रविवार, 16 अक्टूबर 2022

भुतहा सरकारी मकान

     जैसे एक आम आदमी के लिए सरकारी नौकरी पाने की तीव्र इच्छा होती है वैसे ही सरकारी नौकरी वाले जीव को सरकारी मकान पाने की दिली चाहत होती है। अब चूंकि सरकारी वेतन उसको और उसके परिवार को पालने में ही दम तोड़ देता है इसलिए निजी मकान के सपने देखना छोड़ सरकारी मकान को खोजना उसकी विवशता हो जाती है। वैसे देखा जाए तो सरकारी जीव के लिए सरकारी मकान अलॉट करवाना आसमान से तारे तोड़ कर लाने जितना ही आसान होता है। इस आसान काम को बहुत आसानी से पूरा करने के बाद जब उस बेचारे को इस बात का पता चलता है, कि जिस सरकारी मकान को उसने दुनिया भर के आसान उपायों को आजमा कर हासिल किया है वह तो भुतहा है तो उसका हाल धोबी के कुत्ते की भांति हो जाता है। सरकारी मकान अलॉट होने के बाद वह सरकारी जीव जिस मकान में किराए पर रह रहा होता है उसके मालिक को जल्द से जल्द मकान खाली कर सरकारी मकान में जाने की बात कह कर वह उसे धमकाते हुए एडवांस किराया देने से साफ इंकार कर चुका होता है। फलस्वरूप उसके मकान का मालिक अपने मकान को दूसरे किरायेदार से एडवांस लेकर उसके लिए बुक कर चुका होता है। अब उस सरकारी जीव के सामने केवल दो ही परिस्थितियां होती हैं कि या तो वह उस भुतहा सरकारी मकान में बस कर भूतों से दो – दो हाथ करे या फिर दूसरा किराए का मकान तलाशने के लिए जूते घिसे।

इससे पहले कि सरकारी जीव दोनों परिस्थितियों में से किसी एक का चुनाव करे आइए हम सरकारी मकान के भुतहा बनने की प्रक्रिया पर दृष्टि डाल लेते हैं।

सरकारी मकान जब कई सालों तक खाली रहता है तो उसके दो परिणाम होते हैं। पहला परिणाम होता है कि वह आसपड़ोस के लिए बहुत ही काम की वस्तु हो जाता है। पहले परिणाम के स्वरुप दूसरा परिणाम ये होता है, कि वह मकान आसपड़ोस वालों के अतिरिक्त बाकी कॉलोनी वासियों के लिए भुतहा घोषित हो जाता है।

उस भुतहा मकान में अंधेरा होते ही अजीबोगरीब आवाजें आने लगती हैं, जिनके बारे में ये बताया जाता है कि वो भूतों की आवाजें हैं। जबकि उस मकान में कभी आसपड़ोस के बेवड़े नशे में धुत्त होने के बाद लड़ते हुए कुटने-कूटने की ध्वनि उत्पन्न करते हैं तो कभी अगल–बगल के प्रेमी युगल जिगर से बीड़ी जलाने के उपक्रम में जुट कर रोमांटिक ध्वनियों के उत्सर्जन में अपना पावन योगदान देते हैं। पड़ोस के मकानों का आलतू–फालतू सामान उस भुतहा पड़े मकान की शोभा बढ़ाता है। रात में पड़ोस की भली नारियां अपना फालतू सामान भुतहा मकान में धरने के दौरान कभी–कभार जब फिसल कर धम्म से फर्श पर गिरती हैं तो गिरने के परिणामस्वरूप निकलीं उनकी चीखों को चुड़ैल की चीखें मान कर कॉलोनी के वीर निवासियों द्वारा उस स्थान से निकलने से बिलकुल परहेज कर लिया जाता है। आसपड़ोस के घरों के सामान रूपी कचरे की अधिकता से जब वायुदेव उस मकान से आवागमन करने को तिलांजलि दे देते हैं तो उस भुतहा मकान में सड़ांध के व्यवसाय में बहुत तेजी से वृद्धि होने लगती है।

