रात को पढ़ने के लिए बैठा ही था, कि ऊपर वाले मकान से कुछ पीसने की आवाज़ आने लगी. परिवार में सभी चौकन्ने हो गये. चौकन्ना होना ही था, क्योंकि ऊपर वाले मकान को खाली हुये 6 महीने से अधिक समय हो चुका था और वहाँ से आवाज़ आना ही नामुमकिन था. हम सभी आपस में इस विषय पर चर्चा करने लगे, तो छोटी बहन ने बताया कि उसने कई बार रात के समयहमारी छत से पड़ोस की छत पर किसी के कूदने की आवाज़ सुनी थी. हम सभी अनुमान लगाने लगे, कि कहीं ऊपर वाले मकान में कोई आतंकवादी गतिविधि तो नहीं चल रही है, क्योंकि दिल्ली शहर आतंकवादियों की आतंक फ़ैलाने के लिए मनपसंद जगह है. मेरे पिता ने अनुमान लगाया, कि ऊपर शायद कारतूस बनाने का काम चल रहा है. माँ ने उनकी बात का समर्थन किया. सुबह हुई और मैं सीढ़ी लगाकर ऊपर चढ़ गया तथा खिड़की से ताका-झांकी कर ऊपर वाले मकान की छानबीन करने लगा. अंदर झाँकने पर देखा, कि दो पानी की बोतलें आधी भरी रखी हुईं थीं तथा पास में ही ग्लूकोज का डिब्बा रखा था, जिसके ऊपर एक गिलास रखा था. फर्श पर कुछ बिखरा पड़ा हुआ था. दूसरे कमरे में झाँका तो कमरा खाली दिखा व उसमें धूल जमी हुई थी. रात को आने वाली आवाज को मन का भ्रम मानकर मैं नीचे उतर आया. रात बीती. सुबह उठकर आया तो माँ ने बताया कि सुबह करीब 5 बजे फिर से कुछ पीसने की आवाज़ आई थी. घर के सभी सदस्य सावधान हो गये. पिता जी सवेरे ही थाने गये तथा मालखाने में पता लगाया, कि ऊपर वाला मकान किसी के नाम आबंटित हुआ है या नहीं व मालखाना मोहर्रर को पूरी घटना के विषय में भी अवगत कराया. मालखाना मोहर्रर ने पूरी जांच करने का वादा किया. छोटी बहन ने मुझे बताया, कि उसने ऊपर वाले मकान के पड़ोसवाले मकान में कुछ लड़के देखे हैं, जो कुछ-कुछ कश्मीरी आतंकवादियों जैसे लग रहे थे. कहीं वे ही तो ऊपर वाले मकान में कुछ गडबड करने न आते हों. मुझे उसकी बात में कुछ दम लगा. तभी पीछे सीढियों पर कुछ आवाज आने लगी. मैं पिछला दरवाज़ा खोलकर ऊपर गया, तो मालखाना मोहर्रर ऊपरवाले मकान के पड़ोस में रहने वाले दक्षिण भारतीय से पूछताछ कर रहा था. मैंने वहाँ पहुँचकर उसे पूरी घटना के बारे में बताया. उसके पास कई चाबियाँ थीं. हमने बारी-बारी सभी चाबियों को आजमाकर मकान का ताला खोलने का प्रयास किया. सौभाग्य से एक चाबी लग गई और ताला खुल गया. कमरे में घुसे तो देखा, कि अंदर चारों ओर मकड़ी के जाले जमे हुए थे. फर्श पर धूल जमी पड़ी थी. जिस जगह से कुछ पीसने की आवाज़ आती थी, वहाँ कोई निशान न था. ग्लूकोज का डिब्बा खाली था तथा उसके ऊपर गिलास सा दिखने वाला एक खाली डिब्बा रखा था. आधी भरी पानी की बोतल काफी पुरानी लग रही थी. शौचालय एवं स्नानघर भी जाले व धूल से पटे पड़े थे. बरामदे का दरवाज़ा खोलते ही मालखाना मोहरर्र डर गया, क्योंकि वहाँ नंगे पैरों के निशान थे. असल में वे निशान मेरे ही पैरों के थे, जो सुबह मकान की छानबीन के दौरान बरामदे में बन गये थे. इस बात को मैंने उससे छुपा लिया. आखिर कुछ समय जाँच-पड़ताल करने के पश्चात मालखाना मोहरर्र यह कहते हुए चला गया, कि वह उस इलाके के बीट ऑफिसर को मकान पर