गुस्से में बोला - "हरामखोर आज के पाक दिन ऐसी बात सोचना भी हराम है।"
रफ़ीक़ अपना गाल सहलाते हुए बोला- "माफ़ करना भाई जान गलती हो गयी।"
असलम ने रफ़ीक़ के कंधे पर हाथ धरकर मुस्कुराते हुए कहा - "आज बकरीद पर अल्लाह को बकरे की क़ुरबानी दे आते हैं फिर किसी और रोज हम दोनों इस हसीना की क़ुरबानी ले लेंगे।" 
"हा हा हा भाई जान आईडिया अच्छा है।" रफ़ीक़ खिलखिलाया। और दोनों मस्जिद की ओर बढ़ चले।

लेखक : सुमित प्रताप सिंह

रविवार, 16 अगस्त 2015

अठन्नी का दुःख


     विवार की सुबह माँ के आदेश से आधुनिक लायक औलादों से भिन्न मैं नालायक औलाद आलस को विदाई देकर घर की साफ़-सफाई करने में मग्न हो गया। इसी दौरान अचानक ही अठन्नी फर्श पर पड़ी मिल गई। उसे देखते ही अपना बचपन याद आ गया। इन दिनों तो हम जलेबी की तरह सीधे हैं, लेकिन बचपन में हम वास्तव में सीधे थे। उस समय कलियुगी विशेषतायें हमसे संबंध रखना भी अपना अपमान समझती थीं। सीधे-सादे शब्दों में कहें तो बचपन सतयुग जैसा ही तो था। न मन में छल-कपट था और न ही किसी से कोई बैर भाव। उन प्यारे दिनों में अठन्नी हमारे लिए विशेष महत्व रखती थी और उन दिनों हमारा यही लक्ष्य होता था, कि हम कोई शाबासी का काम करें और बदले में पिता जी से ईनाम में अठन्नी मिले तथा हम कुछ पलों के सम्राट बन सकें। अठन्नी वाले सम्राट।
अपने नन्हे-मुन्ने दोस्तों के बीच हम कुछ पल के सम्राट होते थे और हमारे दोस्त होते थे हमारी प्रजा। अठन्नी जब कभी हमारे किसी और दोस्त पर अपनी कृपा बरसाती थी तो हम भी झट से उसे सम्राट घोषित कर उसकी प्रजा का हिस्सा बन जाते थे। आज हमें सौ रुपये भी कितने कम लगते हैं, लेकिन उन दिनों अठन्नी भी कितनी अधिक लगती थी। बिस्कुट, आम की पापड़ी, गुड़ की पट्टी, टॉफियाँ और हमारी जाने कितनी इच्छाएँ और माँगे बारी-बारी से अठन्नी की कृपा से ही पूरी हो पाती थीं। उन दिनों अर्श पर रहने वाली अठन्नी यूँ फर्श पर पड़ी मिली तो उसकी ऐसी हालत को देखकर आँखें भर आईं और किसी समय उसके भीतर वास करनेवाली आठ आने की शक्ति याद आ गई। इसी शक्ति के बल पर उन दिनों अठन्नी अपनी महत्ता पर इठलाती थी और हम उसकी उस महत्ता के प्रशंसक थे। 
आज तो अठन्नी की हालत ऐसी लग रही थी, जैसे बार-बार चुनाव हारने के बाद किसी नेता की हो जाती है। उसका तेजहीन व्यक्तित्व मन में उथल-पुथल मचा गया। अठन्नी भी गीली आँखें लिए हमारी ओर देखे जा रही थी। जाने किसकी नज़र लग गई हमारे बचपन की नायिका अठन्नी को। या फिर कोई साज़िश रची गई है अठन्नी के खिलाफ। आखिर कौन जिम्मेवार है अठन्नी की इस हालत के लिए? भ्रष्ट नेता या नौकरशाही की ईमानदारी जिम्मेवार है या स्विस बैंक में मजा मारती भारतीयों के खून-पसीने की कमाई या फिर दिन-प्रतिदिन हनुमानजी की पूँछ की भांति निरंतर बढ़ती जाती महँगाई? इन्हीं विचारों में खोये हुए थे कि सामने भांजा मुस्कुराते हुए खड़ा हो गया। हमने उसे प्रेमवश चुपचाप उसके हाथ में अठन्नी पकड़ा दी तो उसने एक पल के लिए अपनी नन्हीं हथेली को धीमे से खोलकर उसमें सकुचाती हुई अठन्नी को ध्यान से देखा और फिर अचानक ही गुस्से में उसे फर्श पर दे मारा। हमने उदास हो अठन्नी की ओर देखा तो वह तेजी से भागती हुई गई और कोने में इतनी देर से यह सब देख रही अपनी सहेली चवन्नी के गले से लगकर फूट-फूट कर रोने लगी।

