हाल ही में मेरे यशस्वी मित्र सुमित प्रताप सिंह की नवीनतम पुस्तक 'जैसे थे' जो कि उपन्यास के रूप में प्रकाशित हुई है उसे पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। अमूमन ज्ञानीजन पुस्तक पढ़कर उसकी समीक्षा करते हैं, जो कि एक नितांत अलग स्तर है पर मुझ जैसे साधारण पाठक जो कुछ भी पढ़ते हैं उस पर अपनी त्वरित प्रतिक्रिया ही दे सकते हैं। देखा जाए तो लेखक और पाठक के बीच में ही कहीं पर बैठा होता है समीक्षक जो वस्तुतः पाठक को बताता है कि अमुक पुस्तक में पढ़ने योग्य क्या अच्छा या बुरा है और वहीं लेखक को बताता है कि उसने उस पुस्तक के लेखन में कहां पर गलती की, पर बात यदि पाठक से सीधा लेखक तक पहुंच जाए तो कुछ और ही बात है। इसी क्रम में मुझे भी लगा कि मैं अपनी बात सीधा सुमित तक पहुंचाऊं। वैसे तो सुमित अभी तक की लेखन यात्रा में अपने को एक विशिष्ट विधा में जिसे कि व्यंग्य कहा जाता है और जो कि सामाजिक जन-जागरण का सबसे सशक्त माध्यम है में अपने को स्थापित कर चुके हैं और एक मुकाम पर बैठे हुए दृष्टिगत होते हैं। अब बात करते हैं सुमित के उपन्यास 'जैसे थे' पर। चूंकि मैं स्वयं लंबे समय या यूं कहें कि बचपन से ही पढ़ने में एक अच्छा-खासा समय देते आया हूं तो प्रथम दृष्टि में ही यदि कोई पुस्तक मुझे आकर्षित न करे तो उसे फिर से हाथ में उठाना मेरे लिए मुश्किल हो जाता है परंतु सुमित की पुस्तक 'जैसे थे' मैंने वन-गो में पढ़ डाली। यह तो निश्चित है कि पुस्तक रोचक है और उतने ही रोचक है पुस्तक के कथानक के पात्र व स्थान। वह चाहे पत्रकार नारद कुमार हो, कवि तोप सिंह या कि विनम्रपुरा थाने का थानेदार कड़क सिंह। यहां तक कि उपन्यास के केंद्र में उल्लिखित गाँव ही अजब से नाम वाला व्यस्तपुरा है। सुमित ने इस उपन्यास में हास्य विनोद के प्रसंगों के साथ साथ पुलिस थाना, छिछले कवि, साहित्यिक अकादमियों, धार्मिक अंध श्रद्धा, समाज में व्याप्त अन्य विसंगतियों और पुजारी व दरगाह के खादिम के माध्यम से धार्मिक घालमेल पर भरपूर व्यंग्य किया है। आशा करता हूँ सुमित इसी प्रकार से अपनी लेखनी तीक्ष्ण करते रहेंगे और निरंतर अपना लेखकीय योगदान देते रहेंगे।
- धर्मेंद्र गिरी, नई दिल्ली