शुक्रवार, 30 दिसंबर 2022

ऑस्ट्रेलिया में लेखन कौशल दिखातीं रीता कौशल



     स्ट्रेलिया के पर्थ शहर में रह रहीं रीता कौशल मूलरूप से आगरा, उत्तर प्रदेश की रहने वाली हैं। इस समय  वह ऑस्ट्रेलियन गवर्नमेंट की लोकल काउन्सिल में फाइनेंस ऑफिसर के पद पर कार्यरत हैं तथा इसके साथ ही साथ हिंदी लेखन में कौशलता का नियमित रूप से प्रदर्शन कर रहीं हैं। 2002 से 2005 ईसवी तक सिंगापुर में हिंदी शिक्षण कर चुकीं रीता कौशल अब तक चार पुस्तकों का सृजन कर चुकीं हैं एवं इनके कई साझा संग्रह व इनके संपादन में 21 श्रेष्ठ बालमन की कहानियाँ ऑस्ट्रेलिया नामक पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है। इसके अतिरिक्त हिंदी समाज ऑफ वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया की वार्षिक पत्रिका ‘भारत-भारती’ के संपादन की जिम्मेवारी भी इन्होंने 2015 से 2020 ईसवी तक बखूबी संभाली है। इनकी रचनाएँ निरंतर विभिन्न समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं की शोभा बढाती रहतीं हैं एवं इन्हें इनके लेखन के लिए अनेकों पुरस्कार-सम्मान भी प्राप्त हो चुके हैं। हमने कुछ प्रश्नों के माध्यम से इनकी साहित्यिक यात्रा के विषय में जानने का लघु प्रयास किया है।

आपको लेखन का रोग कब और कैसे लगा?

रीता कौशल - जब से पढ़ना-लिखना सीखा तबसे। जहाँ तक मेरी याददाश्त जाती है ऐसा जान पड़ता है कि मैं खिलौनों की दुनिया की सदस्य कभी नहीं थी। हाँ पुस्तकें मुझे होश सम्भालने से ही प्रिय रही हैं व आज भी मेरी सर्वप्रिय मित्र हैं। मैं पुस्तकों के बीच में बेहद ख़ुशी महसूस करती हूँ। मैं ख़रीदकर, माँगकर, दूसरों से अदल-बदल कर हर तरह से पढ़ती रही हूँ। अब जिसे पढ़ने का इतना चस्का हो तो वह लेखन से कैसे अछूता रह सकता है।

लेखन से आप पर कौन सा अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ा?

रीता कौशल - मैंने जहाँ विज्ञान, गणित व लेखाकारी जैसे विषयों का ज्ञान जीवन बसर करने के लिए अर्जित किया, वहीं कविता, कहानी, भाषा, साहित्य मेरी आत्मा की खुराक बन कर मेरा जीवन तत्व बने हैं। अब जो चीज जीवन तत्व बन गई है और माँ सरस्वती के आशीर्वाद स्वरूप प्राप्त हुई है उसका कोई बुरा प्रभाव कैसे हो सकता है? लेखन ने मुझे एक अलग पहचान, मान-प्रतिष्ठा दी है। साथ ही समय के सदुपयोग का साधन दिया है। तो कुल मिलाकर सब अच्छा ही अच्छा हुआ है बुरा कुछ नहीं।

क्या आपको लगता है कि लेखन समाज में कुछ बदलाव ला सकता है?

रीता कौशल - जी बिलकुल ला सकता है। जो हम पढ़ते हैं, सोचते हैं उसका सीधा असर हमारी मानसिकता पर पड़ता ही है। और व्यक्ति की सोच से ही समाज की सोच का निर्माण होता है।

आपकी अपनी सबसे प्रिय रचना कौन सी है और क्यों?