लेखक : सुमित प्रताप सिंह 
चित्र गूगल से साभार 

शनिवार, 25 जुलाई 2015

व्यंग्य : विकास गया तेल लेने

        
        देश की जनता इन दिनों हल्ला मचाये हुए है कि विकास कहाँ गयाएक साल हो गया पर विकास क्यों नहीं आयाअब पगली जनता को कौन समझाए कि विकास तो यहाँ है ही नहीं। अरे वो तो तेल लेने गया है। हर साल ही तो जाता है। 67 साल हो गए जाते-जाते फिर 68वें साल में भला क्यों रुकता। इसलिए इस साल भी चला गया। हालाँकि हर पाँचवें साल ये सपना दिखाया गया कि विकास कहीं नहीं जाएगा बल्कि यहीं रहेगा, लेकिन सपना केवल सपना ही बनकर रह गया और साल दर साल विकास जाता रहा तेल लेने। वैसे तो विकास हर साल ही तेल लेने जाता हैपर जाने क्यों इस साल ही इतना हो-हल्ला मचा हुआ है कि विकास को तेल लेने जाने से क्यों नहीं रोका गया। पर जब इतने सालों से विकास को जाने से कोई रोक नहीं पाया तो भला इस बार वो कैसे रुक पाता। वैसे एक बात तो है कि ये ससुरा विकास कुछ ज्यादा ही घुमक्कड़ हो गया है। अपने देश में कभी रुकता ही नहीं। इधर-उधर घूमता रहता है और हम देशवासी इसकी वापसी की राह पलकें बिछाए देखते रहते हैं। ऐसी बात नहीं है कि विकास अपने देश में नहीं रहता। वह बेशक बाहर घूमता फिरे लेकिन सरकारी फाइलों में वह सदैव विराजमान रहता है। इसलिए जब भी जनता पूछती है कि विकास कहाँ है उसके होने का सबूत दिखाओ तो सरकारी बाबू अपनी विशेष ईमानदारी से विकसित की गयी भारी-भरकम तोंद पर फाइल रखकर उसे खोलकर लल्लू जनता को फाइल में मुस्कुराते हुए विकास को दिखाकर झट से फाइल को बंद कर लेता है और बेचारी जनता इस सोच-विचार में खो जाती है कि वो तो नाहक ही परेशान थी कि देश में विकास नहीं रहता। अब उस भोली जनता को कौन समझाए कि जैसे श्रीराम माता सीता के शरीर को एक गुफा में छोड़कर उनकी छाया को अपने साथ ले गए थे कुछ वैसा ही कारनामा विकास ने भी किया है। अब ये और बात है विकास अपने असली रूप में तो तेल लेने चला गया और सरकारी फाइलों में अपना छाया वाला रूप छोड़ गया। जैसे लंकापति रावण सीता माता की छाया का अपहरण करके प्रसन्न रहता था वैसे भारत की जनता भी सरकारी फाइल में विकास के छाया रूप को देखकर मस्त रहती है। अब सोचनेवाली बात ये है कि विकास तेल लेने तो गया है पर वो कौन सा तेल लाएगाअब इसमें भी सोचने की बात है। हर बार ही तो लाता है भांति-भांति प्रकार के तेलक्योंकि अलग-अलग लोगों को भिन्न-भिन्न प्रकार के तेल की आवश्यकता होती है। सो विकास हर बार की तरह इस बार भी कई प्रकार के तेल लाएगा। विकास चमेली का तेल लाएगा उन लोगों के लिए जो हमेशा इसकी खुशबू में खोकर आनंदित रहते हैं और उन्हें दीन-दुनिया की न तो कोई खबर रहती है और न ही कोई मतलब। वह हर साल की तरह इस साल भी उन माननीय महोदयों के सिर में चमेली का तेल लगाएगा और वे सब चमेली के तेल के प्रेमी चमेली बाई बनकर विकास के आजू-बाजू ही नाचेंगे। विकास के देश में न रहने को दिन-रात कोसनेवाले महानुभावों के लिए वह सरसों का तेल लाएगा। पहले तो उन महानुभावों की हड्डियों को चटकाकर उनकी मरम्मत करते हुए उन्हें भाव विहीन बनाया जाएगा फिर प्रेमपूर्वक सरसों के तेल से उनके शरीर की मालिश की जायेगी। सरसों के तेल से इनके शरीर की मालिश होने से उनकी सारी थकान जाती रहेगी और उनकी विकास के न रहने की शिकायत भी ख़त्म हो जायेगी। हो सकता है कि शिकायत दूर होने का कारण फिर से हड्डियाँ चटकाए जाने का डर ही हो। विकास धतूरे का तेल उन लोगों के लिए लाएगा जो विकास का नाम ले-लेकर सरकार को आये दिन आँखें दिखाते रहते हैं। धतूरे के बीजों के तेल को दिव्य तेल बताकर दिया जाएगा तथा इसमें तेजाब मिलाकर इसे और दिव्य बनाया जाएगा। इस दिव्य तेल को सरकार को आँखें दिखाने की धृष्टता करनेवालों की आँखों में डालकर न रहेगा बाँसन बजेगी बाँसुरी’ की कहावत को चरितार्थ किया जाएगा। विकास द्वारा बादाम का तेल उन तथाकथित बुद्धिजीवियों को भेंट स्वरुप दिया जाएगाजिनकी तीव्र बुद्धि सदा यह सिद्द करने को तत्पर रहती है कि विकास तो देश में थाहै और सदैव रहेगा। बादाम का तेल उन तथाकथित बुद्धिजीवियों की बुद्धि में और अधिक वृद्धि करेगा। विकास द्वारा मिट्टी का तेल उन लोगों के लिए लाया जाएगा जो लोकतंत्र के प्रहरी होने का दावा करते हैं और चौथे खंबे की शक्ति प्रदर्शित करते हुए सत्ता के गलत कार्यों के विरुद्ध लिखते हुए लोकतंत्र की भावना को जीवित रखने को प्रयासरत रहते हैं। ऐसे लोगों को मिट्टी का तेल डालकर सरेआम जला दिया जाएगा। उनके साथ लोकतंत्र भी तड़प-तड़पकर मर रहा होगालेकिन डर के मारे देश की बहादुर जनता कुछ भी नहीं कहेगीबल्कि एक स्वर में बोलेगी कि अपना देश तो विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और विकास है इसका मस्तक। जबकि असल में लोकतंत्र तो मृत्युशैया पर पड़ा हुआ अपनी अंतिम साँसें गिन रहा होगा। और विकास वो तो चला जाएगा फिर से तेल लेने। 
लेखक: सुमित प्रताप सिंह

