बुधवार, 6 नवंबर 2019

कविता : खौफ में है आदमी

(कलियुग की सूपर्णखाओं के सम्मान में एक कविता)

रतों के खौफ के साये में
इन दिनों जी रहा है आदमी
नित नए अपमान का घूँट 
इन दिनों पी रहा है आदमी

दे दिया है संविधान ने 
अधिकार बेशक बराबरी का 
पर वो अधिकार शायद 
नहीं है आदमी की बिरादरी का
अपना हाथ माथे पर धरे 
ये सोचे जा रहा है आदमी
औरतों के खौफ के साये में
इन दिनों जी रहा है आदमी

कान उसके सुन रहे हैं
औरतों की चीत्कार को 
पर लब न खुल पा रहे
चीत्कार के प्रतिकार को
वो जानता है कि न साथ देगा
उसके संग का ही आदमी
औरतों के खौफ के साये में
इन दिनों जी रहा है आदमी

बेबसी है दोस्त उसकी 
बेचारगी अब उसके संग है
अपने इस हाल पर तो 
खुद आदमी भी दंग है
इसलिए ज़ुल्म सहता रहता
मायूस हो बेचारा आदमी
औरतों के खौफ के साये में
इन दिनों जी रहा है आदमी।
लेखक : सुमित प्रताप सिंह

सोमवार, 21 अक्टूबर 2019

कविता : सच्ची दिवाली


इस दिवाली दिये जलाना
देश की सौंधी माटी के 
भूल के भी तुम मत लाना
लड़ियाँ-बल्ब चीन घाती के

अपना पैसा अपने घर में
हमें छिपा के रखना है
लघु उद्योगों की सांसों को 
हमें बचा के रखना है

लड़ी-बल्बों से कीट-पतंगे
घर के भीतर बढ़ते हैं
दिये जलाना घी के तुम 
बीमारी को ये हरते हैं

चीनी बल्बों से भारत की 
अर्थव्यवस्था टिमटिम करती है
देशी दिये अपना के देखो
कैसे ये सरपट भगती है

मँहगे मॉलों में जा-जाकर
पैसा न व्यर्थ लुटाना तुम
देसी बनिये से कर खरीदारी 
उसका आस्तित्व बचाना तुम

तब ही मनेगी देश में अपने
अच्छी और सच्ची दिवाली
अर्थव्यवस्था झूमेगी खुश हो
और फैलेगी देश में खुशहाली।

लेखक : सुमित प्रताप सिंह

चित्र गूगल से साभार 

गुरुवार, 3 अक्टूबर 2019

कविता : बिहार डूब रहा है


माचार हृदय विदारक है
बिहार डूब रहा है
जो था कभी संस्कृति का वाहक
वो बिहार डूब रहा है

प्रलय ने उत्पात मचाया
या लगा किसी प्रेत का साया
प्रकृति का प्रतिशोध है  
या फिर किसकी है ये माया
चन्द्रगुप्त सम्राट का हृदय
पीड़ा से भर पूछ रहा है  
जो था कभी आर्यावर्त का नायक  
वो बिहार डूब रहा है

राजनीति कुलटा देखो
कैसे करती हँसी-ठिठोली
मतिभ्रष्ट होकर विकास  
बोल रहा विनाश की बोली  
गुरु चाणक्य के मन-मस्तिष्क को
सूझे से भी न कुछ सूझ रहा है
जो था कभी विकास का परिचायक
वो बिहार डूब रहा है

बुद्ध के ज्ञान को जिसने
पूरे जग में फैलाया
शांति-अहिंसा का जिसने
विश्व को पाठ पढ़ाया
उस अशोक का कर्म स्थल
अव्यवस्था से जूझ रहा है
जो था कभी संस्कृति का ध्वजावाहक
वो बिहार डूब रहा है

मिल-जुल कर करें जतन
और उठायें हम सब ये बीड़ा
ये पीड़ा है नहीं बिहार की
ये हम सबकी भी है पीड़ा
तकता राह हमारी वो कबसे
आओगे कब ये बूझ रहा है
जो था कभी प्रगति का महानायक  
वो बिहार डूब रहा है 

लेखक : सुमित प्रताप सिंह  

सोमवार, 26 अगस्त 2019

कविता - नन्हा फरिश्ता


मेरे घर में आया है 
एक नन्हा-मुन्ना फरिश्ता
उसके मासूम चेहरे से 
बस प्यार ही प्यार टपकता

