शहर की उस छोटी सी कॉलोनी में उस रोज विद्रोह की सुगबुगाहट होने लगी, जब उस कालोनी की सीवर लाइन जाम हो जाने के कारण बिजली घर पूरी तरह भर गए। मज़बूरन बिजली विभाग के कर्मचारियों को उस कालोनी की बिजली की सप्लाई काटनी पड़ी। मई के गर्म महीने में बिना बिजली के कॉलोनीवालों के तपते हुए शरीरों में उनके मस्तिष्क भी बुरी तरह तपकर भट्टी का रूप धारण कर चुके थे। कॉलोनीवालों के एक परिचित पत्रकार से उनकी दुर्दशा न देखी गई और उसने जिम्मेदारी संभाली कि वह अपने अख़बार के माध्यम से कॉलोनीवासियों की समस्या का समाधान करने का भरकस प्रयत्न करेगा। जब वह पत्रकार उस कॉलोनी में अपने फोटोग्राफर के साथ उस खबर को कैद करने के लिए पहुँचा तो वहाँ परेशान कॉलोनीवासियों के दुखों को सुनकर उसकी भी आँखें भर आईं। उसने उस कॉलोनी की समस्या को राई का पहाड़ बताकर अपने अख़बार में प्रमुखता से छपवाया। अख़बार में खबर आते ही नेता व सम्बंधित विभागों के अधिकारी गण आकर कॉलोनी में हाजिरी लगाने लगे। पत्रकार भी इस दौरान कॉलोनी में हाज़िर रहा। उसने एक बात महसूस की कि कोई भी नेता अथवा अधिकारी कॉलोनी में आता तो चुपचाप एक बंद लिफाफा कॉलोनी की एसोसिएशन के अध्यक्ष के हाथों में पकड़ाकर चला जाता। लिफाफा हाथ में आते ही अध्यक्ष महोदय बाकी कालोनी वासियों के साथ चुपचाप अपने-अपने घरों में विश्राम करने चल पड़ते। कई दिनों तक यह सिलसिला चला। पत्रकार इस दौरान शांत होकर इस सारी प्रक्रिया का साक्षी बना रहा। अब उस पत्रकार को अध्यक्ष के लिफाफा लेने की क्रिया पर बहुत क्रोध आने लगा था। उसने काफी सोच-विचार के उपरांत यह अनुमान लगाया कि हो न हो अध्यक्ष महोदय को इस बात को यहीं दबाने के एवज में लिफाफे में बंद करके गुपचुप तरीके से रकमरूपी रिश्वत दी जा रही है जिसमें कालोनीवालों की भी गुप्त सहमति है। पत्रकार ने निश्चय किया कि वह अध्यक्ष और कॉलोनीवालों को अकेले-अकेले रकम नहीं डकारने देगा। अब वह अगले दिन की बेसब्री से प्रतीक्षा करने लगा। अगले दिन एक और अधिकारी महोदय कॉलोनी में पधारे और कुछ देर के विचार-विमर्श के पश्चात उन्होंने भी अध्यक्ष की ओर चुपके से एक लिफाफा बढ़ा दिया, जिसे पत्रकार ने चीते सी फुर्ती दिखाकर अध्यक्ष का प्रतिनिधि बताकर बीच में ही झटक लिया। उस अधिकारी के चले जाने के बाद पत्रकार ने अनुभव किया कि लिफाफे के भीतर कुछ हलचल हो रही है।
पत्रकार ने घबराते हुए पूछा, "कौन है लिफ़ाफ़े के भीतर?"
तभी लिफाफे का मुँह थोड़ा सा खुला और उससे से आवाज आई, "जी मैं आश्वासन हूँ"।
सुमित प्रताप सिंह
इटावा, नई दिल्ली, भारत