ई-1/4, डिफेन्स कॉलोनी पुलिस फ्लैट्स,
नई दिल्ली- 110049
कार्टूनिस्ट : श्री राम जनम सिंह भदौरिया 

शुक्रवार, 24 जुलाई 2015

व्यंग्य : अगले जनम मोहे ठुल्ला ही कीजो


    हे प्रभु मैं तुम्हारी भक्ति में अक्सर खोया रहता हूँ और अपने आपको धिक्कारते हुए अपने आपसे अक्सर ये सवाल पूछता हूँ कि मैं आखिर क्यों नहीं आपसे अपनी भक्ति की कीमत वसूलता? कलियुग में पैदा होकर भी कलियुगी इच्छाएँ मुझसे एक कोस दूर क्यों रहना चाहती हैं? पर आज मेरे मन में कलियुगी शक्ति प्रभाव जमाकर मुझे आपसे कुछ न कुछ माँगने को विवश कर रही है। अब आप विचार करेंगे कि ऐसा अचानक मेरे साथ आखिर क्या हुआ जो कुछ न माँगने की इच्छा रखनेवाला मेरा मन क्यों याचक बनने को उतारू हो गया? प्रभु अब आपसे क्या छिपाना। हमारे प्रदेश में एक माननीय महोदय आम आदमी के उद्धारक के रूप में प्रकट हुए थे। हालाँकि वो दूसरों को दानव और अपने आपको महामानव घोषित करते फिरते हैं किन्तु मुझे व मेरे प्रदेश वासियों को उनके मानव होने में भी शंका होती है और उनकी उछल-कूद देखकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे मानव अपनी उत्पत्ति के प्रारंभिक चरण में वापस पहुँच गया है। उन्हीं माननीय महोदय ने ऑफिशियल तौर पर मेरे जैसे तमाम पुलिसकर्मियों को ठुल्ला घोषित किया है। अब आप पूछेंगे कि ये ठुल्ला कौन सा शब्द है? प्रभु वैसे तो आप सर्वज्ञाता हैं फिर भी आपको ठुल्ला शब्द के विषय में विस्तार से बताना इसलिए आवश्यक है क्यों इसी बहाने कलियुग के स्वघोषित प्रभुओं का भी कुछ ज्ञानवर्धन हो  जाएगा।
प्रभु गाँव, गली या किसी घर के बाहर गाँव के कुछ नाकारा व निठल्ले अक्सर अपना समय बर्बाद करते हुए बैठे मिल जाते हैं। गाँव के लोगों पर आते-जाते फब्तियाँ कसना या फिर गाँव की लड़कियों से छेड़छाड़ करना तहत इसके बाद पिटकर अपनी हरकत का खामियाजा भुगतना इनके शगल होते हैं। गाँववाले ऐसे लोगों को ठलुआ की संज्ञा से सुशोभित करते हैं। इसी ठलुआ शब्द का जब शहरीकरण किया गया तो ठुल्ला शब्द की उत्पत्ति हुई, जिसे उन माननीय महोदय ने वैश्विक शब्द बनाने की ठान ली और हम पुलिसकर्मियों को इस शब्द से सुशोभित कर दिया।
हालाँकि सुना है कि ये माननीय महोदय पढ़े-लिखे हैं और हमारे प्रदेश की सत्ता हथियाने से पहले बड़े सरकारी अधिकारी भी रह चुके हैं, किन्तु उनकी सम्मानजनक भाषा से हमारा पापी मन इस बात से शंकित हो उठता है कि अपनी पार्टी के कुछ सम्मानीय सदस्यों की भाँति कहीं उनकी डिग्री भी तो...? बहरहाल उन्होंने हम पुलिसजनों को ठुल्ला कहा होगा तो कुछ सोच कर ही कहा होगा। क्या पता उन्होंने हमें नौकरी पर देर से जाते और जल्दी घर आते देखा हो या फिर होली, दीवाली, ईद, क्रिसमस या फिर किसी अन्य भारतीय त्यौहार को अपने घर पर मस्ती मारते देखा हो अथवा उन्होंने कोई दिवा स्वप्न देखा हो कि कम ड्यूटी करते हुए पुलिसकर्मी भारी-भरकम वेतन का मजा लूट रहे हैं और अपनी नौकरी पर समय बर्बाद करने की बजाय अपने बीबी-बच्चों संग ऐश करने में मदमस्त हैं। उन्हें कहाँ फुरसत है कि वो ये जानने की कोशिश करें कि कई पुलिसवाले ऐसे भी जिन्हें अपने बच्चों से बात किये हुए कई महीने गुज़र जाते हैं। कारण जब वो देर रात घर जाते हैं तो बच्चे सोते हुए मिलते हैं और सुबह उन्हें सोता हुआ ही छोड़कर ड्यूटी के लिए निकलना पड़ता है। उन माननीय महोदय को शायद ये भी न ज्ञात हो कि किन-किन विषम परिस्थितियों में एक पुलिसवाले को नौकरी करनी पड़ती है।
बहरहाल उन माननीय महोदय ने ठुल्ला नामक शब्दभेदी बाण चलाकर विश्व के सामने पुलिसकर्मियों को खड़ा कर दिया है। अब शायद लोग पुलिसवालों की परेशानियों और दिक्कतों को समझने का प्रयास करें तथा सरकार को भी अहसास हो कि देश की सड़कों, मोहल्लों और गलियों में दिन-रात भटकनेवाला पुलिसवाला भी मानव की श्रेणी रखा जा सकता है और उसे सुविधाओं के नाम पर कुछ सहूलतें दी जा सकती हैं। फिर शायद पुलिसजनों का जीवन बेहतर जीवन की श्रेणी में आ सके।
इसलिए हे प्रभु चाहे मेरे अन्य साथी अगले जन्म में ठुल्ला बनने से परहेज करें, किन्तु मैं तो आपसे बार-बार, हर बार यही कामना करूँगा कि अगले जनम मोहे ठुल्ला ही कीजो। क्या करूँ मुझे इस खाकी वर्दी से इतना लगाव हो गया है बार-बार खाकी अवतार लेने का ही मन करने लगा है। फिर चाहे मुझे अगले जनम में भी ड्यूटी के दौरान धकियाया, मुक्कियाया या लतियाया जाए या फिर जुतियाया अथवा लठियाया जाए पर मेरे मन में इस बात का संतोष रहेगा, कि मैंने वास्तव में इस देश व देश की जनता के लिए कुछ किया न कि ऊल-जलूल हरकतों और अपशब्दों का पिटारा लिए हुए माननीय महोदयों या फिर कहें कि असली ठुल्लों की भाँति बयानबाजी व धरने-प्रदर्शनों में खोये रहकर जनता को सिर्फ और ठगने का कार्य किया। तो प्रभु आप मेरी प्रार्थना स्वीकारेंगे न। क्या कहा कौन सी प्रार्थना? अब प्रभु दिल्लगी छोड़ भी दीजिये। आपसे रोज ही तो करता हूँ अरे वही इकलौती प्रार्थना "अगले जनम मोहे ठुल्ला ही कीजो"।