पूरे घर में घूमा करता 
खूब वो धूम मचा के 
उससे रखना पड़ता है
घर का सामान बचा के
मंद-मंद मुस्कुरा के वो 
जब प्यार से देखा करता
तो उसके खिले चेहरे पर
दिल जाकर ये अटकता 

मायूसी को कर दिया विदा
अब खुशी ही घर में हँसती है
उस नन्हे-मुन्ने फरिश्ते में
जान सभी की बसती है
जब पापा-पापा कहके 
वो सीने से आ चिपटता
तो पापा के दिल में फिर
स्नेह का भँवर उमड़ता।

शनिवार, 13 जुलाई 2019

जिले-नफे और ब्लेड जिहाद


- भाई नफे!
- हाँ बोल भाई जिले!
- घर में तंगी चल रही है क्या?
- मैं कुछ समझा नहीं।
- अरे भाई सैलून में हेयर कटिंग करवाने वाला साथी जब सड़क पर यूँ खुलेआम अपने बाल कटवाये तो कुछ न कुछ बात तो होगी न।
- भाई पहली बार ऐसे बाल नहीं कटवाये। ये दूसरी बारी है।
- पर मँहगे सैलून को छोड़ कर सड़क पर क्यों बाल कटवाये?
- ताकि जिंदगी का टिकट न कटे।
- भाई तेरी बात समझ में न आयी। जरा खुलके बता।
- भाई भाँति-भाँति के जिहाद की सफलता के पश्चात अपने देश मे ब्लेड जिहाद का विधिवत शुभारंभ हो चुका है।
- ये ब्लेड जिहाद क्या बला है?
- आतंकियों के स्लीपर सेल के तौर पर काम कर रहे मुस्लिम नाई उस्तरे के ब्लेड पर दूषित रक्त लगाकर विधर्मियों की शेविंग और हेयर कटिंग करते हैं और उन्हें कोई न कोई गंभीर बीमारी सादर भेंट दे डालते हैं।
- अरे बाप रे! पर इससे बचा कैसे जाए?
- मेरी तरह खुलेआम किसी खुले सैलून में हेयर कटिंग करवा।
- इस बात का क्या सबूत है कि खुले सैलून में ब्लेड जिहाद से बचाव हो जाएगा।
- खुले सैलून को चलाने वाले अधिकतर गरीब हिन्दू नाई हैं। मँहगे सैलूनों में तो काफिरों के दम पर फलफूल रहे मोमिन ही मिलेंगे।
- मतलब कि तूने गरीब हिन्दू नाई की बोनी करवाई।
- हाँ भाई, पहले तो वह रुपये लेने से इंकार कर रहा था पर मैंने उसे जबरन दे ही दिए।
- भाई तू तो उसे उसका मेहनताना दे रहा था, फिर वह इंकार क्यों कर रहा था।
- असल में उसकी दुकान को साजिश के तहत हटाया जा रहा था। बीस साल से उसी जगह जमा बेचारा नाई अपनी रोजी-रोटी छिनने की सोचकर मायूस हो चुका था।
- फिर क्या हुआ?
- फिर नफे ने इलाके के इकलौते हिन्दू नाई की रोजी-रोटी को बचाने की ठानी और इस काम में साथ दिया इलाके की चौकी के राष्ट्रवादी चिट्ठा मुंशी सुनील सैनी ने।
- भाई सुनील सैनी को मेरी ओर से भी धन्यवाद देना। अब अपना हिन्दू नाई भाई खुश तो है न।
- हाँ खुश भी है और निश्चिंत भी।
- पर तू जरा बच के रहियो।
- किससे?
- आतंकियों के स्लीपर सेल और उनके हितेषी देश के कथित सेक्युलरों से, क्योंकि उनकी आहों की गर्मी से तू शायद बच न पाये।
- हा हा हा, भाई उनकी आहों की गर्मी से राष्ट्रवादियों की वाह-वाह की ठंडक अपनी रक्षा करेगी।
- हा हा हा, ये भी तूने खूब कही।
लेखक - सुमित प्रताप सिंह