रीता कौशल - वैसे तो इस प्रश्न का उत्तर देना किसी भी लेखक के लिए बेहद कठिन होता है। फिर भी आपने पूछा है तो मैं कहूँगी कि हाल ही में प्रकाशित मेरा उपन्यास ‘अरुणिमा’ मेरी सबसे प्रिय रचना है। ये मुझे इसलिए प्रिय है क्योंकि एक तो ये मेरा पहला-पहला उपन्यास है दूसरे इसमें एक अछूते विषय को कलमबद्ध किया गया है जो कि पाठकों के द्वारा खूब सराहा जा रहा है।    

आप अपने लेखन से समाज को क्या संदेश देना चाहती हैं?

रीता कौशल - मैंने अपने लेखन के माध्यम से समाज की सोच में बदलाव लाने का प्रयास किया है। हर कहानी में समाज को सकारात्मक दिशा प्रदान करता हुआ दृष्टिकोण देने की कोशिश की है, जो समाज को एकजुट होने का, अच्छी सभ्यता और संस्कृति, अच्छे संस्कार देने का संकेत देता है। मैंने अपने लेखन में अगर समस्या को उठाया है तो उसके समाधान की बात भी अवश्य की है।

साक्षात्कारकर्ता - सुमित प्रताप सिंह

गुरुवार, 29 दिसंबर 2022

साहित्य रथ पर सवार अभिमन्यु पाण्डेय 'आदित्य'

दिल्ली के रहने वाले अभिमन्यु पाण्डेय 'आदित्य' मूलतः उत्तरप्रदेश, जिसे इन दिनों उत्तम प्रदेश कहा जा रहा है, के प्रतापगढ़ जनपद के रहने वाले हैं। हालाँकि इन्होंने जन्तु विज्ञान से स्नातक की है, किन्तु इनके मन-मस्तिष्क में लेखन के जंतु वास करते हैं जिससे वशीभूत होकर इन्होंने  पत्रकारिता में परास्नातक किया और पूर्ण रूप से लेखन से जुड़ गए। लगभग सोलह वर्ष पत्रकारिता के रथ के रथी की भूमिका का निर्वहन करने के बाद इन्होंने लेखन के जंतुओं की आज्ञा पाकर अपनी प्रथम पुस्तक 'मुखर होता मौन' का प्रकाशन करवाया एवं साहित्य के रथ के रथी होने का भी सौभाग्य प्राप्त किया. साहित्य रथ पर सवार हो अभिमन्यु के मन में  साहित्य के प्रति ऐसी श्रद्धा उपजी कि काव्य संग्रह ‘नीलिमा’ के माध्यम से इन्होंने स्वर्गीय लाल सुरेश प्रताप सिंह ‘तृषित’ जी की रचनाओं व उनके लिए लिखे गए महाकवि सुमित्रानंदन पंत के हस्तलिखित पत्र को भी संकलित  कर एक धरोहर के रूप में प्रकाशित करवा डाला। फिलहाल अभिमन्यु दैनिक भास्कर के उत्तराखंड संस्करण के लिए दिल्ली ब्यूरो हेड के रूप में सेवाएं दे रहे हैं। हमने कुछ प्रश्नों के माध्यम से इनकी साहित्यिक यात्रा के विषय में जानने का लघु प्रयास किया है।

आपको लेखन का रोग कब और कैसे लगा?

अभिमन्यु पाण्डेय 'आदित्य' - मेरी नज़र में लेखन को रोग नहीं कहा जा सकता। ये तो माँ शारदा की कृपा होती है, जो अपने आप मिलती है। पढ़ते पढ़ते पता ही चलता, कब आपका लिखने का भी मन होने लगता है। फिर एक दिन आपकी साधना को थोड़ा बल मिलता है और आप कुछ भी लिखते हैं। दुनिया के लिए आपकी पहली रचना चाहे कैसी भी हो, लेकिन आपके अपने लिए वो अद्भुत ही होती है। आप उसे बार-बार पढ़ते हैं और मन ही मन खुश होते हैं। यहीं से आप लेखन के आधीन होना शुरू हो जाते हैं। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। हिंदी कविताएं पढ़ने का शौक था। आठवीं कक्षा तक हिंदी कविताओं में खूब रुचि रही। नौवीं कक्षा तक आते-आते एक दिन कुछ पंक्तियां लिखीं। कई बार पढ़ीं। खूब मजा आ रहा था। ऐसा महसूस हुआ कि मैं भी लिख सकता हूँ। फिर दो-तीन तक उन्ही पंक्तियों को दिमाग में घुमाता रहा और अंततः एक कविता तैयार हुई। मैं बता नहीं सकता कि वो क्या खुशी थी। कई परिचितों और दोस्तों को कविता पढ़वाई और सुनाई। मिली-जुली प्रतिक्रियाओं से कभी निराशा तो कभी उत्साह मिला। लेकिन वो दिन बेहद ही खुशी का दिन था, जब एक मित्र के पिताजी ने एक स्थानीय अखबार में उसे प्रकाशित करवाया। बस उसके बाद तो माँ शारदे की कृपा होती चली गई और विभिन्न मुद्दों पर लेखन शुरू हो गया।

