पड़ोसी राज्य में रोने-धोने का मौसम फिर से आ चुका है। जगह-जगह रोने-धोने के विधिवत कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। पड़ोसी राज्य में चुनावी घोषणा होने के बाद से ही रोने-धोने के कार्यक्रमों की आशंका सभी को थी। विधायक जी जो सत्ता का मजा सालों से लूट रहे थे, उन्हे इस बार उनकी पार्टी ने टिकट से बेदखल कर दिया। ये बेदखली उनसे बर्दाश्त नहीं हुई और उनकी आंखों से आंसुओं का सैलाब फूट पड़ा, जिसमें उनके भविष्य में अय्याशी करने के सारे सपने डूब कर बेमौत मर गए। उनके जैसे कई विधायक पूर्व विधायक होने की बात को सोच-सोच कर सुबक रहे हैं। कभी वे पार्टी हाईकमान के पैर पकड़ कर रो रहे हैं, कभी अपनी पत्नी के पल्लू में दुबक कर रो रहे हैं तो कभी प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हुए सार्वजनिक रूप से रो रहे हैं। विधायक जी के साथ-साथ सालों से विधायक बनने का सपना पाले हुए पुराने और वरिष्ठ कार्यकर्ता भी रो रहे हैं। पार्टी की नीव को अपने खून-पसीने से सींचने के बावजूद उन्हें अपनी पार्टी से आश्वासन के सिवा कुछ भी हासिल नहीं हुआ। हर बार चुनावी बेला पर वरिष्ठ कार्यकर्त्ता अपने इलाके को स्वयं को भावी विधायक घोषित करने वाले बड़े-बड़े और भारी-भरकम बैनरों व पोस्टरों से पाट देते हैं, लेकिन इन ठठकर्मों से हाईकमान नहीं पट पाता और वे बेचारे मन मसोस कर रह जाते हैं। कभी मंत्रियों के बेटा-बहू, बेटी-दामाद और नाते-रिश्तेदार उनकी योजना को पलीता लगाते हैं तो कभी बैलून कैंडिडेट आकर उनके प्लान को चौपट कर डालते हैं। वे भरकस प्रयत्न करते हैं कि पार्टी हाईकमान और पार्टी के वरिष्ठों के समक्ष स्वयं को पार्टी रत्न साबित कर सकें, पर ऐसा कुछ नहीं हो पाता और अंततः वे दहाड़े मार-मार कर रोने लगते हैं। जनता इस पूरे घटनाक्रम को देख कर मुस्कुराती है और जी भर कर खिलाती है। हालांकि उसकी ये खुशी ज्यादा दिन तक नहीं टिक पाती और चुनाव समाप्त होते ही पूर्व विधायकों और वरिष्ठ कार्यकर्ताओं से रोने-धोने की जिम्मेदारी लेकर अगले पांच सालों के लिए वो रोने-धोने के लिए विवश हो जाती है।
लेखक - सुमित प्रताप सिंह