गुरुवार, 13 जून 2019

रोचक शीर्षक वाली अनूठी पुस्तक ये दिल सेल्फ़ियाना


      पुलिस का नाम लेते ही आमतौर पर लोगों के मन में किसी भ्रष्ट, कामचोर या क्रूर व्यक्ति की छवि उभरती है; कोई ऐसा व्यक्ति, जिससे गुंडे-बदमाश तो साँठगाँठ कर लेते हैं और आम आदमी घबराता है, लेकिन सब उंगलियां बराबर नहीं होतीं। अपवाद हर जगह होते हैं और सुमित प्रताप सिंह ऐसे ही एक अपवाद हैं। अपवाद इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि उन्होंने यह साबित कर दिखाया है कि पुलिस की रूखी, ऊबाऊ, बेरंग नौकरी करने के बावजूद भी कोई व्यक्ति उत्कृष्ट व्यंग्यकार और कुशल कवि भी हो सकता है। वर्दी वाले कठोर चेहरे के पीछे कोई कोमल हृदय वाला संवेदनशील कवि भी छिपा हो सकता है। बन्दूक चलाने वाले शक्तिशाली हाथ उतनी ही कुशलता से कलम भी चला सकते हैं और अपराधियों को रुलाने वाले लोग अपने व्यंग्य की गुदगुदी से पाठकों को हंसाकर लोटपोट भी कर सकते हैं। ऐसे दो विपरीत ध्रुवों के बीच कुशलता से सन्तुलन बना सकने वाले और दोनों ही क्षेत्रों में समान रूप से सफल हो सकने वाले लोग बहुत विरले ही होते हैं, इसीलिए सुमित को मैंने अपवाद कहा था।
ये विचार मेरे मन में इसलिए आए क्योंकि आज मैंने उनका व्यंग्य संग्रह 'ये दिल सेल्फ़ियाना' पढ़ा। इस पुस्तक का नाम जितना रोचक है और उस पर श्याम जगोता का बनाया हुआ मुखपृष्ठ जितना आकर्षक है, इस पुस्तक की विषय-वस्तु और सामग्री भी उतनी ही अनूठी है।
पुस्तक के प्रस्तावना में ही सुमित ने 'सेल्फ़ी रोग' के लक्षण, कारण, प्रभाव और लाभ गिनवाए हैं। उन्होंने यह भी स्वीकारा है कि इस सेल्फ़ी रोग की 'दुष्प्रेरणा' से ही उन्हें इस व्यंग्य संग्रह को ऐसा नाम देने की बुद्धि सूझी।
लेकिन यह संग्रह केवल सेल्फ़ी की महिमा बताने तक सीमित नहीं है। इसमें चुगलखोरी का वर्णन भी है, महान चित्रकार पिकासो को टक्कर देने वाले गुटखेबाजों की प्रशंसा भी है, मच्छर तंत्र की चुनौतियां भी हैं और खर्राटों वाली रेलयात्रा का वृत्तांत भी है। ऐसे विभिन्न विषयों को बड़ी कुशलता से समेटने वाले और समाज की निष्क्रियता, लापरवाही और दुर्गुणों पर करारी चोट करने वाले कुल 37 व्यंग्य लेख इसमें हैं, जो पाठक को कभी गुदगुदाते हैं, कभी अचानक कुछ याद दिलाते हैं, तो कभी बहुत कुछ सोचने पर मजबूर भी कर देते हैं। मुझे लगता है कि हर संवेदनशील और जागरूक व्यक्ति को इस पुस्तक में कुछ न कुछ अवश्य मिलेगा।
युवा लेखक, व्यंग्यकार और कवि सुमित की अनेक पुस्तकें, काव्य संग्रह और व्यंग्य रचनाएँ अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी पुस्तकों का अनेक भारतीय भाषाओं में और अंग्रेज़ी में भी अनुवाद हो चुका है। अपनी विशिष्ट उपलब्धियों के लिए उन्हें अब तक अनेक विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित भी किया जा चुका है और उनका लेखन-कार्य अभी भी अनवरत जारी है। अपने यूट्यूब चैनल के माध्यम से भी वे अक्सर अपने विचार व्यक्त करते हैं, और वे कई सामाजिक कार्यों में भी सक्रिय रहते हैं।
पुलिस की तनावपूर्ण और कठिन नौकरी के बावजूद भी सुमित अपने लेखन और काव्य रचना के लिए सतत समय निकाल पाते हैं, यह वाकई अद्भुत और प्रशंसनीय है।
उनके भावी लेखन और सफलताओं के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाएं!