लेखन से आप पर कौन सा अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ा?   

अभिमन्यु पाण्डेय 'आदित्य' - समाज में दो प्रकार के लोग होते हैं। एक जो प्रैक्टिकल होते हैं। उन्हें किसी के सुख दुख या जीवन के उतार चढ़ाव का उन पर कोई फर्क ही नहीं पड़ता। समाज के प्रति वो अधिकतर उदासीन रहते हैं। दूसरे होते हैं कुछ भावुक लोग,जो हर बात को दिल से लेते हैं। उस पर गम्भीर विचार करते हैं और उसमें अपनी भावनाएं जोड़ देते हैं और किसी निर्णय तक पहुंचते हैं। लेखन से जुड़ा व्यक्ति हमेशा भावनाओं के अधीन होता है। उसे समाज के प्रत्येक मुद्दे पर चिंतन और मनन की आदत होती है। किसी की पीड़ा,संताप,खुशी,दुख जैसे तमाम भावों से खुद को जोड़ कर ही वो अपने लेखन में उतार देता है। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। कई बार इसका लाभ भी होता है तो कई भावनाओं में बहकर नुकसान भी उठाना पड़ता है। संसार में हर प्रकार के लोग हैं। जाहिर है,कुछ भावनाओं की कद्र करते हैं तो कुछ उनसे खिलवाड़।

क्या आपको लगता है कि लेखन समाज में कुछ बदलाव ला सकता है?

अभिमन्यु पाण्डेय 'आदित्य' - जी बिल्कुल। समाज में आज भी यदि कुछ संस्कार और मानवता बची है तो वो सिर्फ लेखन की बदौलत ही है। इतिहास गवाह है कि समय-समय पर अपने समय के साहित्यकारों व कवियों  की रचनाओं  ने समाज को नई दिशा देने का काम किया है। लेखनीबद्ध होकर ही आज हमारे समाज की संस्कृति जिंदा है।

आपकी अपनी सबसे प्रिय रचना कौन सी है और क्यों?

अभिमन्यु पाण्डेय 'आदित्य' - वैसे तो मुझे मेरी अधिकांश रचनाओं से प्रेम है, लेकिन मेरी 'परदेशी' और 'बेटी' दो कविताएं मुझे बेहद पसंद हैं। 'परदेशी' कविता में मैंने गांव से शहर आए उस व्यक्ति की पीड़ा को दर्शाने की कोशिश की है, जो शहर में तमाम कष्ट और समझौते झेल कर जीविका कमाता है और उसके परिजन व गांव के यार दोस्त इसे परदेशी कह कर सम्बोधित करने लगते हैं। जिससे वो खुद को गांव से कटा हुआ पाता है। शहर की तकलीफों और समस्याओं में रहते हुए भी जो एक परदेशी के मन में भवनाएं जाग्रत होती हैं, वो कविता के माध्यम से कहने की कोशिश की है। जबकि वहीं 'बेटी' कविता में एक बेटी के जीवन की तमाम पीडाओं को उठाने की कोशिश की है। हमारे समाज मे आज भी बेटी बड़ी होने पर उस पर जो तमाम पाबंदियां आदि लगा दी जाती हैं, वो वास्तव में अपने आप में बहुत निंदनीय है।

आप अपने लेखन से समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं?

