आज जब हम हिंदी साहित्य में पाठकों की कमी का दुखड़ा रोया करते हैं तो ऐसे में किसी उपन्यास का दूसरा संस्करण और वह भी मात्र 2 साल में आना इस दुखड़े को खारिज करता है। लेकिन शर्त है कि वह कृति रोचक और मनोरंजक शैली में लिखी गई हो। इस संदर्भ में 'जैसे थे' उपन्यास का दूसरा संस्करण आना उसके पठनीयता, रंजकता और रोचक शैली की गवाही देता है। आज जहां हास्य व्यंग्य 500 शब्दों की सीमा में आबद्ध होकर लिखा जा रहा है, वहीं अगर कोई पत्रिका 2000 शब्द युक्त व्यंग्य रचना मांग ले तो व्यंग्यकार दम तोड़ता सा प्रतीत होता है। क्योंकि लंबी रचना में हास्य और व्यंग्य को एक साथ साधना कठिन कार्य है। ऐसे में उपन्यास जैसी विधा में हास्य व्यंग्य साधना महत्वपूर्ण होने के साथ कठिन भी है। चूँकि उपन्यास लिखना ही मात्र धैर्य, साहस और समय की मांग नहीं करता बल्कि पढ़ने के लिए भी धैर्य और समय चाहिए। और आज हमारे पास सब कुछ है अगर कुछ नहीं है तो वह है समय और धैर्य। इस उपन्यास का संक्षिप्त कलेवर और इसकी पठनीयता ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया ।
किसी उपन्यास का कथानक सीमित कलेवर में भी विस्तार लिए हो सकता है यह हमें इस उपन्यास में देखने को मिलता है। उपन्यास का कथ्य उत्तर भारत के एक गांव व्यस्तपुरा से शुरू होकर विनम्रपुरा थाने तक फैला है। इसी फैलाव के बीच लेखक ने अपनी बात कही है और समाज में विभिन्न स्तरों पर फैली विसंगतियों को पकड़ने का प्रयास किया है। हास्य की फुलझड़ियां और व्यंग्य की कटार दोनों से आप यहां रूबरू होते हैं।
उपन्यास के शुरुआत में ही गाँव व्यस्तपुरा के माध्यम से लेखक वर्तमान समाज की व्यस्त दिखने-दिखाने की प्रवृत्ति पर कटाक्ष करता है। आज हम सभी घंटों सोशल मीडिया पर बिताते हैं लेकिन यदि रिश्तेदारों का आना या उनसे मिलने जाना हो तो हमारे पास समय नहीं है। हम व्यस्त हैं। व्यस्त न होने के बावजूद व्यस्त दिखाने की प्रवृत्ति हम सब में कहीं न कहीं मौजूद है, जो उपन्यास के व्यस्तपुरा गांव के हर व्यक्ति के माध्यम से दिखाने की कोशिश हुई है।
उपन्यास में एक पात्र है कड़क सिंह। नाम के अनुसार कड़क हैं और विनम्रपुरा थाने के थानेदार हैं। इनके चारित्रिक गुणों से व्यस्तपुरा के लोग इतने प्रभावित हैं कि उनसे मिलने के लिए सब मिलकर विनम्रपुरा थाने तक पैदल यात्रा का कार्यक्रम बनाते हैं। नारद कुमार ऐसे पात्र हैं जो एक कथा से दूसरी कथा में अंतरण करते-कराते हैं। कथा इसी तरह से आगे बढ़ती है।
अगर थानेदार कड़क सिंह की बात करें तो उनके चारित्रिक गुणों में साहस वीरता और आत्मसम्मान की जो भावना है वह विपरीत परिस्थितियों में भी विलीन नहीं होती। बचपन में ही कड़क सिंह के मां, भाई और बहन का गंगा स्नान के दौरान डूब जाना और पिता का एक्सीडेंट के दौरान अपंग हो जाना भी कड़क सिंह की जिजीविषा को तोड़ नहीं पाता। वह पढ़-लिख कर पिता की सेवा करता हुआ एक दिन थानेदार के उच्च पद तक पहुंचता है, जो किसी भी युवा के लिए प्रेरणास्रोत साबित हो सकता है। कड़क सिंह की नारद कुमार के माध्यम से कहानी सुनने के बाद ही व्यस्तपुरा वासी उसे मिलने के लिए पैदल यात्रा का कार्यक्रम निर्धारित करते हैं और उसे पूरा भी करते हैं।
हमारे समाज में सिनेमा के माध्यम से पुलिस की जो खराब छवि दिखाई जाती है वास्तव में इस पात्र के माध्यम से लेखक ने उस धूमिल छवि को साफ करने की सफल कोशिश की है। चूंकि लेखक स्वयं पुलिस विभाग से है तो उपन्यास में आए पात्र काल्पनिक नहीं हो सकते। लेखक इन पात्रों से वास्तविक दुनिया मे जरूर रूबरू हुए होंगे तभी कड़क सिंह जैसा पात्र वह वे सृजित कर पाए हैं। यह उनकी लेखकीय सफलता है। साहित्य का उद्देश्य ही समाज का हित है और समाज को प्रेरित करना साहित्यकार का दायित्व। यहां लेखक अपने दायित्व में पूर्णत: सफल होते दिखते हैं।
