आपको लेखन का रोग कब और कैसे लगा?
सुमी लोहनी - मेरा बचपन मेरे ननिहाल में बीता। परिवार में मेरे बुजुर्ग नाना-नानी और मैं ही थे । मेरे साथ बातें करने व हँसने-बोलने के लिए कोई नहीं था । मुझे बहुत अकेलापन अनुभव होता था । उसी अकेलेपन ने मेरी पुस्तकों से दोस्ती करवा दी । ननिहाल में पढ़ने का या यूँ कहें कि साहित्यिक माहौल बिलकुल भी नहीं था। पर मुझे तो अपने नये दोस्तों यानि कि पुस्तकों से प्यार हो गया था । पुस्तक, समाचारपत्र या जो कुछ भी मुझे पढ़ने को मिलता था, मैं पढ़ती थी । अक्सर मैं छिपकर ही पढ़ा करती । मेरे नाना-नानी मुझे पुस्तकें पढ़ते देखते तो बहुत गुस्सा करते थे । मेरे द्वारा कोर्स की पुस्तकों के अलावा दूसरी कोई पुस्तक पढ़ना उन्हें पसन्द नहीं था । पर क्या करती मुझे तो साहित्य को पढ़े बिना चैन ही नहीं मिलता था। वे दोनों जितना मना करते, मुझे उतनी ही अधिक पढ़ने की इच्छा होती थी । सो छिपकर ही पढ़ती थी । इस तरह मुझे पढ़ने की लत लग गई । जब पढ़नेकी लत लगी तो लिखने का भी मन हुआ । फिर मेरे मन में जो आता, उसे मैं लिखने लगी। शायद आरंभिक दिनों के मेरे लेखन को साहित्यिक लेखन नहीं कहा जा सकता पर लेखन का आरंभ तो कह ही सकते है । चिप-छिप कर लिखते-लिखते कब साहित्यिक लेखन की शुरुआत हो गई पता ही नहीं चला। इस तरह अनजाने में ही साहित्यिक राह पर मेरे कदम चल पड़े। इस तरह लिखने का ये लाइलाज रोग उम्र भर के लिए मुझे लग गया।
लेखन से आप पर कौन सा अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ा?
सुमी लोहनी - मुझे नहीं लगता कि मेरे लेखन से मुझपर कुछ भी बुरा प्रभाव पडा हो । मुझ जैसी अन्तर्मुखी महिला के लिए लेखन से अच्छी बात और हो भी क्या सकती है।
क्या आपको लगता है कि लेखन समाज में कुछ बदलाव ला सकता है?
सुमी लोहनी - हाँ, निसंदेह मुझे लगता है कि लेखन समाज में बदलाव ला सकता है ।
आपकी सबसे प्रिय रचना कौन सी है और क्यों?
सुमी लोहनी - जैसे माँ के लिए सभी सन्तानें प्रिय होती हैं, उसी प्रकार मुझे भी अपनी सभी रचनाएं प्रिय हैं। किसी एक को अधिक प्रिय बताकर मैं बाकी रचनाओं के साथ नाइंसाफी नहीं कर सकती । हाँ पाठकों को मेरी किसी भी रचना को गुण-दोष के आधार पर अच्छा या बुरा कहने का पूर्ण अधिकार है।