अभिमन्यु पाण्डेय 'आदित्य' - लेखन तो होता ही समाज की  दिशा और दशा को सकारात्मक करने के लिए है। ऐसे में मेरी भी कोशिश यही रहती है कि समसामयिक मुद्दों पर अपने विचार सकारात्मक ढंग से रख सकूं। इस साक्षात्कार के माध्यम से मैं समाज से अपील करना चाहता हूँ कि मोबाइल और इंटरनेट के इस युग में लेखन को भी महत्व मिले। आज की पीढ़ी जिस तरह से किताबों से दूरी बना रही है, उससे लेखन में भी लोगों की रुचि कम हो रही है। आज समाज को अच्छे साहित्य की आवश्यकता है, जो समाज को ही प्रोत्साहित करना होगा।

साक्षात्कारकर्ता - सुमित प्रताप सिंह 

बुधवार, 28 दिसंबर 2022

बहुरंगी उपन्यास है जैसे थे

     ज जब हम हिंदी साहित्य में पाठकों की कमी का दुखड़ा रोया करते हैं तो ऐसे में किसी उपन्यास का दूसरा संस्करण और वह भी मात्र 2 साल में आना इस दुखड़े को खारिज करता है। लेकिन शर्त है कि वह कृति रोचक और मनोरंजक शैली में लिखी गई हो। इस संदर्भ में 'जैसे थे' उपन्यास का दूसरा संस्करण आना उसके पठनीयता, रंजकता और रोचक शैली की गवाही देता है।

    आज जहां हास्य व्यंग्य 500 शब्दों की सीमा में आबद्ध होकर लिखा जा रहा है, वहीं अगर कोई पत्रिका 2000 शब्द युक्त व्यंग्य रचना मांग ले तो व्यंग्यकार दम तोड़ता सा प्रतीत होता है। क्योंकि लंबी रचना में हास्य और व्यंग्य को एक साथ साधना कठिन कार्य है। ऐसे में उपन्यास जैसी विधा में हास्य व्यंग्य साधना महत्वपूर्ण होने के साथ कठिन भी है। चूँकि उपन्यास लिखना ही मात्र धैर्य, साहस और समय की मांग नहीं करता बल्कि पढ़ने के लिए भी धैर्य और समय चाहिए। और आज हमारे पास सब कुछ है अगर कुछ नहीं है तो वह है समय और धैर्य। इस उपन्यास का संक्षिप्त कलेवर और इसकी पठनीयता ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया ।

      किसी उपन्यास का कथानक सीमित कलेवर में भी विस्तार लिए हो सकता है यह हमें इस उपन्यास में देखने को मिलता है। उपन्यास का कथ्य उत्तर भारत के एक गांव व्यस्तपुरा से शुरू होकर विनम्रपुरा थाने तक फैला है। इसी फैलाव के बीच लेखक ने अपनी बात कही है और समाज में विभिन्न स्तरों पर फैली विसंगतियों को पकड़ने का प्रयास किया है। हास्य की फुलझड़ियां और व्यंग्य की कटार दोनों से आप यहां रूबरू होते हैं।

        उपन्यास के शुरुआत में ही गाँव व्यस्तपुरा के माध्यम से लेखक वर्तमान समाज की व्यस्त दिखने-दिखाने की प्रवृत्ति पर कटाक्ष करता है। आज हम सभी घंटों सोशल मीडिया पर बिताते हैं लेकिन यदि रिश्तेदारों का आना या उनसे मिलने जाना हो तो हमारे पास समय नहीं है। हम व्यस्त हैं। व्यस्त न होने के बावजूद व्यस्त दिखाने की प्रवृत्ति हम सब में कहीं न कहीं मौजूद है, जो उपन्यास के व्यस्तपुरा गांव के हर व्यक्ति के माध्यम से दिखाने की कोशिश हुई है।

