पांडे जी के बगल में बैठे यात्री ने उन्हें टोकते हुए कहा, “क्या
पांडे जी आपकी चाय से कोई दुश्मनी है क्या?”
“नहीं ऐसी कोई बात तो नहीं है.” पांडे जी ने उसे समझाने की कोशिश की.
उस यात्री ने शिकायती लहजे में कहा, “तो फिर चाय के नाम से आपका मुँह
क्यों उतर जाता है?”
“नहीं असल में आज मेरा चाय पीने का मन नहीं हो रहा है.” पांडे जी ने
अंगड़ाई लेते हुए कहा.
अब ये साथ वाले यात्री को कौन समझाता कि पांडे जी और चाय का नाता बचपन
से ही कितना अटूट रहा है. बचपन में ये कहावत थी, कि पांडे जी चाय की चम्मच पीते
हुए पैदा हुए थे. उनका चाय का रिश्ता अपने बड़े भाई के माध्यम से बना था. बड़े भाई
ने मजाक ही मजाक में एक दिन सात महीने के नन्हे पांडे जी को थोड़ी सी चाय क्या पिला
दी, उन्होंने चाय के स्वाद से प्रभावित होकर माँ का दूध ही पीना छोड़ दिया. अब जाने
यह चाय का ही प्रभाव था, जो उनके शरीर में चुस्ती सदैव विराजमान रहती थी. उनसे कुछ
भी काम निकलवाना हो तो बस उन्हें बढ़िया सी कड़क चाय पिला दीजिए और पांडे जी प्रसन्न
होकर काम करने को तत्पर हो जाते. बचपन से ही मेहनती होने के कारण पांडे जी अपनी
पढ़ाई का खर्चा बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर निकाला करते थे. बच्चों के माँ-बाप भी यह
भली-भांति जानते थे कि यदि अपने बच्चों को अच्छी तरह पढ़वाना है तो पांडे जी को चाय
भी बढ़िया ही पिलानी पड़ेगी. एक बार एक बालक की माँ से भूल हो गई और उसने पांडे जी
को चाय पिलाने की जरुरत नहीं समझी. उसी दिन पांडे जी ने उस बालक को ट्यूशन पढ़ाने
से संन्यास ले लिया और उस बालक के माँ-बाप के लाख मनाने के बावजूद नहीं माने.
पांडे जी के माँ-बाप ने अपने बेटे की प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें
सिविल सर्विस की तैयारी करने के लिए दिल्ली भेज दिया. पांडे जी बिहार से दिल्ली तो
पहुँच गए, लेकिन चाय की दीवानगी ने उनका साथ नहीं छोड़ा. दिल्ली में उनके साथ सिविल
सर्विस की तैयारी कर रहे उनके साथियों को उनकी चाय नामक कमजोरी का पता चल गया था और
वे अक्सर उनकी इस कमजोरी का फायदा उठाते रहते थे. लड़कों के साथ-साथ लड़कियाँ भी
पांडे जी का उनकी चाय नामक प्रेमिका से मिलन करवाने के बदले अपने नोट्स बनवाकर
पांडे जी का बखूबी इस्तेमाल करती रहती थीं.
पांडे जी के चाय प्रेम की लोकप्रियता का आलम यह था कि अक्सर उनके
मित्र चाय पार्टी का आयोजन करते रहते थे. एक बार तो ऐसी ही एक चाय पार्टी में
पांडे जी के मित्रों ने चाय को राष्ट्रीय पेय बनाने की बात छेड़ दी, जिसका पांडे जी
ने पुरजोर समर्थन किया.
चाय प्रेम का पांडे जी को घाटा ये हुआ कि उनकी मेहनत के बल पर उनके
साथी सफल होकर अपनी मंज़िल पाते रहे और पांडे जी चाय का पल्लू पकड़े जस के तस हालत
में बने रहे.
एक रोज देर रात तक पढ़ाई करते रहने के कारण पांडे जी की आँख
खुलते-खुलते दोपहर हो गई. पास का चाय वाला अपनी दुकान बंद करके कहीं गायब था. सो चाय
की तलब मिटाने के लिए पांडे जी कुछ दूर पर सड़क के किनारे स्थित चाय की दुकान पर
चाय पीने जा पहुँचे. वहाँ युवाओं की भीड़ को देखकर उन्होंने चायवाले से उस भीड़ का
कारण पूछा, तो उसने बताया कि वे युवा विपक्ष दल के हैं और सरकार के विरुद्ध
प्रदर्शन कर रहे हैं. अभी पांडे जी ने चाय के दो-चार घूँट ही लिए थे कि युवाओं ने
पुलिस पर पत्थरबाजी आरंभ कर दी. पुलिस ने भी बदले में लाठी चार्ज कर दिया. दो-चार
लाठी वहीं चाय का स्वाद लेते पांडे जी के भी पड़ गईं. लाठी खाकर युवाओं की भीड़ वहाँ
से भाग ली और उनके साथ-साथ पांडे जी भी अपने कमरे की ओर भागे. पर किस्मत को शायद
कुछ और ही मंज़ूर था. उनकी चप्पल टूट गई और उसे ठीक करने के लिए उन्हें रुकना पड़ा
और बेचारे पुलिस की पकड़ में आ गए.
