शनिवार, 25 जुलाई 2015

व्यंग्य : विकास गया तेल लेने

        
        देश की जनता इन दिनों हल्ला मचाये हुए है कि विकास कहाँ गयाएक साल हो गया पर विकास क्यों नहीं आयाअब पगली जनता को कौन समझाए कि विकास तो यहाँ है ही नहीं। अरे वो तो तेल लेने गया है। हर साल ही तो जाता है। 67 साल हो गए जाते-जाते फिर 68वें साल में भला क्यों रुकता। इसलिए इस साल भी चला गया। हालाँकि हर पाँचवें साल ये सपना दिखाया गया कि विकास कहीं नहीं जाएगा बल्कि यहीं रहेगा, लेकिन सपना केवल सपना ही बनकर रह गया और साल दर साल विकास जाता रहा तेल लेने। वैसे तो विकास हर साल ही तेल लेने जाता हैपर जाने क्यों इस साल ही इतना हो-हल्ला मचा हुआ है कि विकास को तेल लेने जाने से क्यों नहीं रोका गया। पर जब इतने सालों से विकास को जाने से कोई रोक नहीं पाया तो भला इस बार वो कैसे रुक पाता। वैसे एक बात तो है कि ये ससुरा विकास कुछ ज्यादा ही घुमक्कड़ हो गया है। अपने देश में कभी रुकता ही नहीं। इधर-उधर घूमता रहता है और हम देशवासी इसकी वापसी की राह पलकें बिछाए देखते रहते हैं। ऐसी बात नहीं है कि विकास अपने देश में नहीं रहता। वह बेशक बाहर घूमता फिरे लेकिन सरकारी फाइलों में वह सदैव विराजमान रहता है। इसलिए जब भी जनता पूछती है कि विकास कहाँ है उसके होने का सबूत दिखाओ तो सरकारी बाबू अपनी विशेष ईमानदारी से विकसित की गयी भारी-भरकम तोंद पर फाइल रखकर उसे खोलकर लल्लू जनता को फाइल में मुस्कुराते हुए विकास को दिखाकर झट से फाइल को बंद कर लेता है और बेचारी जनता इस सोच-विचार में खो जाती है कि वो तो नाहक ही परेशान थी कि देश में विकास नहीं रहता। अब उस भोली जनता को कौन समझाए कि जैसे श्रीराम माता सीता के शरीर को एक गुफा में छोड़कर उनकी छाया को अपने साथ ले गए थे कुछ वैसा ही कारनामा विकास ने भी किया है। अब ये और बात है विकास अपने असली रूप में तो तेल लेने चला गया और सरकारी फाइलों में अपना छाया वाला रूप छोड़ गया। जैसे लंकापति रावण सीता माता की छाया का अपहरण करके प्रसन्न रहता था वैसे भारत की जनता भी सरकारी फाइल में विकास के छाया रूप को देखकर मस्त रहती है। अब सोचनेवाली बात ये है कि विकास तेल लेने तो गया है पर वो कौन सा तेल लाएगाअब इसमें भी सोचने की बात है। हर बार ही तो लाता है भांति-भांति प्रकार के तेलक्योंकि अलग-अलग लोगों को भिन्न-भिन्न प्रकार के तेल की आवश्यकता होती है। सो विकास हर बार की तरह इस बार भी कई प्रकार के तेल लाएगा। विकास चमेली का तेल लाएगा उन लोगों के लिए जो हमेशा इसकी खुशबू में खोकर आनंदित रहते हैं और उन्हें दीन-दुनिया की न तो कोई खबर रहती है और न ही कोई मतलब। वह हर साल की तरह इस साल भी उन माननीय महोदयों के सिर में चमेली का तेल लगाएगा और वे सब चमेली के तेल के प्रेमी चमेली बाई बनकर विकास के आजू-बाजू ही नाचेंगे। विकास के देश में न रहने को दिन-रात कोसनेवाले महानुभावों के लिए वह सरसों का तेल लाएगा। पहले तो उन महानुभावों की हड्डियों को चटकाकर उनकी मरम्मत करते हुए उन्हें भाव विहीन बनाया जाएगा फिर प्रेमपूर्वक सरसों के तेल से उनके शरीर की मालिश की जायेगी। सरसों के तेल से इनके शरीर की मालिश होने से उनकी सारी थकान जाती रहेगी और उनकी विकास के न रहने की शिकायत भी ख़त्म हो जायेगी। हो सकता है कि शिकायत दूर होने का कारण फिर से हड्डियाँ चटकाए जाने का डर ही हो। विकास धतूरे का तेल उन लोगों के लिए लाएगा जो विकास का नाम ले-लेकर सरकार को आये दिन आँखें दिखाते रहते हैं। धतूरे के बीजों के तेल को दिव्य तेल बताकर दिया जाएगा तथा इसमें तेजाब मिलाकर इसे और दिव्य बनाया जाएगा। इस दिव्य तेल को सरकार को आँखें दिखाने की धृष्टता करनेवालों की आँखों में डालकर न रहेगा बाँसन बजेगी बाँसुरी’ की कहावत को चरितार्थ किया जाएगा। विकास द्वारा बादाम का तेल उन तथाकथित बुद्धिजीवियों को भेंट स्वरुप दिया जाएगाजिनकी तीव्र बुद्धि सदा यह सिद्द करने को तत्पर रहती है कि विकास तो देश में थाहै और सदैव रहेगा। बादाम का तेल उन तथाकथित बुद्धिजीवियों की बुद्धि में और अधिक वृद्धि करेगा। विकास द्वारा मिट्टी का तेल उन लोगों के लिए लाया जाएगा जो लोकतंत्र के प्रहरी होने का दावा करते हैं और चौथे खंबे की शक्ति प्रदर्शित करते हुए सत्ता के गलत कार्यों के विरुद्ध लिखते हुए लोकतंत्र की भावना को जीवित रखने को प्रयासरत रहते हैं। ऐसे लोगों को मिट्टी का तेल डालकर सरेआम जला दिया जाएगा। उनके साथ लोकतंत्र भी तड़प-तड़पकर मर रहा होगालेकिन डर के मारे देश की बहादुर जनता कुछ भी नहीं कहेगीबल्कि एक स्वर में बोलेगी कि अपना देश तो विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और विकास है इसका मस्तक। जबकि असल में लोकतंत्र तो मृत्युशैया पर पड़ा हुआ अपनी अंतिम साँसें गिन रहा होगा। और विकास वो तो चला जाएगा फिर से तेल लेने। 
लेखक: सुमित प्रताप सिंह

