शनिवार, 28 मार्च 2015

पाप (लघुकथा)


रमेश की माँ रमेश से बोली, "बेटा कई दिनों से सफाईवाली काम पर नहीं आ रही है। घर के आँगन में घास बहुत उग आई है। तू कोई लड़का लेकर आ जो कुछ खर्चा लेकर ये घास उखाड़ दे।"
"ठीक है माँ मैं कोई लड़का ढूँढता हूँ।" रमेश ने कहा।
तभी पड़ोस की झुग्गियों में रहनेवाली छोटी-छोटी बच्चियाँ रोज की तरह वहाँ खेलने आ पहुँची।
रमेश ने उन बच्चियों को देखा और अपनी माँ को सुझाव देते हुए बोला, "माँ कोई भी लड़का घास उखाड़ने आएगा तो पूरे दिन की दिहाड़ी के रूप में ढाई-तीन सौ रुपए ऐंठ ले जायेगा। इन लड़कियों से ही आँगन की घास क्यों नहीं उखड़वा लेतीं। इन्हें दो-चार रुपए दे दोगी तो उन्हीं में ये खुश हो जाएंगी। वैसे भी पूरा दिन यहाँ खेलती ही तो रहती हैं। खेलते-खेलते घास भी उखाड़ लेंगी।"
"हाँ बेटा कह तो तू ठीक रहा है। पर अभी नवरात्रि चल रही हैं और इस समय कन्याओं से काम करवाने से सिर पर पाप चढ़ेगा। नवरात्रि ख़त्म होने के बाद इनसे ही घास उखड़वाती हूँ।" रमेश की माँ ने मुस्कुराते हुए कहा।
 लेखक : सुमित प्रताप सिंह
इटावा, नई दिल्ली, भारत 


शुक्रवार, 20 मार्च 2015

लघु कथा : दुःख


फे और जिले कैंटीन में चाय पी रहे थे। तभी कैंटीन के बगल से निकल रही एक महिला को देखकर नफे बोला, "इस उजाड़ सरकारी दफ्तर में ये हसीन औरत क्या कर रही है?" 
जिले ने बताया, "इसका पति सूबे कुछ महीनों पहले ही सड़क दुर्घटना में मारा गया था। अब ये बेचारी अपने पति के बदले नौकरी पाने के लिए सरकारी दफ़्तरों के चक्कर काट रही है, ताकि यह अपना और अपने छोटे-छोटे बच्चों का पेट पाल सके"।
नफे ने जोर से साँस लेते कहा, "ओहो इतनी भरी जवानी में इसने अपना पति खो दिया। इसकी पतली कमर और हिरनी सी चाल देखकर तो कोई भी अपना सबकुछ लुटा दे। इसको देखकर मेरा तो कलेजा दुःख के मारे फटा जा रहा है"।
"सही कह रहा है नफे। ईश्वर न करे कभी हम भी किसी सड़क दुर्घटना में मारे जाएँ और हमारी पत्नियाँ भी इसी तरह भटकते हुए धक्के खा रही हों तब हम जैसे भले लोगों का उनकी जवानी को देखकर शायद ऐसे ही दुःख के मारे कलेजा फटा करेगा"। जिले के इतना कहते ही कैंटीन के उस कोने में सन्नाटा छा गया।