        उपन्यास में एक पात्र है कड़क सिंह। नाम के अनुसार कड़क हैं और विनम्रपुरा थाने के थानेदार हैं। इनके चारित्रिक गुणों से व्यस्तपुरा के लोग इतने प्रभावित हैं कि उनसे मिलने के लिए सब मिलकर विनम्रपुरा थाने तक पैदल यात्रा का कार्यक्रम बनाते हैं। नारद कुमार ऐसे पात्र हैं जो एक कथा से दूसरी कथा में अंतरण करते-कराते हैं। कथा इसी तरह से आगे बढ़ती है।

       अगर थानेदार कड़क सिंह की बात करें तो उनके चारित्रिक गुणों में साहस वीरता और आत्मसम्मान की जो भावना है वह विपरीत परिस्थितियों में भी विलीन नहीं होती। बचपन में ही कड़क सिंह के मां, भाई और बहन का गंगा स्नान के दौरान डूब जाना और पिता का एक्सीडेंट के दौरान अपंग हो जाना भी कड़क सिंह की जिजीविषा को तोड़ नहीं पाता। वह पढ़-लिख कर पिता की सेवा करता हुआ एक दिन थानेदार के उच्च पद तक पहुंचता है, जो किसी भी युवा के लिए प्रेरणास्रोत साबित हो सकता है। कड़क सिंह की नारद कुमार के माध्यम से कहानी सुनने के बाद ही व्यस्तपुरा वासी उसे मिलने के लिए पैदल यात्रा का कार्यक्रम निर्धारित करते हैं और उसे पूरा भी करते हैं।     

        हमारे समाज में सिनेमा के माध्यम से पुलिस की जो खराब छवि दिखाई जाती है वास्तव में इस पात्र के माध्यम से लेखक ने उस धूमिल छवि को साफ करने की सफल कोशिश की है। चूंकि लेखक स्वयं पुलिस विभाग से है तो उपन्यास में आए पात्र काल्पनिक नहीं हो सकते। लेखक इन पात्रों से वास्तविक दुनिया मे जरूर रूबरू हुए होंगे तभी कड़क सिंह जैसा पात्र वह वे सृजित कर पाए हैं। यह उनकी लेखकीय सफलता है। साहित्य का उद्देश्य ही समाज का हित है और समाज को प्रेरित करना साहित्यकार का दायित्व। यहां लेखक अपने दायित्व में पूर्णत: सफल होते दिखते हैं।

        व्यस्तपुरा गांव के माध्यम से लेखक ने शिक्षा जगत से लेकर सरकारी बाबू और अफसरों द्वारा किए जा रहे भ्रष्टाचार की भी पोल खोलकर रख दी है। व्यस्तपुरा गांव के विकास हेतु जो योजनाएं बनाई जाती हैं वह कभी पूरी नहीं हो पाती। 

        कथा के बीच से कथा निकालने का हुनर इस कृति में आपको दिखेगा। अभी कड़क सिंह की कथा चल ही रही होती है, कि भागे सिंह नामक चरित्र से हमारा परिचय होता है। यही वह पात्र है जिसका सहारा लेकर लेखक ने महानगरों में होने वाली ठगी का हास्य व्यंग्य शैली में पर्दाफाश किया है। भागे सिंह अपने रिश्तेदारों से मिलने के लिए दिल्ली आता है और घूमने के उद्देश्य से चांदनी चौक पहुंचता है। उसे यहां एक व्यक्ति मिलता है जो सस्ता मोबाइल मुहैया कराने के नाम पर भागे सिंह को ठग लेता है। मात्र 2000 रुपयों में मोबाइल के रूप में जो डिब्बा भागे सिंह को थमाया गया है उसमें पत्थर भरे होते हैं। यहां हम हास्य प्रयोग के बावजूद भागे सिंह के प्रति संवेदनशील होते हैं। बार-बार ठगे जाने पर ग्रामीण भागे सिंह शहर के हर व्यक्ति से डरता है जो उसके संपर्क में आता है। भागे सिंह द्वारा गांव वापस पहुंचकर शहर में दोबारा कदम ना रखने का प्रण लेना वास्तव में हर उस मासूम ग्रामीण का प्रण है जो शहरी कटुता का शिकार हुआ है। यहां मुझे उदय प्रकाश की तिरिछ कहानी याद हो उठी। इस कहानी का नायक भी डरते-डरते शहर पहुंचता है और जीवित व्यक्ति से लाश में तब्दील होकर गांव वापस आता है। वास्तव में यह शहरी संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है।