ई-1/4, डिफेन्स कॉलोनी पुलिस फ्लैट्स,
नई दिल्ली- 110049
कार्टूनिस्ट : श्री राम जनम सिंह भदौरिया 

शुक्रवार, 24 जुलाई 2015

व्यंग्य : अगले जनम मोहे ठुल्ला ही कीजो


    हे प्रभु मैं तुम्हारी भक्ति में अक्सर खोया रहता हूँ और अपने आपको धिक्कारते हुए अपने आपसे अक्सर ये सवाल पूछता हूँ कि मैं आखिर क्यों नहीं आपसे अपनी भक्ति की कीमत वसूलता? कलियुग में पैदा होकर भी कलियुगी इच्छाएँ मुझसे एक कोस दूर क्यों रहना चाहती हैं? पर आज मेरे मन में कलियुगी शक्ति प्रभाव जमाकर मुझे आपसे कुछ न कुछ माँगने को विवश कर रही है। अब आप विचार करेंगे कि ऐसा अचानक मेरे साथ आखिर क्या हुआ जो कुछ न माँगने की इच्छा रखनेवाला मेरा मन क्यों याचक बनने को उतारू हो गया? प्रभु अब आपसे क्या छिपाना। हमारे प्रदेश में एक माननीय महोदय आम आदमी के उद्धारक के रूप में प्रकट हुए थे। हालाँकि वो दूसरों को दानव और अपने आपको महामानव घोषित करते फिरते हैं किन्तु मुझे व मेरे प्रदेश वासियों को उनके मानव होने में भी शंका होती है और उनकी उछल-कूद देखकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे मानव अपनी उत्पत्ति के प्रारंभिक चरण में वापस पहुँच गया है। उन्हीं माननीय महोदय ने ऑफिशियल तौर पर मेरे जैसे तमाम पुलिसकर्मियों को ठुल्ला घोषित किया है। अब आप पूछेंगे कि ये ठुल्ला कौन सा शब्द है? प्रभु वैसे तो आप सर्वज्ञाता हैं फिर भी आपको ठुल्ला शब्द के विषय में विस्तार से बताना इसलिए आवश्यक है क्यों इसी बहाने कलियुग के स्वघोषित प्रभुओं का भी कुछ ज्ञानवर्धन हो  जाएगा।
प्रभु गाँव, गली या किसी घर के बाहर गाँव के कुछ नाकारा व निठल्ले अक्सर अपना समय बर्बाद करते हुए बैठे मिल जाते हैं। गाँव के लोगों पर आते-जाते फब्तियाँ कसना या फिर गाँव की लड़कियों से छेड़छाड़ करना तहत इसके बाद पिटकर अपनी हरकत का खामियाजा भुगतना इनके शगल होते हैं। गाँववाले ऐसे लोगों को ठलुआ की संज्ञा से सुशोभित करते हैं। इसी ठलुआ शब्द का जब शहरीकरण किया गया तो ठुल्ला शब्द की उत्पत्ति हुई, जिसे उन माननीय महोदय ने वैश्विक शब्द बनाने की ठान ली और हम पुलिसकर्मियों को इस शब्द से सुशोभित कर दिया।