लेखक : सुमित प्रताप सिंह
इटावा, नई दिल्ली, भारत 

सोमवार, 16 मार्च 2015

सबसे बड़े साहब


     र सरकारी कार्यालय में एक बड़े साहब होते हैं और बाकी उनके अंतर्गत कार्य करनेवाले छोटे-मोटे प्राणी। बड़े साहब के निर्देशन में पूरा कार्यालय और कार्यालय के कर्मचारी कर्मठता और विवशता से जुटे रहते हैं। कार्यालय में बड़े साहब से भी बड़े एक साहब विराजमान होते हैं और वो होते हैं सबसे बड़े साहब। कहने को तो वो बड़े साहब के अंतर्गत उनकी सेवा में नियुक्त एक सरकारी कर्मचारी मात्र होते हैं लेकिन असल में जो दिखता है वो होता नहीं है और जो होता नहीं है वो न दिखकर भी देखना पड़ता है। इसलिए बड़े साहब बेशक बड़े दीखते हों लेकिन असल में वो सबसे बड़े साहब नहीं होते या यूँ कहें कि उनमें सबसे बड़े साहब बनने का सामर्थ्य ही नहीं होता।
कार्यालय के अल्प बुद्धि धारक कर्मचारी सबसे बड़े साहब को बड़े साहब का मात्र मातहत कर्मचारी मानकर उनको छोटा समझने की भूल अक्सर करते रहते हैं। यही भूल उनकी कठिनाइयों का सबसे बड़ा कारण होती है। सबसे बड़े साहब बड़े साहब की सेवा में दिन भर रत रहते हैं और उनकी हर सुख-सुविधा का ध्यान रखते हैं। उनका कर्तव्य होता है ऐसा प्रत्येक कार्य करना जो हम आम जीवों के वश के बाहर की बात हो और जो बड़े साहब को तन और मन का सुख प्रदान कर सके तथा सबसे बड़े साहब को सबसे बड़ा बना रहने में सहायक बना रहे। हम कमअक्लों को ये कार्य शायद छोटे लगते हों लेकिन ये छोटी सोच ही हमें छोटा बनाये रखती है और जो इस छोटी सोच से ऊपर उठकर कार्य करता है वो बनता है सबसे बड़ा साहब।
    बड़े साहब के इर्द-गिर्द लगभग पाँच वर्ग मीटर का घेरा होता है जिसमें तैनात रहते हैं सबसे बड़े साब। दूसरे शब्दों में कहें तो यह घेरा सबसे बड़े साहब का साम्राज्य होता है जिसके वो अघोषित सम्राट होते हैं। आदमी तो आदमी किसी पंछी की भी मजाल है जो इस घेरे में पर भी मार जाये। बड़े साब के कानों के आस-पास ही सबसे बड़े साहब का मुख रहता है और उस मुख से दफ्तर की हर टुच्ची से टुच्ची बात बड़े साहब के कानों से होती हुई उनके मस्तिष्क में सप्लाई होती रहती है।
   बड़े साहब बेशक थोड़ा-बहुत नाराज भी हो जाएँ तो कुछ नहीं बिगड़ेगा लेकिन अगर सबसे बड़े साहब हमसे नाराज हो गए तो समझो कि भैंस गई पानी में। हमारे इस डर को सबसे बड़े साहब भी बखूबी जानते हैं इसलिए वो अक्सर हमें डराए रखते हुए हमारे डर को अपने फायदे में इस्तेमाल करते रहते हैं और हम सभी भोंदू बनकर इस्तेमाल होते रहने में ही अपनी भलाई समझते हैं।
   सबसे बड़े साहब के मातहत भी कुछ जीव कार्यरत होते हैं। उन्हें हम बहुत बड़े साहब कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। सबसे बड़े साहब को सबसे बड़ा बनाए रखने में इन बहुत बड़े साहबों का भरपूर योगदान होता है। जहाँ सबसे बड़े साहब का कर्मक्षेत्र बड़े साहब के इर्द-गिर्द ही होता है वहीं इन बहुत बड़े साहबों का कर्मक्षेत्र पूरा कार्यालय होता है। कार्यालय की हर छोटी-बड़ी खबर बहुत बड़े साहबों से प्राप्त कर सबसे बड़े साहब अपने बड़े साहब के चरणों में प्रस्तुत करते रहते हैं। परिणामस्वरुप आये दिन कार्यालय के किसी न किसी बेचारे कर्मचारी पर गाज गिरती रहती है। कार्यालय के कर्मचारी सबसे बड़े साहब के अत्याचारों से तंग आकर दिन-रात उन्हें गरियाते रहते हैं और श्राप देते रहते हैं। एक दिन ऐसा भी आता है जब दुखी कर्मचारियों द्वारा दुखी मन से दिया गया श्राप सिद्ध हो जाता है और बड़े साहब जरा सी गलती होने पर सबसे बड़े साहब से इतना नाराज हो जाते हैं कि सबसे बड़े साहब को सबसे छोटा साहब बनने में अधिक समय नहीं लगता।