       भागे सिंह के साथ ही तोप सिंह की कहानी भी इसी क्रम में आती है। तोप सिंह कवि है और तुकबंदी करने में माहिर है। हास्य का एक उत्कृष्ट रूप आपको तोपसिंह के खानदान के नामकरण में भी दिखाई देगा। परदादा तमंचा सिंह है, दादा पिस्तौल सिंह है, पिता बंदूक सिंह और खुद वह तोपसिंह है। पात्रों के नामकरण में एक नई प्रयोगशीलता हमें दिखाई देती है।

         हमारे भारतीय समाज में पंडे-पुजारियों का बड़ा प्रभाव रहा है और अशिक्षित समाज में यह और अधिक है। गंडे-ताबीज के भरोसे हमारी अशिक्षित महिलाएं बच्चा पाना चाहती हैं। परिणाम स्वरूप यह ब्रह्मचारी सरीखे पंडे महिलाओं को अपना शिकार बनाते हैं। इस उपन्यास में अखंड ब्रह्मचारी के नाम से जो पुजारी है वास्तव में वह एक चोर, सट्टेबाज और चरसी है। एक मंदिर से धातु की मूर्ति चुरा कर गांव व्यस्तपुरा में पहुंचता है। चूंकि इस गांव के लोग अशिक्षित हैं तो इस चोर की कुछ कही बातें संयोग से पूरी हो जाती हैं जिसे गांव वाले भविष्यवाणी करार देकर उसे पूजने लगते हैं । हालांकि ब्रह्मचारी के रूप में उसका चरित्र नहीं बदलता और गांव की सुंदर महिलाओं पर उसकी अब भी कुदृष्टि है। दरगाह का खादिम भी उसके साथ इस प्रपंच में मिला हुआ है। जो व्यक्ति इनकी सच्चाई जान सकता है उन्हें यह अपने हथकंडो से रास्ते से हटाने में कामयाब होते हैं। वास्तव में यह प्रतीक है हमारे समाज के उन पंडों और मौलवियों का जो जनता के बीच रहकर न केवल उन्हें धार्मिक रूप से बरगलाते लाते हैं बल्कि महिला और बच्चियों को अपनी हवस का शिकार भी बनाते हैं।

         लेखक कथा के साथ-साथ विशेष टिप्पणियां भी करते चलते हैं जो समाज से लेकर राजनीतिक चेहरे को भी उखाड़ कर रख देती हैं। राजनीति में वामपंथ और दक्षिपपंथ की तर्ज पर लेखक सुविधा को भी एक पंथ के रूप में देखता हैं। यह वही पंथ है जिसे सुविधा के अनुसार मतावलंबी कभी इधर, कभी उधर जाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करता है। वास्तव में यह हमारे वर्तमान समाज का एक कटु सत्य है जो साहित्य से लेकर राजनीति तक देखने को मिलता। इस पंथ के घोर समर्थक मिल जाएंगे। इन्हें ही समाज में लुढ़कता लोटा, थाली का बैंगन आदि कहा जाता है। इनकी कोई जाति या धर्म नहीं होता। इस विषय में लेखक कहता है - सुविधा पंथ प्राणियों की जाति और धर्म सिर्फ और सिर्फ सुविधा पंथ ही होता है।