पुस्तक : ये दिल सेल्फ़ियाना
लेखक : सुमित प्रताप सिंह, नई दिल्ली
प्रकाशक : सी.पी. हाउस, दिल्ली - 110081
मूल्य : 160 रुपए     पृष्ठ : 127
समीक्षक : सुमंत विद्वान्स, कैलिफोर्निया, संयुक्त राज्य अमेरिका



बुधवार, 29 मई 2019

व्यंग्य - दौरा बनाम दौर


- भाई नफे!
हाँ बोल भाई जिले!
- जो मैं देख रहा हूँ, क्या तू भी वो सब देख पा रहा है?
- तू भला क्या दिखाने की कोशिश में है?
- अरे उसी को जो धड़ाधड़ जारी है।
- क्या धड़ाधड़ जारी है?
- भाई इन दिनों विभिन्न राजनीतिक दलों में धड़ाधड़ इस्तीफों का सिलसिला चल रहा है। अब तो ये हाल है कि किसी नेता के हाथ में कोई कागज दिखे तो एक पल को ऐसा लगता है कि कहीं वह उसका इस्तीफा न हो।
- हा हा हा अच्छा लतीफा है।
- भाई अब तो इस्तीफे और लतीफे में फर्क करना मुश्किल हो गया है। इस्तीफे इतने धड़ल्ले से दिए जा रहे हैं, जितने धड़ल्ले से कवि सम्मेलनों में कविता के नाम पर लतीफे श्रोताओं को झिलवाये जाते हैं।
- भाई ये  शायद इस्तीफ़ा रूपी लतीफ़ों का दौर है।
- पर ये दौर आया कैसे?
- ये दौर दौरों के फलस्वरूप आया है।
- मैं कुछ समझा नहीं। जरा खुलके बता।
- चुनावों के दौरान नेताओं को विभिन्न प्रकार के दौरे पड़े।
- एक-दो उदाहरण तो दे।
- किसी को अपनी छिन चुकी सत्ता को बचाने का दौरा पड़ा, किसी को तानाशाही का दौरा पड़ा तो किसी को राष्ट्रवाद का दौरा पड़ा।
- भाई पहले दो दौरे तो समझ में आते हैं पर ये तीसरा दौरा भला दौरा कैसे हुआ? जहाँ तक मेरा मानना है कि राष्ट्रवाद एक पवित्र भावना है, जो अपने देश से प्रेम करने वाले हरेक व्यक्ति के दिल में बसती है।
- ये बात तेरे-मेरे जैसे लोग ही तो समझते हैं। बाकी के लिए तो राष्ट्रवाद केवल दौरा है, जो इस देश को विनाश की ओर ले जा रहा है। 
- मतलब कि राष्ट्रवाद को दौरा मानने वालों के अनुसार हमें राष्ट्रवाद को तिलांजलि देकर दुश्मन देश के चरण छूकर उससे शांति की याचना करनी चाहिए, वो अगर हमारे एक गाल पर तमाचा मारे तो अपना दूसरा गाल आगे कर देना चाहिए और देश की थाली में खाकर उसी में छेद करने वाले महानुभावों को ससम्मान अपना कार्य करते देना चाहिए।
- बिलकुल भाई, जो इन सबको स्वीकार न करे, तो उनके अनुसार उसे राष्ट्रवाद के दौरे ही पड़ते हैं। 
- भाई देश का नागरिक अब इतना बौरा नहीं रहा, कि वो कह दें और राष्ट्रवाद दौरा कहलाया जाने लगे।
- तो फिर राष्ट्रवाद को किस नाम से परिभाषित किया जाना चाहिए?
- राष्ट्रवाद ऐसा भयंकर तूफान है जिसमें देश के प्रति दुर्भावना रखने वाले सही-सलामत नहीं बचेंगे।
- तेरे कहने का अर्थ है कि राष्ट्रवाद दौरा नहीं, बल्कि अब राष्ट्रवाद का दौर है।
- बिलकुल भाई, और अब ये दौर देश में अनवरत चलता रहेगा।
- एवमस्तु!