अब चूंकि सरकारी जीव सरकारी कार्यालय और आम जीवन में जीवित भूतों से निरंतर जूझते हुए ही जीवन व्यतीत कर रहा होता है, इसलिए वह पहली परिस्थिति को ही स्वीकार कर सरकारी मकान में आने का निश्चय कर लेता है। उसे उस भुतहा सरकारी मकान के आसपड़ोस के भले लोगों द्वारा बहुत समझाया जाता है, लेकिन वह सरकारी जीव अपने निर्णय पर अटल रहता है। उसके अटल निर्णय के परिणामस्वरूप उस सरकारी मकान से भुतहा आवाजें आनी धीमे–धीमे बंद हो जाती हैं और उस सरकारी जीव व उसके परिवार द्वारा उस सरकारी मकान में गृह प्रवेश करने के साथ ही भुतहा आवाजें वहां से अपना बोरिया–बिस्तर समेटकर किसी अन्य खाली सरकारी मकान में जाकर डेरा डाल लेती हैं।

लेखक : सुमित प्रताप सिंह 

चित्र गूगल से साभार 

सोमवार, 10 अक्टूबर 2022

व्यंग्य की कढ़ाही चढ़ाते रामस्वरूप दीक्षित

    त्तर प्रदेश के महोबा जिले में जन्मे रामस्वरूप दीक्षित रीवा विश्वविद्यालय से कला स्नातक हैं। वह देश के विभिन्न समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में अपनी साहित्यिक उपस्थिति दर्ज करवाने के साथ - साथ लगभग एक दर्जन साझा संग्रहों के सहभागी बन चुके हैं तथा अपनी तीन स्वतंत्र पुस्तकों का सृजन कर रचनाकर्म में निरन्तर रत रहते हुए इन दिनों वह समकालीन व्यंग्य व्हाट्सएप समूह में वरिष्ठ व्यंग्यकारों के साथ बैठकर व्यंग्य की कढ़ाई चढ़ा उसमें रचना रुपी जलेबियां तलने में मग्न हैं। विसंगतियां, विद्रूता, भ्रष्टाचार, अश्लीलता इत्यादि सामाजिक बुराइयां जलेबियों का वेश धर व्यंग्य की कढ़ाही में इस दुर्भावना से कूदने को आतुर हैं, कि वे सब मिलकर उस कढ़ाही का राम नाम सत्य कर डालें, किंतु रामस्वरूप दीक्षित व उनके साथियों के साथ देश - विदेश के लेखक - साहित्यकार उनकी इस कुत्सित योजना के फलीभूत होने से पहले ही उन सबको तलकर करारी जलेबी के रूप में साहित्य प्रेमियों के समक्ष प्रस्तुत कर देते हैं। रामस्वरूप दीक्षित से हमने व्यंग्य की कढ़ाही में जलेबियां तलने से थोड़ी देर के लिए विराम लेकर हमारे कुछ प्रश्नों का समाधान करने का आग्रह किया, ताकि पाठक जन उनकी जलेबी तलने की यात्रा अर्थात साहित्यिक यात्रा को जानने का सुख प्राप्त कर सकें।

आपको जलेबी तलने माफ कीजिए लेखन का रोग कब और कैसे लगा?

रामस्वरूप दीक्षित - लेखन को मैं रोग नहीं, रोगों का इलाज मानता हूं। 1984 से लेखन के क्षेत्र में हूं। देश और समाज में हर क्षेत्र में मनुष्य या व्यवस्था निर्मित करुणाजनक व त्रासद स्थितियों में वांछित बदलाव के प्रति लोगों में चेतना जाग्रत करने के उद्देश्य से कुछ करने के विचार ने लेखन में प्रवृत्त किया। सफर जारी है और शरीर में शक्ति रहने तक जारी रहेगा।

लेखन से आप पर कौन सा अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ा?