व्यस्तपुरा गांव के माध्यम से लेखक ने शिक्षा जगत से लेकर सरकारी बाबू और अफसरों द्वारा किए जा रहे भ्रष्टाचार की भी पोल खोलकर रख दी है। व्यस्तपुरा गांव के विकास हेतु जो योजनाएं बनाई जाती हैं वह कभी पूरी नहीं हो पाती।
कथा के बीच से कथा निकालने का हुनर इस कृति में आपको दिखेगा। अभी कड़क सिंह की कथा चल ही रही होती है, कि भागे सिंह नामक चरित्र से हमारा परिचय होता है। यही वह पात्र है जिसका सहारा लेकर लेखक ने महानगरों में होने वाली ठगी का हास्य व्यंग्य शैली में पर्दाफाश किया है। भागे सिंह अपने रिश्तेदारों से मिलने के लिए दिल्ली आता है और घूमने के उद्देश्य से चांदनी चौक पहुंचता है। उसे यहां एक व्यक्ति मिलता है जो सस्ता मोबाइल मुहैया कराने के नाम पर भागे सिंह को ठग लेता है। मात्र 2000 रुपयों में मोबाइल के रूप में जो डिब्बा भागे सिंह को थमाया गया है उसमें पत्थर भरे होते हैं। यहां हम हास्य प्रयोग के बावजूद भागे सिंह के प्रति संवेदनशील होते हैं। बार-बार ठगे जाने पर ग्रामीण भागे सिंह शहर के हर व्यक्ति से डरता है जो उसके संपर्क में आता है। भागे सिंह द्वारा गांव वापस पहुंचकर शहर में दोबारा कदम ना रखने का प्रण लेना वास्तव में हर उस मासूम ग्रामीण का प्रण है जो शहरी कटुता का शिकार हुआ है। यहां मुझे उदय प्रकाश की तिरिछ कहानी याद हो उठी। इस कहानी का नायक भी डरते-डरते शहर पहुंचता है और जीवित व्यक्ति से लाश में तब्दील होकर गांव वापस आता है। वास्तव में यह शहरी संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है।
भागे सिंह के साथ ही तोप सिंह की कहानी भी इसी क्रम में आती है। तोप सिंह कवि है और तुकबंदी करने में माहिर है। हास्य का एक उत्कृष्ट रूप आपको तोपसिंह के खानदान के नामकरण में भी दिखाई देगा। परदादा तमंचा सिंह है, दादा पिस्तौल सिंह है, पिता बंदूक सिंह और खुद वह तोपसिंह है। पात्रों के नामकरण में एक नई प्रयोगशीलता हमें दिखाई देती है।
हमारे भारतीय समाज में पंडे-पुजारियों का बड़ा प्रभाव रहा है और अशिक्षित समाज में यह और अधिक है। गंडे-ताबीज के भरोसे हमारी अशिक्षित महिलाएं बच्चा पाना चाहती हैं। परिणाम स्वरूप यह ब्रह्मचारी सरीखे पंडे महिलाओं को अपना शिकार बनाते हैं। इस उपन्यास में अखंड ब्रह्मचारी के नाम से जो पुजारी है वास्तव में वह एक चोर, सट्टेबाज और चरसी है। एक मंदिर से धातु की मूर्ति चुरा कर गांव व्यस्तपुरा में पहुंचता है। चूंकि इस गांव के लोग अशिक्षित हैं तो इस चोर की कुछ कही बातें संयोग से पूरी हो जाती हैं जिसे गांव वाले भविष्यवाणी करार देकर उसे पूजने लगते हैं । हालांकि ब्रह्मचारी के रूप में उसका चरित्र नहीं बदलता और गांव की सुंदर महिलाओं पर उसकी अब भी कुदृष्टि है। दरगाह का खादिम भी उसके साथ इस प्रपंच में मिला हुआ है। जो व्यक्ति इनकी सच्चाई जान सकता है उन्हें यह अपने हथकंडो से रास्ते से हटाने में कामयाब होते हैं। वास्तव में यह प्रतीक है हमारे समाज के उन पंडों और मौलवियों का जो जनता के बीच रहकर न केवल उन्हें धार्मिक रूप से बरगलाते लाते हैं बल्कि महिला और बच्चियों को अपनी हवस का शिकार भी बनाते हैं।