लेखक : सुमित प्रताप सिंह 

शुक्रवार, 17 जुलाई 2015

व्यंग्य : कागा अब बोले नहीं मुंडेर पे


   हुत दिन गुज़र गए पर अपनी मुंडेर पर कोई कागा अर्थात कौआ काँव-काँव करते नहीं दिखा। एक वो भी दिन थे जब अक्सर कौए काँव-काँव करते मुंडेर पर दिख जाते थे और हम बालक चीखते हुए उनसे कहते थे ‘उड़ जा कौआ चाचा आते हों’ या फिर ‘उड़ जा कौआ मामा आते हों’। सच कहें बेशक हम इतने बड़े हो गए लेकिन बचपन दिल में अभी भी जीवित है और ये बचपन अक्सर जिद करता है कि हमारी मुंडेर पर कोई कौआ आकर बैठे और जोर से काँव-काँव करे और फिर हम चीखकर बोलें ‘उड़ जा कौआ कोई अपना आता हो’। पर दिल की बात दिल में ही रह जाती है और कोई कौआ मुंडेर की ओर मुंह भी नहीं मारता और ये बचपन दिल के भीतर ही बैठा हुआ तड़पता रहता है। आजकल कौए भी ईद के चाँद बन चुके हैं वो साल में दो बार दिख भी जाता है लेकिन ये कौए तो साल में एक ही बार दीखते हैं वो भी श्राद्धों में। आखिर कौओं ने घर पर आना और आकर मुंडेर पर बैठकर काँव-काँव करने की परम्परा का त्याग क्यों कर दिया? कहीं उन्हें भी कलियुगी संस्कृति ने अपनी छत्रछाया में जगह तो नहीं दे दी जो वो दूत बनना छोड़कर यूँ अचानक लापता हो गए। फिर मन सोचता है कि कौए बेचारे भी क्या करें आज के युग में बेटा बाप का नहीं रहा, भाई को भाई फूटी आँख नहीं सुहाता तो रिश्तेदार अपने दूसरे रिश्तेदारों को सीधी आँख भला कैसे देख सकते हैं? जैसे-जैसे समय बीत रहा है, लोगों की आशाएँ विशाल और ह्रदय सिकुड़कर छोटे होते जा रहे हैं और उन सिकुड़ते हृदयों में रिश्तेदार तो कभी रह ही नहीं सकते। पहले रिश्तेदार एक दूसरे के सुख-दुःख के साथी होते थे। मुसीबत के समय अपने रिश्तेदार के कंधे से कन्धा मिलाकर खड़े हो जाना सच्चे रिश्तेदार की निशानी होती थी। पर समय के कोल्हू ने रिश्तेदारी को ऐसा पेरा कि न तो सच्ची रिश्तेदारी सलामत बची और न ही सच्चे रिश्तेदार। छोटे-छोटे स्वार्थ की खातिर रिश्तेदार का राम नाम सत्य तक कर देने को तत्पर रिश्तेदारों को रिश्तेदारी का र भी ठीक ज्ञात नहीं रहा हो तो कौए बेचारे क्या करें? वो कैसे पता लगायें कि घर आनेवाला वाकई में रिश्तेदार है क्योंकि उसके हृदय में तो रिश्तेदारी नामक तत्व पहले ही तार-तार हो चुका मिलता है। शायद इसीलिए कोई कौआ भूले-भटके घर की मुंडेर पर बैठ भी जाए तो किसी रिश्तेदार के आने की सूचना देने को काँव-काँव नहीं करता। असल में उसे रिश्तेदार के दिल में वो पुराना प्रेम व स्नेह दिखाई ही नहीं देता इसलिए उसके भीतर काँव-काँव कर ख़ुशी मनाने की भावना भी दम तोड़ देती है। इसलिए कौओं ने अब काँव-काँव करना छोड़ दिया है। शहरों में बड़े-बड़े मकानों और संकुचित दिलों वाले भले लोग भी भला कहाँ कामना करते हैं कि कोई कौआ काँव-काँव करे और कोई रिश्तेदार आ टपके तथा उनकी व्यस्तता में खलल डाल दे। इसलिए उन्होंने अपने घर की मुंडेर पर काँच या लोहे के कंटीले तार लगाकर कौओं को वहाँ बैठने से अवरुद्ध कर दिया। अब कौओं को भी मुंडेर पर काँव-काँव कर मेहमान या रिश्तेदार के आने का संदेशा देने का चाव नहीं रहा है। अब वे अपना समय या तो किसी लाश का माँस नोंचने में व्यतीत करते हैं या फिर मनुष्य का वेश धरकर किसी सदन में जाकर काँव-काँव करने लगते हैं।