रामस्वरूप दीक्षित - लेखन को अगर आप सोद्देश्य कर रहे हैं तो इसका प्रभाव आप या पाठकों पर सकारात्मक ही होता है। मेरे लेखन ने मुझे एक बेहतर व चेतनासम्पन्न मनुष्य बनने में मदद की।  अपने पूर्वाग्रहों से हमें हमारा लेखन ही मुक्त करता है। लेखन खुद से भी मुक्ति का मार्ग है। अपने व्यक्ति से परे जाकर ही आप ईमानदार लेखन कर पाते हैं। लेखन आपके भीतर साहस और विपरीत परिस्थितियों से लड़ने की ताकत पैदा करता है।

क्या आपको लगता है कि लेखन समाज में कुछ बदलाव ला सकता है?

रामस्वरूप दीक्षित - निश्चित ही लगता है। अगर यह न लगे तो लिखना व्यर्थ है। समाज में आज तक जो भी अच्छे बदलाव आए वे लेखन की वजह से ही। लेखन बदलाव का सबसे कारगर उपाय है। यद्यपि बदलाव की गति बहुत बार दिखाई नहीं देती क्योंकि वह , बाहरी न होकर अंतर्निहित चेतना के स्तर पर होता है , जिसका बहुत स्थूल रूप से पता लगाना संभव नहीं हो पाता। समय जैसे जैसे बीतता है , यह बदलाव साफ दिखाई देने लगता है। जरूरी नहीं कि लेखक अपने जीवन में अपने लिखे से होने वाले परिवर्तन को देख पाए। यह बात प्रतिबद्ध और ईमानदार लेखन के संदर्भ में ही कही जा रही है, क्योंकि प्रतिगामी व यथास्थितिवादी लेखन भी हर काल में होता रहा है, आज भी हो रहा है।

आपकी अपनी सबसे प्रिय रचना कौन सी है और क्यों?

रामस्वरूप दीक्षित - मैं अपनी हर रचना से बराबर प्रेम करता हूं । रचना हमारी संतान की तरह है जिसे जन्म देने में रचनाकार को , चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, गहरी और पीड़ादाई प्रसव वेदना सहन करनी होती है। फिर जन्म लेने वाली संतान कुरूप या विकलांग ही क्यों न हो उससे वैसा ही प्रेम जन्मदाता का होता है जैसा सुंदर ,सुडौल व ताकतवर संतान से। तमाम रचनाओं में से किसी एक रचना का प्रिय होना रचनाकार का खुद की अन्य रचनाओं को अप्रिय सिद्ध करना है। हर रचना की अपनी अलग पहचान, अलग व्यक्तित्व और अलग प्रभाव और रूतवा होता है। बहुत बार कोई रचना अपने रचयिता से भी बड़ी हो जाती है। किसी लेखक की सबसे प्रिय रचना उसके पाठक जी बेहतर बता सकते हैं और उसकी सबसे ताकतवर रचना के बारे में आलोचक।

आप अपने लेखन से समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं?

रामस्वरूप दीक्षित - वही जो मेरी रचनाओं में सन्निहित है। लेखक जो भी संदेश समाज को देना चाहता है वह उसकी प्रायः हर रचना में अंतर्निहित होता है। अलग से दिया जाने वाला संदेश , संदेश न होकर उपदेश होता है और मेरे अपने विचार से किसी भी लेखक को उपदेशक की भूमिका से खुद को बचाए रखना चाहिए।उ पदेशकों ने समाज का जाने, अनजाने बहुत अहित किया है और अभी भी कर रहे हैं।ले खक समाज को उपदेश या संदेश न देकर उससे सीधा संवाद करता है। उसकी हर रचना लोक को ही संबोधित होती है।

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