(कलियुग की सूपर्णखाओं के सम्मान में एक कविता)
औरतों के खौफ के साये में
इन दिनों जी रहा है आदमी
नित नए अपमान का घूँट
इन दिनों पी रहा है आदमी
दे दिया है संविधान ने
अधिकार बेशक बराबरी का
पर वो अधिकार शायद
नहीं है आदमी की बिरादरी का
अपना हाथ माथे पर धरे
ये सोचे जा रहा है आदमी
औरतों के खौफ के साये में
इन दिनों जी रहा है आदमी
कान उसके सुन रहे हैं
औरतों की चीत्कार को
पर लब न खुल पा रहे
चीत्कार के प्रतिकार को
वो जानता है कि न साथ देगा
उसके संग का ही आदमी
औरतों के खौफ के साये में
इन दिनों जी रहा है आदमी
बेबसी है दोस्त उसकी
बेचारगी अब उसके संग है
अपने इस हाल पर तो
खुद आदमी भी दंग है
इसलिए ज़ुल्म सहता रहता
मायूस हो बेचारा आदमी
औरतों के खौफ के साये में
इन दिनों जी रहा है आदमी।
लेखक : सुमित प्रताप सिंह