लेखक : सुमित प्रताप सिंह  

कार्टून गूगल बाबा से साभार 

गुरुवार, 9 जुलाई 2015

लघु कथा : हिसाब





    रिंग रोड के मेडिकल फ्लाई ओवर से पहले एक आदमी को लिफ्ट के लिए विवशता में चिल्लाते देख भूपेन्द्र की बाइक में अचानक ब्रेक लग गए हालाँकि उसकी बाइक में ब्रेक लगने का मतलब था कि आज ऑफिस के लिए लेट होना और लेट लतीफी के लिए ऑफिस में सीनियर की हिदायत भरी डांट सुनना फिर भी अपनी आदत से बाज न आते हुए भूपेन्द्र बीच सड़क पर बाइक रोकते हुए बुदबुदाया, “लगता है बेचारे की बस छूट गयी है वैसे भी बस ज्यादा दूर नहीं गई है बस कुछ पलों में ही अपनी बाइक के पीछे होगी
वह आदमी बाइक पर बैठते ही गिडगिडाया, “भाई वो टाटा सूमो वाला मेरा बैग लेकर भाग रहा है प्लीज उसका पीछा करो
भूपेन्द्र तेजी से बाइक भगाते हुए फिर बुदबुदाया, “ये साला टाटा सूमो वाला तो आई.एन.ए. की ओर जा रहा है और अपन को जाना है मोतीबाग यानि कि आज डांट तो पक्की. पर किसी मदद करने के आगे डांट खाना छोटी-मोटी बात है। पर इस बन्दे का बैग टाटा सूमो में क्या कर रहा है?” भूपेन्द्र ने उस आदमी से पूछ ही लिया, “भाई साहब आपका बैग टाटा सूमो में कैसे रह गया?”
“क्या बताऊँ भाई ऑफिस को लेट हो रहा था। जब कोई बस नहीं मिली तो इस टाटा सूमो की सवारी बनना पड़ा। मेडिकल पर पैसे खुल्ले करवाकर ड्राइवर को दे रहा था। जब पीछे मुड़कर देखा तो वहाँ गाडी ही नहीं थी।“ उस आदमी ने एक सांस में ही पूरी घटना बता डाली।
भूपेन्द्र ने उसे सांत्वना दी, “कोई दिक्कत नहीं। देखें वो साला कहाँ तक भागता है।“
कुछ देर में ही टाटा सूमो के बगल में बाइक खडी थी और वह आदमी अपना बैग उसमें से निकालकर उसके ड्राइवर की माँ-बहन एक कर रहा था टाटा सूमो के ड्राइवर के माफ़ी मांगकर वहां से चले जाने के बाद वह आदमी भूपेन्द्र की ओर मुड़ा और बड़ा अहसानमंद होते हुए बोला, “भाई आपका बहुत-बहुत धन्यवाद आपने मेरा हजारों का नुकसान होने से बचा लिया
भाई साहब धन्यवाद की कोई जरुरत नहीं है मैंने तो अपना हिसाब चुकाया था” भूपेन्द्र ने मुस्कुराते हुए कहा
उस आदमी ने हैरान हो पूछा, “कौन सा हिसाब?”
“एक बार मैं भी बड़ी मुसीबत में फँसा हुआ था, तब एक भले इन्सान ने मुझे उस मुसीबत से निकाला था मैंने भी उसे जब धन्यवाद करना चाहा तो उसने कहा था किसी मुसीबत के मारे की मदद कर देना हिसाब चुक जाएगा अब मैंने तो अपना हिसाब चुका दिया अब आप अपना हिसाब चुकाएँ या न चुकाएँ ये आपकी मर्जी” इतना कहकर भूपेन्द्र ने अपनी बाइक अपने ऑफिस की ओर दौड़ा दी
तभी उसे पीछे से उस आदमी की तेज आवाज सुनाई दी “भाई हिसाब जरुर चुकाया जायेगा
   
