बचपन, बोले तो जीवन का मस्तमौला, बेफिक्र और शरारत से भरा समय। सो उसी बचपन का आनंद लेते हुए मैं छठी कक्षा में पढ़ रहा था। बचपन ने शरारत करने को कहा तो कागज लेकर बैठ गया चिट्ठी लिखने को। पहली रचना के तौर पर मैंने चिट्ठी में छठी के कोर्स की एक कविता की पैरोडी लिखी, जिसमें अपने गाँव के ठाकुरों के टोले, जिसे ठकुराइस कहा जाता है, को लपेट लिया था। चिट्ठी को संबोधित किया था श्री चिरपोटन सिंह को।
हमारे गाँव के एक चाचा को हम सब चिरपोटन चाचा कहकर चिढ़ाते थे। गाँव में हर किसी के तीन नाम रखे जाते हैं। पहला नाम जो घर में बड़े-बूढ़े प्यार से रखते हैं, दूसरा नाम जो बच्चे को स्कूल में दाखिला करवाने के बाद मास्साब द्वारा रजिस्टर में दर्ज किया जाता है और तीसरा नाम गाँववालों द्वारा खिल्ली उड़ाने के लिए ससम्मान रखा जाता है। सो सबकी तरह चिरपोटन चाचा का नाम भी ससम्मान उन्हें भेंट किया गया, जिसे सुनते ही उनका खून खौलने लगता था और बाकी लोगों की बत्तीसी दीखने लगती थी।
बहरहाल डाकिया गाँव में हर जाति के टोले में मेरे द्वारा भेजे गई चिट्ठी को लेकर घूम आया लेकिन चिरपोटन सिंह न मिले। आखिरकार वो ठकुराइस में आया और डरते-डरते पूछा, "भैया वैसे तो ठाकुरों के ऐसे नाम हमने कभी सुने नहीं हैं। पर आपको अगर पता हो कि ये चिरपोटन सिंह कौन हैं तो उन्हें ये चिट्ठी दे दूँ।" ठकुराइस के बाहर बैठे सब लोग हँसने लगे और उन्होंने पोस्टमैन से चिट्ठी लेकर उसे चिरपोटन सिंह के हवाले करने को कहकर उसे रवाना कर दिया। बाद में सबने मेरे द्वारा लिखी गयी कविता की पैरोडी को पढ़कर खूब आनंद लिया और चिरपोटन चाचा के मिलने पर चिट्ठी को उनके हवाले कर दिया।
कुछ दिन चिरपोटन चाचा का फोन आया। फोन पर मेरा हालचाल पूछने के बाद वो बोले, "लला तुमने कविता तो बढ़िया लिखी हती। अब जब अगली बार गाँव अइयो तो तुम्हें जाको अच्छो-खासो इनाम दओ जइये।" मुझे मालूम था कि क्या ईनाम मिलेगा सो उस साल मैंने गाँव जाना ही कैंसिल कर दिया।
लेखक -सुमित प्रताप सिंह, नई दिल्ली
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