लेखक - सुमित प्रताप सिंह

शुक्रवार, 24 मई 2019

कविता - घर


घर तब घर बनता है
जब माँ-बाप की
स्नेहिल छाया इसमें
प्रसन्न हो रहती हो
घर तब घर बनता है
जब पति-पत्नी का
विश्वास और समर्पण
एक-दूजे की बाहों में
बड़े प्रेम से रहते हों
घर तब घर बनता है
जब भाई-बहन का
स्नेह-प्रेम दृढ़ता से
इसमें टहला करता है
घर तब घर बनता है
जब संतान के हृदय में
बड़ों के आदर संग जिम्मेवारी
गहराई से बसती हो
ये सब न हों तो
घर, घर न होकर
केवल मकान ही रहता है
जिसको सदैव
प्रतीक्षा रहती  है कि
आदर, विश्वास, समर्पण
स्नेह, प्रेम और जिम्मेवारी
उससे आकर मिलें कभी
और वो मकान का चोगा तज
एक प्यारा सा घर हो जाये।

लेखक - सुमित प्रताप सिंह

रविवार, 7 अप्रैल 2019

व्यंग्य : जिले की फसल


भाई जिले!
हाँ बोल भाई नफे!
कैसे सुस्त सा हो रखा है?
भाई क्या करूँ फसल-वसल काटने का मौका ही नहीं मिल पा रहा है। अब सुस्त न होऊँ तो और क्या करूँ?
मौका नहीं मिल पा रहा हैतेरे कहने का मतलब क्या हैतेरी फसल तो कटने को तैयार खड़ी है और तू कह रहा है कि फसल काटने का मौका नहीं मिल पा रहा है।
भाई मैं बिलकुल सही कह रहा हूँ। मैं ही क्या मेरे बाकी किसान भाई भी पड़े-पड़े सुस्ता रहे हैं।
पर ऐसा क्यों?
हमारी फसल काटने को वे हैं न।
कौन वेक्या फसल काटने के लिए मजदूर रख लिए हैंअगर ऐसी बात है तो फिर तू और तेरे किसान भाई उस कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं।
कौन सी कहावत?
घर में नहीं हैं दानेअम्मा चली भुनाने।
अरे भाई ऐसी बात नहीं है।
- तो फिर कैसी बात है?
- दरअसल अब हम किसानों को मजदूर भी किराए पर लेने की जरूरत नहीं है।
फिर वे भला कौन हैं जो तुम सबकी फसल मुफ्त में काटने को इतने उतावले हो रखे हैं?
भाई इन दिनों कुछ स्वप्नसुंदरियाँ बड़ी-बड़ी गाड़ियों और हेलीकॉप्टरों से दराती हाथ में लिए हुए उतरती हैं और हमारे खेतों में खड़ी फसल काटने में जुट जाती हैं। बीच-बीच में एक भैयाजी भी आते हैं और हम सभी किसानों को हसीन सपने दिखाते हुए अपने कुर्ते की बाँह चढ़ा कर हमारे खेतों में बेगार करने लगते हैं। वे सब हमारे खेतों में मेहनत करते हैं और हम सब किसान भाई अपने-अपने घरों के आँगन में पड़े-पड़े सुस्ताते हुए अपनी-अपनी चारपाइयाँ तोड़ते रहते हैं।
तुम सबको यकीन है कि वे सभी स्वप्नसुंदरियां और हसीन सपने दिखाने वाले वो भैयाजी तुम सबकी फसल काट चुके होंगे।
हाँ भाई बिलकुल यकीन है।
तो चलके जरा अपने खेतों को भी देख ले।
जिले अपने खेतों में खड़ी फसल देखकर हैरान हो जाता है।
भाई नफे!
हाँ बोल भाई जिले!
उन स्वप्नसुंदरियों और हसीन सपने दिखाने वाले भैयाजी ने तो मरवा दिया।
इस घटना से कुछ समझ में आया?
हाँ भाई अच्छी तरह समझ में आया।
तो जो समझ में आया झट से बता डाल।
वे सभी स्वप्नसुंदरियाँ और हसीन सपनों के सौदागर भैयाजी वोटों की फसल काटने आये थे और उसे भली-भाँति काटकर अपने-अपने रास्ते निकल लिए। अब याद आया कि ऐसी स्वप्नसुंदरियाँ और ऐसे सपनों के सौदागर भैयाजी तो हमारे दादा और बापू के समय भी आये थे और ऐसे ही वोटों की फसल काटकर चंपत हो गए थे।
तो आगे से वोटों की फसल काटने वालों से सावधान रहना।
सावधान रहें भी तो भला कैसे रहें?
मतलब?
भाई अपने दादा और बापू की तरह ये जिले भी भारत की जनता का वो महान भाग है, जिसे चाहे जितना समझा लो पर वो स्वार्थ से विवश होकर वोटों की फसल काटनेवालों की चिकनी-चुपड़ी बातों में आकर फँस ही जाता है और बाद में अपना माथा पीटते हुए पछताता रहता है।
जिले दरअसल ये ही हमारे भारतीय लोकतंत्र का अद्भुत सौंदर्य है।
हा हा हा नफे ये तूने बिलकुल ठीक कहा।