लेखक : सुमित प्रताप सिंह   
चित्र गूगल से साभार

सोमवार, 29 जून 2015

लघु कथा : तमाशबीन



   पुलिस जिप्सी ने जैसे ही सड़क पर यू टर्न लिया, गलत दिशा से आ रही एक मोटरसाइकिल उससे टकरा गयी और उसपर सवार आदमी उछलकर कुछ दूर जा गिरा। पुलिस जिप्सी का ड्राइवर सूबे और उसका साथी हवलदार फत्ते झट से जिप्सी से नीचे उतरे और उस आदमी को सड़क से उठाकर उसे सड़क के एक किनारे बिठाकर उसे फर्स्ट ऐड देकर उसके सामान्य होने की प्रतीक्षा करने लगे। तभी सूबे ने देखा कि एक व्यक्ति अपने मोबाइल से उनकी रिकॉर्डिंग कर रहा है। यह देख सूबे को बीते दिनों मोबाइल से फ़िल्म बनाने और उसे तोड़-मरोड़कर अपने हिसाब से पुलिसवालों के खिलाफ इस्तेमाल करने की घटनाएँ ताज़ा हो गयीं। अपनी नौकरी खतरे में देख सूबे उस व्यक्ति से मोबाइल छीनने को उसपर झपटा, लेकिन वह व्यक्ति पलक झपकते ही वहाँ से उड़न छू हो गया। तभी वहाँ से गुज़र रहे एक पहलवान ने सूबे को टोककर उससे पूछा, "उस आदमी के पीछे क्यों भाग रहे थे? कौन था वो और उसने तुम्हारा क्या बिगाड़ दिया जो उसे पकड़ने की इतनी जरुरत पड़ गयी?"

तभी मोटरसाइकिल सवार कराहते हुए उठा और पहलवान से बोला, "भाई साहब वह तमाशबीन था और ये तमाशबीन किसी की मदद करने के बजाय अपने मोबाइल से फ़िल्म बनाकर और उसे सब जगह भेजकर किसी न किसी बेचारे का दुनियाभर में तमाशा बनाते हैं। गलती मेरी थी जो मैं गलत साइड से जल्दबाजी में मोटरसाइकिल चलाकर जा रहा था। शुक्र है कि मेरे साथ कोई अनहोनी नहीं हुयी और भला हो इन पुलिसवाले भाइयों का जो इन्होंने समय पर सहायता देकर मुझे बचा लिया।"

तभी पहलवान ने अपनी कनखियों से अपने अगल-बगल में देखा तो पाया कि वहाँ मौजूद बाकी तमाशबीन भी वहाँ से खिसक चुके थे।