        जैसे-जैसे गांव वाले व्यस्त पुरा से विनम्र पुरा की तरफ जाते हैं अनेक कहानियां धीरे-धीरे खुलती हैं। एक कहानी दद्दा जी की भी है जो बुढ़ापे में गांव की एक लड़की पर लट्टू हो गए है। इस मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए उन्हें गांव में ही एक प्रेम गुरु भी मिल गया हैं जो आधुनिक प्रेम के तौर तरीके दद्दा को समझाता हैं। रोज डे, प्रपोज डे, चॉकलेट डे, टेडी डे के रूप में वैलेंटाइन डे का पूरा सप्ताह मनाने की दद्दा को हिदायत देता हैं। प्रेम के इन दिवसों को किस तरह से मनाने के लिए दद्दा जी आगे बढ़ते हैं यह पूरा विवरण हास्य परक है जो कथा में रोचकता पैदा करता है। वास्तव में दद्दा के माध्यम से प्रेम में यह बाजारवाद की घुसपैठ है। बाजार की पहुंच न केवल महानगरो या नगरों तक ही सीमित नही है बल्कि वह गांव की दहलीज तक पहुंच चुका है। इस बाजारवाद के कारण अब गांव का व्यक्ति छाछ नहीं कोक पीता है। ग्रामीण अनाज की रोटी नहीं बल्कि पिज्जा खाता है और गुलाब तथा चॉकलेट से वैलेंटाइन डे मनाता है। यह प्रेम के विकृत स्वरूप की पराकाष्ठा है। लेखक ने बड़े सलीके से यहां इस समस्या को उठाया है।

        लेखक ने मेडिकल साइंस में हो रही विभिन्न दवाइयों की खोज को भी अपने कटाक्ष का विषय बनाया है। डॉक्टर खोजी नामक पात्र के माध्यम से खोजी गई दवाई का इस्तेमाल व्यक्तियों को बकरी और बंदर जैसे जानवर बनाने तक पहुंचता है। यह पूरा प्रसंग बेहद हास्य व्यंग्य परक शैली में रचा गया है।

        क्योंकि लेखक साहित्यकार है इसलिए अकादमी में हो रही अनियमितताओं से वह वाकिफ है। ‘भाषा उठाओ अकादमी’ के माध्यम से वह न केवल अकादमी और उससे जुड़े हुए लोगों की पोल खोलता है बल्कि कवि और साहित्यकारों की भूमिका भी संदिग्ध है वह कैसे इन अकादमियों का सहयोग करते हैं यह भी इस उपन्यास में पढ़ा जा सकता है। 

        उपन्यास के अंतिम भाग में आकर लेखक खुद भी पुलिस वाला हो उठता है जहां वह पुलिस वाले कैसे टाइम पास करते हैं इस पर टिप्पणी करने से नहीं चूकता।

        उपन्यास के कथा के अतिरिक्त यदि पात्रों की बात करें तो संख्या थोड़ी ज्यादा भले है लेकिन जो नामकरण किए गए हैं वह हास्य की फुहार से आपको सराबोर अवश्य करेंगे। 

        जहां तक उपन्यास की भाषा का सवाल है वह पात्र अनुकूल है। जैसा पात्र है उसकी भाषा उसी परिवेश के अनुकूल गढी गई है। उदाहरण के लिए उपन्यास के मध्य में ट्रेन में बैठे हुए लोगों का एक दृश्य है जो अलग-अलग पृष्ठभूमि के हैं। एजुकेटेड महिला अंग्रेजी में ही बात करती है, साउथ इंडियन टूटी फूटी हिंदी में बोलता है, सरदार जी पंजाबी में बोलते हैं तो हरियाणवी अपनी हरियाणवी बोली में संवाद करता दिखाया गया है जो कथ्य की अनिवार्यता है।

        जहां तक उपन्यास के कलेवर का संबंध है वह 400, 500 या 700 पृष्ठों में नहीं मात्र 100 पृष्ठों में समाया हुआ है । मैं कहूंगी कि कलेवर के संक्षिप्त होने के कारण ही पठनीयता और संप्रेषणयत्ता कहीं कमजोर नहीं पड़ी है। शुद्ध मनोरंजक शैली में लिखे गए इस उपन्यास के संस्करण की पुनरावृतियां अवश्य होंगी। ऐसी मेरी इच्छा भी है और शुभकामना भी।