हवालात में जाने से पहले उन्होंने थानेदार के बहुत हाथ-पैर जोड़े,
लेकिन वह उनकी कोई बात सुनने को तैयार नहीं हुआ. उन्होंने मित्रों के द्वारा
इधर-उधर से सिफारिश भी लगवाई, लेकिन शायद उनकी कुंडली में भगवान कृष्ण के जन्म
स्थान में हाज़िरी लगवाना ही लिखा था, सो जब कोर्ट में उनकी पेशी हुई तो जज साहब ने
उनका जेल जाने का मुहूर्त निश्चित कर दिया. अब वे उस घड़ी को कोसने लगे जब वे चाय
पीने फुटपाथ की दुकान पर पहुँचे थे और इस आफत में आ फँसे. उन्हें चाय के नाम से अब
नफरत सी होने लगी थी.
उन्होंने जेल में प्रवेश किया तो पुराने कैदियों ने उनकी खिचाई शुरू
कर दी. उन्हें आदेश सुनाया गया कि उन्हें सुबह-शाम अपने जेल वार्ड की लैट्रीन साफ़
करनी पड़ेगी और नियम से उसमें में झाड़ू से सफाई करनी पड़ेगी. पांडे जी ने ऐसा करने
से साफ़ मना कर दिया तो कैदियों ने उनकी ढंग से मरम्मत कर डाली. अब पांडे जी का
गुस्सा फूट पड़ा. उनकी आँखों से आंसुओं की धार बहे जा रही थी. रोते-रोते ही
उन्होंने ऐलान कर दिया कि चाहे उनकी जान चली जाये, पर वे ऐसा गंदा काम हरगिज न
करेंगे. उन्होंने साफ-साफ कह दिया कि जेल से निकलकर जेल में होनेवाली संदिग्ध
गतिविधियों के बारे में अपनी जेलयात्रा नामक वृतांत में विस्तार से लिखेंगे. पांडे
जी का गुस्सा देखकर पुराने कैदी नरम पड़ गए. उन्होंने पांडे जी के साथ अच्छा
व्यवहार करना आरंभ कर दिया. जबकि असल बात ये थी कि जेल में नशे का धंधा करनेवाले पुराने
कैदी इस बात से डर रहे थे, कि कहीं पांडे जी उनकी पोल खोलकर उनका धंधा चौपट न कर
दें. धीमे-धीमे पांडे जी की सज़ा के सात दिन समाप्त हो गए. उनका जेल के कैदियों के
साथ ऐसा लगाव हो गया था, कि उनसे बिछुड़ते हुए उनकी आँखें भर आईं. कैदियों ने उनसे
आग्रह किया कि यदि वो अपना जेलयात्रा वृतांत लिखें तो जेल में कैदियों द्वारा झेली
जा रहीं परेशानियों का जिक्र करना न भूलें. जेल के दादा टाइप के कैदियों ने उनके
कान में फुसफुसाकर आग्रह किया कि वो जेल में होने वाली छोटी-मोटी चिंदी चोरी का
जिक्र न करें. पांडे जी उन सबको ऐसा करने का वादा करके वहाँ से चल पड़े.
जब वो अपने कमरे पर वापस आये तो आस-पड़ोस वालों का व्यवहार उन्हें
अच्छा नहीं लगा. जेलयात्रा का तमगा मिलने से पांडे जी आस-पड़ोस में चर्चा का विषय
बन चुके थे. अब कुछ दिनों के लिए माहौल ठीक करने के वास्ते उन्होंने सोचा कि चलो
अपने माँ-बाप के पास पटना ही घूम आया जाए.
अचानक ही उनके कान में फिर से पड़ोस के यात्री की आवाज आई, “अरे पांडे
जी अब ऐसी भी क्या नाराजगी? अब हठ छोड़कर एक-एक कप चाय हो ही जाए.”
पांडे जी भी मन ही मन सोचने लगे, कि जो होना था वो तो शायद भाग्य में
होना लिखा ही था. अब इस बात पर अपनी पुरानी दिलरुबा चाय से क्या खफा होना. इतना
सोचकर उन्होंने अपने सहयात्रियों के हाथ से चाय का गरमागरम प्याला लेकर अपने कलेजे
में उतार लिया. इतने दिनों बाद अपनी चाय नामक महबूबा से मिलकर वह स्वप्नलोक में
विचरने लगे. अचानक ही किसी ने उन्हें बुरी
तरह झंझोड डाला.
वो आँख मलकर उठते हुए बोले, “कौन सा स्टेशन आ गया?”
“पटना स्टेशन आ गया है वो भी दो घंटे पहले. मैं सफाईवाला हूँ. चलो
निकलो बोगी से मुझे इसकी सफाई करनी है.” सफाईवाले ने पांडे जी को हड़कते हुए बोला.
पांडे जी हैरान हो गए उन्होंने अपना सामान चारों ओर ढूँढा पर नहीं
मिला. इसका मतलब था, कि साथ वाले यात्री के माध्यम से चाय नामक डायन एक बार फिर से
उन्हें दगा दे गई थी. अब उन्हें चाय के नाम से नफरत के साथ-साथ डर भी लगने लगा था.
कुछ समय बाद उन्हें प्लेटफार्म पर आवाज़ सुनाई दी, “चाय गरम.”
इतना सुनना था कि पांडे जी डर के मारे बोगी की सीट के नीचे घुस गए.
सुमित प्रताप सिंह
इटावा, नई दिल्ली, भारत
*चित्र गूगल से साभार