लेखक : सुमित प्रताप सिंह 


सोमवार, 2 मार्च 2015

भैया, आँखों से घर तक छोड़ कर आओगे



   किसी गली या फिर किसी मोड़ पर कोई न कोई बिलकुल खाली इंसान अर्थात ठलुआ भैया बैठा मिल ही जाता है। उसके व्यक्तित्व को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है, कि वह नैतिकता नामक अवगुण से कई कोस की दूरी बनाये रखना ही अपना परम कर्तव्य समझता है। ऐसा भी हो सकता है कि नैतिकता को उसने कभी देखा और सुना ही न हो। वैसे भी नैतिकता के पाठ को विद्यालयों की पाठ्य पुस्तकों से सरकारी वरदहस्त प्राप्त कुछ महानुभावों ने धरती के जाने किस कोने में ले जाकर छोड़ दिया है। जिसके परिणामस्वरुप बहुत प्रयास करने बाद भी नैतिकता से लोगों से फिर से मिलने का सपना साकार नहीं हो पा रहा है। इसका फल यह मिला कि हमारी युवा पीढ़ी के कुछ पथ भ्रष्टों के मन - मस्तिष्क से नैतिकता नामक अवगुण सदैव के लिए तड़ीपार हो गया। अब युवा बड़े-बुजुर्गों के पास बैठकर जीवन के तजुर्बे लेने की बजाय साइबर कैफ़े में जाकर या फिर अँधेरे कमरे में गुपचुप रूप से रंग-बिरंगी फ़िल्में देखने में मस्त रहते हैं और इनके मस्तिष्क में रंग-बिरंगी फिल्मों का ही संसार बन जाता है तथा इनका मस्तिष्क आम जीवन में भी रंग-बिरंगा करने को उत्साहित हो उठता है और उनके रंग-बिरंगा करने की इच्छा का खामियाजा भुगतना पड़ता है बेचारी अबलाओं को। ग्राउंड में जाकर दौड़ने-भागने या फिर खेलने-कूदने की बजाय ये पौए या अद्धे का भोग लगाकर अश्लील व कानफोड़ू संगीत पर किसी डांस क्लब में थिरकते मिल जायेंगे। शारीरिक श्रम से दूरी और दारुपान करने का फल ये मिलता है कि इनका शारीरिक सौष्ठव इतना बढ़िया हो जाता है कि तेज हवा चलने पर भी इनका बलिष्ठ शरीर किसी पेड़ की जर्जर डाली अथवा क्षीण पत्ते की भांति कांपने लगता है। बहन-बेटियों की इज़्ज़त करने जैसे शब्दों की फालतू शब्दावली इनके लुच्चकोश अर्थात शब्दकोश में दीया लेकर खोजने पर भी मिलनी असंभव है और ये अपनी माँ, बहन व बेटियों को भी अपनी कामुक दृष्टि के आगोश में लेना अपना परम कर्तव्य समझते हैं। ये तरह-तरह उपाय या साधन ढूँढ़ते हैं जिससे नारी जाति को शर्मशार किया जा सके और इसी पुण्य प्रयास में ये अपने दिन और रात व्यतीत करते हैं। इस तरह की प्रजाति के स्रोतहीन व साधनहीन जीवों के पास एकमात्र सहारा होता है अपने गली-मोहल्ले के किसी कोने में उल्लू आसन का प्रयोग करते हुए वहाँ से आती और जाती हुई लड़कियों व महिलाओं को एक टक होकर देखना और तब तक देखते रहना जब तक कि वे इनकी आँखों के मारक क्षेत्र से बाहर न हो जाएँ। इन्हें कितना भी समझाओ अथवा निठल्ले बैठना छोड़कर किसी प्रगति के कार्य में लगने के लिए प्रेरित करो किन्तु इनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इन्हें समझाना एक प्रकार से भैंस के आगे बीन बजाने के समान ही होता है। और किसी दिन कोई लड़की तंग आकर इनसे पूछ लेती है "भैया आँखों से घर तक छोड़के आओगे?" तो या तो ये झेंपकर मुस्कुरा देते हैं या फिर अपनी बहादुरी दिखाते हुए वहाँ से नौ दो ग्यारह हो लेते हैं।


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