निगाह रखने के लिए कह देगा. मैंने सारी बात घर में आकर बताई. अब घर वाले कुछ और सशंकित हो उठे. अब सभी ऊपरवाले मकान में किसी प्रेतात्मा का वास होने का अनुमान लगाने लगे. माँ ने बताया, कि ऊपरवाले की लड़की ने एक बार प्रेम प्रसंगवश अपने हाथ की नसें काट ली थीं. कहीं उस लड़की की मौत न हो गई हो और वह भूतनी बनकर मकान में भटकती हो. रात हुई और फिर से कुछ पीसने की आवाज़ आने लगी. मैंने इस रहस्य से पर्दा उठाने का संकल्प कर लिया तथा रात होते ही दूसरी मंजिल पर पहुँच गया. मालखाना मोहर्रर से मैंने उस घर की चाबी लेकर अपने पास रख ली थी. दरवाज़ा खोलकर जैसे ही मैं भीतर घुसा, तो एक औरत, जिसके बाल बिखरे हुए थे, बदहवास हालत में थी कुछ पीसने में लगी हुई थी. मेरे भीतर घुसते ही वह कर्कश ध्वनि में बोली, “आओ ठाकुर तुम्हारा ही इंतज़ार था.” मैंने सहमते हुए उससे पूछा, “तुम कौन हो और यहाँ क्या कर रही हो?” यह सुनकर उस औरत ने अपने बिखरे बालों को अपने चेहरे से हटाया, तो मैं चौंक गया क्योंकि वह उस मकान में रहने वाले किरायदार की पत्नी थी. मैंने डरते हुए पूछा, “चाची आप सब तो यह मकान छोडकर छ: महीने पहले ही चले गये थे, तो फिर इतनी रात को यहाँ अँधेरे में अकेली क्या कर रही हो”? मेरी बात सुन उसने बहुत भद्दा ठहाका लगाया और बोली, ”मैं यहाँ से गई ही कब थी? मेरा पति दूसरी शादी करना चाहता था, लेकिन मैं उसे तलाक देने को राजी न हुई. सो मकान खाली करने से पहले उसने मेरा गला दबाकर मुझे मार दिया और मेरी लाश को एक बक्से में बंद करके ज़मीन में दफना दिया. तबसे मेरी आत्मा इसी मकान में भटक रही है. अब यहाँ पर अकेले रहते-रहते मैं भी बहुत ऊब गई थी. अच्छा हुआ जो तुम आ गये. अब मैं तुम्हारा टेंटुआ दबाकर तुम्हें भी अपने टोली में शामिल कर लूंगी. फिर हम दोनों की खूब जमेगी”. इतना कहकर उसने मेरा गला अपने दोनों हाथों से दबा लिया. मेरा दम घुटने लगा. मैं खुद को बचाने की कोशिश करने लगा. अचानक मेरी आँख खुल गई. मेरा पूरा शरीर पसीने से भीग चुका था. मैं अपनी खैर मनाने लगा, कि यह केवल एक सपना ही था. अगली रात आई. हम सब आवाज़ आने के बारे में ही चर्चा कर रहे थे. रात के करीब नौ बज चुके थे. तभी फिर से वही आवाज़ आने लगी. सभी सिहर उठे. मैंने वह आवाज़ ध्यान से सुनी. वह आवाज़ कुछ पीसने की न होकर कुछ इधर-उधर लुढ़काने की थी. मैंने झट से दूसरी मंजिल पर पहुँचकर उसके दरवाज़े से कान लगाए, लेकिन वहाँ कोई आवाज़ नहीं आ रही थी. एक मंजिल और ऊपर चढ़कर गया, तो देखा कि तीसरी मंजिल वाले की बिटिया पत्थर के खिलोने से खेल रही थी. जिसकी आवाज़ बहुत तेज आ रही थी. मैं उसे देखकर मुस्कुराने लगा तथा सोचने लगा, कि जिस आवाज़ ने हमारा इतने दिनों तक जीना हराम कर रखा था आख़िरकार उस आवाज़ का रहस्य पता चल ही गया.
सुमित प्रताप सिंह
इटावा, नई दिल्ली, भारत
7 टिप्पणियां:
वाह, सुमित भाई ! अद्भुत कहानी है | मजा आ गया |
धन्यवाद आशीष जी।
Nice sir
Nice sir
धन्यवाद सोनू ठाकुर जी...
Nice story sumit bhai
Nice story sumit bhai
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