बुधवार, 29 जनवरी 2025

साहित्य के मित्र डॉ. देशमित्र त्यागी


    डॉ. देशमित्र त्यागी का जन्म 15 जुलाई, 1978 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के महमूदपुर गांव में हुआ। इनके पिता स्वर्गीय श्री योगेंद्र सिंह गांव के एक कृषक एवं प्रसिद्ध समाजसेवी थे। इनका पालन-पोषण एवं माध्यमिक शिक्षा संभल तथा उच्च शिक्षा जे.एस.एच. कॉलेज,अमरोहा में संपन्न हुई। इन्होंने एम.जे.पी. रोहिलखंड विश्वविद्यालय, बरेली से संस्कृत एवं हिंदी विषय में स्नातकोत्तर एवं हिंदी विषय में विद्या वाचस्पति उपाधि प्राप्त की। इन्होंने अभी तक हिंदी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास एवं हिंदी भाषा का संक्षिप्त इतिहास, नवीन हिंदी काव्य के प्रमुख साहित्यकार एवं उनकी मुख्य रचनाएं तीन पुस्तक लिखीं हैं तथा इस समय श्री वेंकटेश्वर विश्वविद्यालय, रजबपुर गजरौला में हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत रहते हुए साहित्य से मित्रता भाव रखते हुए साहित्य सृजन में रत हैं। हमने कुछ प्रश्नों के माध्यम से इनकी साहित्यिक यात्रा के विषय में जानने का लघु प्रयास किया है।

सुमित प्रताप सिंह - आपको लेखन का रोग कब और कैसे लगा?

डॉ. देशमित्र त्यागी - मैं कोई लेखक नहीं हूं। परंतु दुख और सुख में व्यक्ति कभी रोता है, कभी हंसता है और कभी गाता है। इसी प्रकार मेरे साथ हुई एक घटना ने मुझे लिखने पर विवश किया। यह घटना मेरे मेले में गुम होने की थी, जिस पर मैंने एक संस्मरण लिखा जिसका नाम था 'यह सूरज कब निकलेगा'।

सुमित प्रताप सिंह - लेखन से आप पर कौन सा अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ा?   

डॉ. देशमित्र त्यागी - लेखन साहित्य का वह अंग है जिसमें सराबोर होकर व्यक्ति अपने मन की भावनाओं को समाज में परोसता है। चूंकि मेरे गुरु डॉ. राम अवध शास्त्री जी स्वयं एक ललित निबंधकार थे उनके आशीर्वाद से मुझ पर लेखन का अच्छा प्रभाव ही पड़ा है।

सुमित प्रताप सिंह - क्या आपको लगता है कि लेखन समाज में कुछ बदलाव ला सकता है?

डॉ. देशमित्र त्यागी - यह लेखक के स्वयं के बूते की बात नहीं है। यह तो पाठक पर निर्भर करता है कि लेखक की रचना उसे प्रभावित करती है अथवा नहीं। वर्तमान समय में कुछ लेखकों को छोड़कर अधिकांश लेखक चाटुकार हैं। संभवतः उन सभी का उद्देश्य साहित्य की सेवा करना कम और धनार्जन करना एवं प्रसिद्धि प्राप्त करना अधिक है। वैसे साहित्यकार समाज का वह जिम्मेदार व्यक्ति है, जो अंधे व्यक्ति को भी रास्ता दिखाने का कार्य करता है। इसमें परिवर्तन ग्राहय अथवा अग्राह्य भी हो सकता है।

सुमित प्रताप सिंह - आपकी अपनी सबसे प्रिय रचना कौन सी है और क्यों?

डॉ. देशमित्र त्यागी - यह सूरज कब निकलेगा नामक संस्मरण मेरी प्रिय रचना है। जैसा कि मैंने पहले ही बताया है कि मैं बचपन में मेले में खो गया था। जब मैं अपना घर ढूंढते हुए घर पहुंचा तो मेरी मां मुझे अपनी छाती से लगा कर बहुत रोई थीं। उस घटना के बाद मैंने इस संस्मरण को लिखा था।

सुमित प्रताप सिंह - आप अपने लेखन से समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं?

डॉ. देशमित्र त्यागी - प्रथम तो साहित्यकार अपने साहित्यिक कर्म को अपनाएं। समाज के लिए मेरा संदेश अपने माता-पिता की सेवा, परिवार का उचित पालन-पोषण और देश सेवा है। ये ही मेरे साहित्यिक कर्म का उद्देश्य है और सदैव रहेगा।

सोमवार, 16 सितंबर 2024

आया मौसम रोने-धोने का


    ड़ोसी राज्य में रोने-धोने का मौसम फिर से आ चुका है। जगह-जगह रोने-धोने के विधिवत कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। पड़ोसी राज्य में चुनावी घोषणा होने के बाद से ही रोने-धोने के कार्यक्रमों की आशंका सभी को थी। विधायक जी जो सत्ता का मजा सालों से लूट रहे थे, उन्हे इस बार उनकी पार्टी ने टिकट से बेदखल कर दिया। ये बेदखली उनसे बर्दाश्त नहीं हुई और उनकी आंखों से आंसुओं का सैलाब फूट पड़ा, जिसमें उनके भविष्य में अय्याशी करने के सारे सपने डूब कर बेमौत मर गए। उनके जैसे कई विधायक पूर्व विधायक होने की बात को सोच-सोच कर सुबक रहे हैं। कभी वे पार्टी हाईकमान के पैर पकड़ कर रो रहे हैं, कभी अपनी पत्नी के पल्लू में दुबक कर रो रहे हैं तो कभी प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हुए सार्वजनिक रूप से रो रहे हैं। विधायक जी के साथ-साथ सालों से विधायक बनने का सपना पाले हुए पुराने और वरिष्ठ कार्यकर्ता भी रो रहे हैं। पार्टी की नीव को अपने खून-पसीने से सींचने के बावजूद उन्हें अपनी पार्टी से आश्वासन के सिवा कुछ भी हासिल नहीं हुआ। हर बार चुनावी बेला पर वरिष्ठ कार्यकर्त्ता अपने इलाके को स्वयं को भावी विधायक घोषित करने वाले बड़े-बड़े और भारी-भरकम बैनरों व पोस्टरों से पाट देते हैं, लेकिन इन ठठकर्मों से हाईकमान नहीं पट पाता और वे बेचारे मन मसोस कर रह जाते हैं। कभी मंत्रियों के बेटा-बहू, बेटी-दामाद और नाते-रिश्तेदार उनकी योजना को पलीता लगाते हैं तो कभी बैलून कैंडिडेट आकर उनके प्लान को चौपट कर डालते हैं। वे भरकस प्रयत्न करते हैं कि पार्टी हाईकमान और पार्टी के वरिष्ठों के समक्ष स्वयं को पार्टी रत्न साबित कर सकें, पर ऐसा कुछ नहीं हो पाता और अंततः वे दहाड़े मार-मार कर रोने लगते हैं। जनता इस पूरे घटनाक्रम को देख कर मुस्कुराती है और जी भर कर खिलाती है। हालांकि उसकी ये खुशी ज्यादा दिन तक नहीं टिक पाती और चुनाव समाप्त होते ही पूर्व विधायकों और वरिष्ठ कार्यकर्ताओं से रोने-धोने की जिम्मेदारी लेकर अगले पांच सालों के लिए वो रोने-धोने के लिए विवश हो जाती है।

लेखक - सुमित प्रताप सिंह

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