लेखक कथा के साथ-साथ विशेष टिप्पणियां भी करते चलते हैं जो समाज से लेकर राजनीतिक चेहरे को भी उखाड़ कर रख देती हैं। राजनीति में वामपंथ और दक्षिपपंथ की तर्ज पर लेखक सुविधा को भी एक पंथ के रूप में देखता हैं। यह वही पंथ है जिसे सुविधा के अनुसार मतावलंबी कभी इधर, कभी उधर जाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करता है। वास्तव में यह हमारे वर्तमान समाज का एक कटु सत्य है जो साहित्य से लेकर राजनीति तक देखने को मिलता। इस पंथ के घोर समर्थक मिल जाएंगे। इन्हें ही समाज में लुढ़कता लोटा, थाली का बैंगन आदि कहा जाता है। इनकी कोई जाति या धर्म नहीं होता। इस विषय में लेखक कहता है - सुविधा पंथ प्राणियों की जाति और धर्म सिर्फ और सिर्फ सुविधा पंथ ही होता है।
जैसे-जैसे गांव वाले व्यस्त पुरा से विनम्र पुरा की तरफ जाते हैं अनेक कहानियां धीरे-धीरे खुलती हैं। एक कहानी दद्दा जी की भी है जो बुढ़ापे में गांव की एक लड़की पर लट्टू हो गए है। इस मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए उन्हें गांव में ही एक प्रेम गुरु भी मिल गया हैं जो आधुनिक प्रेम के तौर तरीके दद्दा को समझाता हैं। रोज डे, प्रपोज डे, चॉकलेट डे, टेडी डे के रूप में वैलेंटाइन डे का पूरा सप्ताह मनाने की दद्दा को हिदायत देता हैं। प्रेम के इन दिवसों को किस तरह से मनाने के लिए दद्दा जी आगे बढ़ते हैं यह पूरा विवरण हास्य परक है जो कथा में रोचकता पैदा करता है। वास्तव में दद्दा के माध्यम से प्रेम में यह बाजारवाद की घुसपैठ है। बाजार की पहुंच न केवल महानगरो या नगरों तक ही सीमित नही है बल्कि वह गांव की दहलीज तक पहुंच चुका है। इस बाजारवाद के कारण अब गांव का व्यक्ति छाछ नहीं कोक पीता है। ग्रामीण अनाज की रोटी नहीं बल्कि पिज्जा खाता है और गुलाब तथा चॉकलेट से वैलेंटाइन डे मनाता है। यह प्रेम के विकृत स्वरूप की पराकाष्ठा है। लेखक ने बड़े सलीके से यहां इस समस्या को उठाया है।
लेखक ने मेडिकल साइंस में हो रही विभिन्न दवाइयों की खोज को भी अपने कटाक्ष का विषय बनाया है। डॉक्टर खोजी नामक पात्र के माध्यम से खोजी गई दवाई का इस्तेमाल व्यक्तियों को बकरी और बंदर जैसे जानवर बनाने तक पहुंचता है। यह पूरा प्रसंग बेहद हास्य व्यंग्य परक शैली में रचा गया है।
क्योंकि लेखक साहित्यकार है इसलिए अकादमी में हो रही अनियमितताओं से वह वाकिफ है। ‘भाषा उठाओ अकादमी’ के माध्यम से वह न केवल अकादमी और उससे जुड़े हुए लोगों की पोल खोलता है बल्कि कवि और साहित्यकारों की भूमिका भी संदिग्ध है वह कैसे इन अकादमियों का सहयोग करते हैं यह भी इस उपन्यास में पढ़ा जा सकता है।
उपन्यास के अंतिम भाग में आकर लेखक खुद भी पुलिस वाला हो उठता है जहां वह पुलिस वाले कैसे टाइम पास करते हैं इस पर टिप्पणी करने से नहीं चूकता।
उपन्यास के कथा के अतिरिक्त यदि पात्रों की बात करें तो संख्या थोड़ी ज्यादा भले है लेकिन जो नामकरण किए गए हैं वह हास्य की फुहार से आपको सराबोर अवश्य करेंगे।
जहां तक उपन्यास की भाषा का सवाल है वह पात्र अनुकूल है। जैसा पात्र है उसकी भाषा उसी परिवेश के अनुकूल गढी गई है। उदाहरण के लिए उपन्यास के मध्य में ट्रेन में बैठे हुए लोगों का एक दृश्य है जो अलग-अलग पृष्ठभूमि के हैं। एजुकेटेड महिला अंग्रेजी में ही बात करती है, साउथ इंडियन टूटी फूटी हिंदी में बोलता है, सरदार जी पंजाबी में बोलते हैं तो हरियाणवी अपनी हरियाणवी बोली में संवाद करता दिखाया गया है जो कथ्य की अनिवार्यता है।
जहां तक उपन्यास के कलेवर का संबंध है वह 400, 500 या 700 पृष्ठों में नहीं मात्र 100 पृष्ठों में समाया हुआ है । मैं कहूंगी कि कलेवर के संक्षिप्त होने के कारण ही पठनीयता और संप्रेषणयत्ता कहीं कमजोर नहीं पड़ी है। शुद्ध मनोरंजक शैली में लिखे गए इस उपन्यास के संस्करण की पुनरावृतियां अवश्य होंगी। ऐसी मेरी इच्छा भी है और शुभकामना भी।
पुस्तक : जैसे थे
लेखक : सुमित प्रताप सिंह
प्रकाशक : सीपी हाउस, दिल्ली
पृष्ठ : 100
मूल्य : 120 रुपए
समीक्षक : डॉ. अनीता यादव