हालाँकि सुना है कि ये माननीय महोदय पढ़े-लिखे हैं और हमारे प्रदेश की सत्ता हथियाने से पहले बड़े सरकारी अधिकारी भी रह चुके हैं, किन्तु उनकी सम्मानजनक भाषा से हमारा पापी मन इस बात से शंकित हो उठता है कि अपनी पार्टी के कुछ सम्मानीय सदस्यों की भाँति कहीं उनकी डिग्री भी तो...? बहरहाल उन्होंने हम पुलिसजनों को ठुल्ला कहा होगा तो कुछ सोच कर ही कहा होगा। क्या पता उन्होंने हमें नौकरी पर देर से जाते और जल्दी घर आते देखा हो या फिर होली, दीवाली, ईद, क्रिसमस या फिर किसी अन्य भारतीय त्यौहार को अपने घर पर मस्ती मारते देखा हो अथवा उन्होंने कोई दिवा स्वप्न देखा हो कि कम ड्यूटी करते हुए पुलिसकर्मी भारी-भरकम वेतन का मजा लूट रहे हैं और अपनी नौकरी पर समय बर्बाद करने की बजाय अपने बीबी-बच्चों संग ऐश करने में मदमस्त हैं। उन्हें कहाँ फुरसत है कि वो ये जानने की कोशिश करें कि कई पुलिसवाले ऐसे भी जिन्हें अपने बच्चों से बात किये हुए कई महीने गुज़र जाते हैं। कारण जब वो देर रात घर जाते हैं तो बच्चे सोते हुए मिलते हैं और सुबह उन्हें सोता हुआ ही छोड़कर ड्यूटी के लिए निकलना पड़ता है। उन माननीय महोदय को शायद ये भी न ज्ञात हो कि किन-किन विषम परिस्थितियों में एक पुलिसवाले को नौकरी करनी पड़ती है।
बहरहाल उन माननीय महोदय ने ठुल्ला नामक शब्दभेदी बाण चलाकर विश्व के सामने पुलिसकर्मियों को खड़ा कर दिया है। अब शायद लोग पुलिसवालों की परेशानियों और दिक्कतों को समझने का प्रयास करें तथा सरकार को भी अहसास हो कि देश की सड़कों, मोहल्लों और गलियों में दिन-रात भटकनेवाला पुलिसवाला भी मानव की श्रेणी रखा जा सकता है और उसे सुविधाओं के नाम पर कुछ सहूलतें दी जा सकती हैं। फिर शायद पुलिसजनों का जीवन बेहतर जीवन की श्रेणी में आ सके।
इसलिए हे प्रभु चाहे मेरे अन्य साथी अगले जन्म में ठुल्ला बनने से परहेज करें, किन्तु मैं तो आपसे बार-बार, हर बार यही कामना करूँगा कि अगले जनम मोहे ठुल्ला ही कीजो। क्या करूँ मुझे इस खाकी वर्दी से इतना लगाव हो गया है बार-बार खाकी अवतार लेने का ही मन करने लगा है। फिर चाहे मुझे अगले जनम में भी ड्यूटी के दौरान धकियाया, मुक्कियाया या लतियाया जाए या फिर जुतियाया अथवा लठियाया जाए पर मेरे मन में इस बात का संतोष रहेगा, कि मैंने वास्तव में इस देश व देश की जनता के लिए कुछ किया न कि ऊल-जलूल हरकतों और अपशब्दों का पिटारा लिए हुए माननीय महोदयों या फिर कहें कि असली ठुल्लों की भाँति बयानबाजी व धरने-प्रदर्शनों में खोये रहकर जनता को सिर्फ और ठगने का कार्य किया। तो प्रभु आप मेरी प्रार्थना स्वीकारेंगे न। क्या कहा कौन सी प्रार्थना? अब प्रभु दिल्लगी छोड़ भी दीजिये। आपसे रोज ही तो करता हूँ अरे वही इकलौती प्रार्थना "अगले जनम मोहे ठुल्ला ही कीजो"।