बुधवार, 24 जून 2015

फिल्म समीक्षा : ए बी सी डी 2

    फिल्म की शुरुआत होती है सुरेश (वरुण धवन) और उसकी डांस टीम का एक डांस प्रतियोगिता के फाइनल में पहुँचने और सुरेश और उसकी टीम से किसी न किसी तरह जुड़े लोगों द्वारा इस कामयाबी में अपनी भागीदारी दिखलाते  हुए चैनल पर अपना वक्तव्य देते हुए। सुरेश और उसकी टीम द्वारा प्रतियोगिता में शानदार परफॉरमेंस देने के बावजूद हार जाते हैं। कारण होता है उनके द्वारा विश्व के एक चर्चित डांस ग्रुप के डांस स्टेप्स की नक़ल करना। इसके बाद सुरेश और उसकी टीम को जगह-जगह अपमान का सामना करना पड़ता है। धीमे-धीमे सुरेश का डांस ग्रुप टूट जाता है और उसके साथ कुछ गिने-चुने साथी ही बचते हैं। एक दिन सुरेश योजना बनाता है कि वो सभी विश्व स्तर पर होनेवाली  हिप हॉप डांस प्रतियोगिता में जाकर अपनी प्रतिभा दिखाकर अपने ऊपर नकलची होने के कलंक को धोयेंगे। इस काम में वो विशु (प्रभुदेवा) की मदद लेते हैं और बंगलौर में होनेवाली डांस प्रतियोगिता जीतकर हिप हॉप डांस प्रतियोगिता के लिए भारतीय प्रतिनिधि बनने का गौरव प्राप्त करते हैं। सुरेश के बॉस द्वारा दगा देने के बाद विशु के दिमाग के कारण वो हिप हॉप प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए भारत से लॉस वेगास की रवाना होते हैं। सुरेश और उसकी टीम विशु सर की आभारी होती है कि उनकी कृपा से वे सभी इस प्रतियोगिता में भाग लेने लॉस वेगास आ पाए, लेकिन हकीकत कुछ और होती है। असल में विशु ने लॉस वेगास तक पहुँचने के लिए सुरेश और उसकी टीम को सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल किया था। यही इस कहानी का सस्पेंस है पर सस्पेंस भी ऐसा कि  'खोदा पहाड़ निकला चूहा' कहावत याद आती है ।
फिल्म की कहानी साधारण सी है। वरुण धवन और श्रद्धा कपूर का अभिनय ठीक-ठाक रहा है। जहाँ इस फिल्म में वरुण धवन डांस से अधिक अपनी मसल्स दिखाने को अधिक उत्सुक रहे वहीँ  श्रद्धा कपूर ने भी अंग प्रदर्शन करके वरुण को टक्कर देने का प्रयास किया है। प्रभुदेवा का डांस करने में कोई सानी नहीं लेकिन डायलॉग डिलीवरी में वो कमज़ोर लगे। फिर भी फिल्म के कुछ दृश्यों में उन्होंने हंसाया और भावुक किया यह भी बड़ी बात है। कहानी की रफ़्तार में कहीं-कहीं बहुत धीमापन आ जाता है। फिल्म में डांसर गजब का डांस करते दीखते हैं। डांस के हैरतगंज कारनामों से भरपूर दृश्य देखने योग्य हैं। ये दृश्य कुछ-कुछ वैसे ही हैं जैसे कि किसी मारधाड़ से भरपूर फिल्म में हीरो उड़-उड़कर अनेक बदमाशों को मार-मारकर ढेर कर डालता है। डांस प्रेमियों को यह फिल्म बेशक भाएगी, लेकिन डांस प्रेमियों को नेक सलाह है कि फिल्म के नाम 'एनीबॉडी कैन डांस' के अनुरूप वो इसमें उड़ने और उछलकूद करनेवाले दृश्यों की नक़ल न करें वर्ना उनका हाल श्रृद्धा कपूर से भी शायद बुरा हो। फिल्म में तो श्रृद्धा कपूर को रिप्लेस करने के लिए एक और हेरोइन मौजूद थी पर हर किसी की किस्मत में रिप्लेस की सुविधा नहीं होती। वैसे रेमो डिसूजा @ रमेश गोपी नायर द्वारा निर्देशित यह फिल्म डांस के शौकीनों को निराश नहीं करेगी।