पुस्तक : जैसे थे

लेखक : सुमित प्रताप सिंह

प्रकाशक : सीपी हाउस, दिल्ली

पृष्ठ : 100

मूल्य : 120 रुपए 

समीक्षक : डॉ. अनीता यादव 

रविवार, 18 दिसंबर 2022

जैसे थे उपन्यास के द्वितीय संस्करण का हुआ लोकार्पण

   शोभना सम्मान समारोह के बीच सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुमित प्रताप सिंह के बहुचर्चित उपन्यास 'जैसे थे' के द्वितीय संस्करण का मंचासीन विद्वजनों द्वारा लोकार्पण किया गया। जैसे थे पर वक्तव्य की शुरुआत युवा लेखक अमित श्रीवास्तव द्वारा की गई। उन्होंने सुमित के व्यक्तित्व व कृतित्व पर बोलने के पश्चात् जैसे थे पर चर्चा करते हुए कि इस उपन्यास को बहुत रोचक शैली में लिखा गया है। सुमित हर परिस्थिति का सामना जैसे थे के साथ करते हैं। जब भी इनसे पूछो कि कैसे हैं तो इनका उत्तर होता है जैसे थे। हम आशा करते हैं कि सुमित 8 पुस्तकों की सीमा रेखा को पार कर शीघ्र ही पुस्तकों का शतक लगाएं।

इसके बाद इंस्पेक्टर सुरेंद्र शर्मा ने जैसे थे पर बोलते हुए कहा कि सुमित का जैसा व्यक्तित्व है वैसा ही उनका लेखन है। हम दोनों एक ही विभाग के हैं और जब हम एक यूनिट में साथ थे और जब भी मेरी इनसे मुलाकात होती थी तो ये अपने चेहरे पर मुस्कुराहट के साथ ही मिलते थे। इनके उपन्यास में इनकी मुस्कुराहट का प्रभाव दिखता है और अपने पात्रों व परिस्थियों से उपन्यास हास्य मिश्रित व्यंग्य को उत्पन्न करता है।

कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि सुयश कुमार द्विवेदी ने सुमित को उनके उपन्यास के द्वितीय संस्करण के लिए बधाई देते हुए कहा कि जैसे थे एक पठनीय उपन्यास है जिसे एक बार पढ़ना आरंभ करें तो समाप्त किए बिना छोड़ा नहीं जा सकता। इसकी कहानी व इसके पात्र पाठक वर्ग में रोचकता बढ़ाते हैं जो उपन्यास को अंत तक पढ़ने को विवश कर देते हैं। कार्यक्रम की विशिष्ट अतिथि डॉ. अनीता यादव ने जैसे थे पर वक्तव्य देते हुए कहा इस उपन्यास में कई कहानियां एक साथ सफर करतीं हैं। सुमित ने केवल 100 पृष्ठ के इस उपन्यास में जितने विषयों पर कटाक्ष किया है उतने विषयों को किसी 500 पृष्ठों के उपन्यास में भी नहीं उठाया गया होगा। चाहे खाली गांव वालों की कथित व्यस्तता हो या फिर शहर व शहरी जनमानस की संवेदनहीनता हो, चाहे प्रेम के नाम पर बाजारवाद हो या फिर धार्मिक आडंबर हो। सुमित की लेखनी ने इस उपन्यास में लगभग प्रत्येक विषय को लेकर कटाक्ष किया है।

मुख्य अतिथि ने कहा कि सुमित में लेखन की अपार संभावनाएं हैं।

अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए श्रीकांत सक्सेना ने कहा कि पुलिस में रहकर भी सुमित की व्यंग्य की सूक्ष्म दृष्टि है जो उनके लेखन में साफ दिखाई देती है। उनका यह उपन्यास रोचक एवं पठनीय उपन्यास है। इसमें व्यंग्य एवं हास्य की प्रचुरता है। उनका व्यंग्य में भविष्य उज्ज्वल है। 

कार्यक्रम के अंत में युवा लेखिका रुपाली सक्सेना ने सुमित को उपन्यास के द्वितीय संस्करण के लिए बधाई देते हुए निरंतर सृजन करने का आह्वान किया।

रिपोर्ट - संगीता सिंह तोमर  


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