हमें नहीं मतलब
अपने आसपास कुछ भी
घटित होने से
किसी के जीने-मरने
हँसने या रोने से
न ही हमें
ये जानने की है इच्छा कि
प्रकृति की सुंदरता का
वध करके कैसे रोज
उग रहे हैं कंक्रीट के
नए-नए जंगल
और भला कैसे
प्राकृतिक संसाधनों का
गला घोंट कर
उगाई जा रही है
विनाश की लहलहाती फसल
हमें नहीं पड़ता फर्क कि
प्रगति की आग का धुआँ
प्रदूषण का भेष धर
फूँके जा रहा है
मानव सभ्यता के कलेजे को
हम वास्तव में नहीं हैं
बिलकुल भी चिंतित
ऐसी-वैसी फालतू की
किसी भी बात पर
क्योंकि हमें भली-भांति
भान है इस तथ्य का कि
स्मार्ट फोन की संगत में
दरअसल हमारी तरह
अब हर आदमी
स्मार्ट हो गया है।
लेखक - सुमित प्रताप सिंह