शनिवार, 20 जून 2015

व्यंग्य : भोगम् शरणम् गच्छामि


   तने दिनों से हल्ला मचा रखा है जाने योग न हुआ कि क्या हो गया और ये समाचार चैनल इन्हें तो कोई न कोई मुद्दा चाहिए अपने चैनल की टी.आर.पी. बढाने के लिए हमारी भी किस्मत ऐसी जो ऐसा प्रधानमंत्री मिल गया जो योग से प्रेम तो करता ही है साथ ही साथ उसे सारे जग में फैलाने के लिए भी कमर कस डालता है कम से कम इसे हम बेचारों का ख्याल तो रखना चाहिए था, जिनकी इसने पिछले साल ही लुटिया डुबो डाली और हमें निठल्ला और बेकार बना डाला हम बेचारों को साल भर हो गया मक्खियाँ मारते-मारते एक तो हम बेचारे पहले से ही दुखी इतने हैं ऊपर से ये योग नामक शिगूफा छोड़ डाला अब हम बेचारों को अपने-अपने घरों में मक्खियाँ मारना छोड़कर किसी न किसी समाचार चैनल के दफ्तर में जाकर मच्छर मारने पड़ेंगे और अपने ऊल-जलूल तर्कों की पोटली खोलकर अपनी जबान हिलानी पड़ेगी हमारा ये प्रधानमंत्री भी न जाने कहाँ-कहाँ से नई-नई योजनायें ढूँढकर लाता है कभी स्वच्छता अभियान चलाते हुए झाड़ू लगाने लगता है तो कभी आतंकवादियों को दामाद की श्रेणी से तड़ीपार करके उनका राम नाम सत्य करवा देता है सोचिए तो सही एक वो भी दिन थे जब हर घर के बाहर कूड़ा आराम फरमाता हुआ मिल जाता था और अपने इलाके की सुन्दरता में चार चाँद लगा देता था अब इस साफ़-सफाई के चक्कर में ये ससुरा कूड़ा भी जाने कहाँ लापता गया इतने सालों से कूड़े की सुन्दरता और उसकी वो प्यारी सी बदबू की आदत पड़ गयी थी पर अच्छे दिन हमेशा थोड़े ही रहते हैं चाहे बेशक ये प्रधानमंत्री अच्छे दिनों का ढोल पीटता फिरे कहीं ऐसा हुआ कि सभी लोग स्वच्छता प्रेमी हो गए तो जाने हम जैसे प्राणी जी पायेंगे भी कि नहीं और वो दिन भी कौन भूला है जब हमारे सैनिक के सिर की फ़ुटबाल बनाकर पड़ोसी देश के सैनिक अपनी फिटनेस बनाने का काम करते थे और अब ये दिन देखने पड़ रहे हैं जब हमारा प्रधानमंत्री उनकी फ़ुटबाल बनाने की तैयारी कर रहा है अब हमारा प्रधानमंत्री योग के माध्यम से हमारे मन का कूड़ा-करकट साफ़ करके हमें स्वस्थ करने की साजिश रच रहा है अब ये कौन होता है ये तय करनेवाला कि किसे योग करना चाहिए और किसे नहीं  भला क्या रखा है इस योग-वोग मेंदेशवासी अगर योग करने लगे तो उनका तन-मन स्वास्थ्य की ओर अग्रसर नहीं हो जाएगा। और जब देशवासियों के तन-मन स्वस्थ हो जायेंगे तो वे अपना अच्छा-बुरा जानने लग जायेंगे फिर राजनीतिक रूप से बेरोजगार हुए हम बेचारों का क्या होगा क्या हमारा प्रधानमंत्री चाहता है कि हम बेचारे मरते दम तक मक्खियाँ ही मारते रहें अच्छा ये योग का कार्यक्रम अपने देश तक ही सीमित रहता तब तो ठीक भी था पर हमारा प्रधानमंत्री तो इसे पूरे विश्व में फैलाने की योजना बना रहा हैमतलब कि पूरे विश्व के लोगों के तन और मन का कूड़ा-कबाड़ा योग के माध्यम समाप्त करने का षड्यंत्र रचा गया है यदि ये षड्यंत्र सफल हो गया और योग ने उनके मन-मस्तिष्क पर कुप्रभाव डालकर उसे स्वच्छ और स्वस्थ कर दिया तो विश्व में आपसी भाईचारा और सद्भाव नामक वायरस तेजी से फ़ैल सकते हैं फिर राजनीति की रोटियाँ सेकने हेतु चूल्हे कैसे चल पायेंगे और उन चूल्हों के सहारे अपना पापी पेट भरनेवाले हम बेचारों का क्या होगा? इसलिए इस योग-वोग जैसी फालतू चीज को फैलने से रोकना बहुत ही आवश्यक है जाने क्या-क्या आसन होते हैं इस योग में अब सूर्य नमस्कार को ही लें अपने स्वार्थ के लिए किसी के तलवे चाटने से बेहतर तो नहीं हो सकता ये सूर्य नमस्कार इसलिए खासकर इस सूर्य नमस्कार का विरोध करना तो बनता ही है योग का सीधा-सीधा अर्थ है जोड़ना और हम भारतीयों के शब्दकोष से ये शब्द तो आजादी से पहले ही अंग्रेजों की कृपा से गायब हो गया था हमने इसे अपने शब्दकोष में शामिल करने का प्रयास देश के आजाद होने के बाद किया तो था पर काले अंग्रेजों के होते हुए यह संभव नहीं हो पाया, सो हमें योग शब्द से ही आपत्ति हो गयी इसलिए हम 'योगं शरणम् गच्छामि' मन्त्र की बजाय 'भोगम् शरणम् गच्छामि' मन्त्र' को ज्यादा पसंद करते हैं अब देखिये न ये जीवन चार दिनों का है और इसे चार दिन का मानकर ही भोगना चाहिए न कि योग के चंगुल में गिरफ्त होकर इसे आठ दिन का बना डाला जाएखाओ-पियो, ऐश से जियो और संभव हो तो उधार लेकर भी घी पियो क्या रखा है ज्यादा जीने में? वैसे भी कहावत है 'वीर भोग्यं वसुंधरा' अब हम वीर बेशक न हों पर वसुंधरा को भोगने की इच्छा तो रखते ही हैं और येन केन प्रकारेण अपनी भोगवादी संस्कृति को बचाए रखना चाहते हैं पर ये योगप्रेमी प्रधानमंत्री योग को अपना ब्रम्हास्त्र बनाकर हमारी भोगवादी संस्कृति को जलाकर स्वाहा करना चाहता है परमात्मा ने हमें ये कोमल सा शरीर दिया है और हम इसे योग की दुष्कर क्रियाओं के हवाले करके कष्ट प्रदान करें न बाबा न ये पाप कम से कम हमसे तो होने से रहा हम तो भोगी थे, भोगी हैं और सदैव भोगी ही रहेंगे वैसे आपको भी हमारी ये नेक सलाह है कि योग के चंगुल में न फँसें और 'योगं शरणम् गच्छामि' की बजाय 'भोगम् शरणम् गच्छामि' मन्त्र का जाप करते हुए हमारी तरह मस्त रहें     
लेखक: सुमित प्रताप सिंह
ई-1/4, डिफेन्स कॉलोनी पुलिस फ्लैट्स,
नई दिल्ली- 110049
फोन नंबर - 09818255872
कार्टून गूगल से साभार 

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