लेखक - सुमित प्रताप सिंह, नई दिल्ली

चित्र गूगल से साभार 

शनिवार, 30 मार्च 2019

व्यंग्य - मिशन भक्ति का दौर


    हाल ही में देश ने मिशन शक्ति के माध्यम से पूरे विश्व में तहलका मचा दिया। अपने भले पड़ोसी देश के वजीर ए आज़म इमरान चाचा तो मिशन शक्ति की सफलता की खुशी से इतने खुश हुए कि खुशी के मारे उनकी पतलून ही ढीली हो गई। इमरान चाचा के संग-संग उनके हिंदुस्तानी भतीजों, ससुर-सालों और नातेदारों की पतलूनों ने भी ढीली होने का बखूबी फ़र्ज़ निभाया। पर खुद को हिंदुस्तान का चौकीदार कहनेवाले मुएँ ने मिशन शक्ति पर अपना एक लंबा सा भाषण देकर उन सबका खून इस कदर खौलाया कि उनकी पतलूनों के टाइट होने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। वे बेचारे तो पहले से ही देश की चौकीदारी से परेशान थे और अब अंतरिक्ष में भी चौकीदारी शुरू हो गयी। कम से कम इस मुएँ चौकीदार को इतना तो समझना चाहिए कि ये दौर मिशन शक्ति का नहीं, बल्कि मिशन भक्ति का है। अगर देश में चारों ओर नज़र दौड़ाकर देखा जाए, तो भक्ति ही भक्ति का नज़ारा देखने को मिल जाएगा। कोई अपने धर्म की भक्ति में व्यस्त है, तो कोई अपनी जाति की भक्ति में मस्त है। सब अपने-अपने धर्म और अपनी-अपनी जाति को सर्वश्रेष्ठ साबित करने के मिशन में जुटे हुए हैं। इसके लिए बाकायदा दूसरे समुदाय और जातियों के महापुरुषों और प्रसिद्ध योद्धाओं को पूरी बेशर्मी के साथ अपहृत करके उन्हें अपने समुदाय या अपनी जाति का घोषित कर सोशल मीडिया पर प्राउड टु बी फलाना समुदाय अथवा प्राउड टु बी फलानी जाति का हैशटैग चलाकर सामुदायिक और जातीय भक्ति को फलीभूत किया जा रहा है। सिर्फ सामुदायिक और जातीय भक्ति ही नहीं फल-फूल रही है, बल्कि राजनीतिक भक्ति इनसे कई कोस आगे है। राजनीतिक दल तो कई दशकों से भक्ति के सागर में डूबे हुए हैं। अब तो वे भक्ति में इतना अधिक डूब चुके हैं कि वो भक्ति, चमचई का रूप धारण कर चुकी है और ये चमचई अपने आका का मूत्रपान करने में भी गर्व की अनुभूति समझने लगी है। अब ऐसे भक्ति युग में शक्ति पर टाइम खोटी किया जाए, ये तो बिलकुल भी नहीं जमता। इसीलिए मितरों इस छोटी सी बात को ठीक ढंग से समझ लीजिए, कि इस देश को  मिशन शक्ति की नहीं, बल्कि मिशन भक्ति की आवश्यकता है। इस बात को खुद भी समझना चाहिए और अपने देश के चौकीदार प्रधानमंत्री को भी अच्छी तरह समझाना चाहिए। समझाना चइए कि नहीं?

लेखक - सुमित प्रताप सिंह, नई दिल्ली

* कार्टून गूगल से साभार 

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