लेखक : सुमित प्रताप सिंह 

शुक्रवार, 17 जुलाई 2015

व्यंग्य : कागा अब बोले नहीं मुंडेर पे


   हुत दिन गुज़र गए पर अपनी मुंडेर पर कोई कागा अर्थात कौआ काँव-काँव करते नहीं दिखा। एक वो भी दिन थे जब अक्सर कौए काँव-काँव करते मुंडेर पर दिख जाते थे और हम बालक चीखते हुए उनसे कहते थे ‘उड़ जा कौआ चाचा आते हों’ या फिर ‘उड़ जा कौआ मामा आते हों’। सच कहें बेशक हम इतने बड़े हो गए लेकिन बचपन दिल में अभी भी जीवित है और ये बचपन अक्सर जिद करता है कि हमारी मुंडेर पर कोई कौआ आकर बैठे और जोर से काँव-काँव करे और फिर हम चीखकर बोलें ‘उड़ जा कौआ कोई अपना आता हो’। पर दिल की बात दिल में ही रह जाती है और कोई कौआ मुंडेर की ओर मुंह भी नहीं मारता और ये बचपन दिल के भीतर ही बैठा हुआ तड़पता रहता है। आजकल कौए भी ईद के चाँद बन चुके हैं वो साल में दो बार दिख भी जाता है लेकिन ये कौए तो साल में एक ही बार दीखते हैं वो भी श्राद्धों में। आखिर कौओं ने घर पर आना और आकर मुंडेर पर बैठकर काँव-काँव करने की परम्परा का त्याग क्यों कर दिया? कहीं उन्हें भी कलियुगी संस्कृति ने अपनी छत्रछाया में जगह तो नहीं दे दी जो वो दूत बनना छोड़कर यूँ अचानक लापता हो गए। फिर मन सोचता है कि कौए बेचारे भी क्या करें आज के युग में बेटा बाप का नहीं रहा, भाई को भाई फूटी आँख नहीं सुहाता तो रिश्तेदार अपने दूसरे रिश्तेदारों को सीधी आँख भला कैसे देख सकते हैं? जैसे-जैसे समय बीत रहा है, लोगों की आशाएँ विशाल और ह्रदय सिकुड़कर छोटे होते जा रहे हैं और उन सिकुड़ते हृदयों में रिश्तेदार तो कभी रह ही नहीं सकते। पहले रिश्तेदार एक दूसरे के सुख-दुःख के साथी होते थे। मुसीबत के समय अपने रिश्तेदार के कंधे से कन्धा मिलाकर खड़े हो जाना सच्चे रिश्तेदार की निशानी होती थी। पर समय के कोल्हू ने रिश्तेदारी को ऐसा पेरा कि न तो सच्ची रिश्तेदारी सलामत बची और न ही सच्चे रिश्तेदार। छोटे-छोटे स्वार्थ की खातिर रिश्तेदार का राम नाम सत्य तक कर देने को तत्पर रिश्तेदारों को रिश्तेदारी का र भी ठीक ज्ञात नहीं रहा हो तो कौए बेचारे क्या करें? वो कैसे पता लगायें कि घर आनेवाला वाकई में रिश्तेदार है क्योंकि उसके हृदय में तो रिश्तेदारी नामक तत्व पहले ही तार-तार हो चुका मिलता है। शायद इसीलिए कोई कौआ भूले-भटके घर की मुंडेर पर बैठ भी जाए तो किसी रिश्तेदार के आने की सूचना देने को काँव-काँव नहीं करता। असल में उसे रिश्तेदार के दिल में वो पुराना प्रेम व स्नेह दिखाई ही नहीं देता इसलिए उसके भीतर काँव-काँव कर ख़ुशी मनाने की भावना भी दम तोड़ देती है। इसलिए कौओं ने अब काँव-काँव करना छोड़ दिया है। शहरों में बड़े-बड़े मकानों और संकुचित दिलों वाले भले लोग भी भला कहाँ कामना करते हैं कि कोई कौआ काँव-काँव करे और कोई रिश्तेदार आ टपके तथा उनकी व्यस्तता में खलल डाल दे। इसलिए उन्होंने अपने घर की मुंडेर पर काँच या लोहे के कंटीले तार लगाकर कौओं को वहाँ बैठने से अवरुद्ध कर दिया। अब कौओं को भी मुंडेर पर काँव-काँव कर मेहमान या रिश्तेदार के आने का संदेशा देने का चाव नहीं रहा है। अब वे अपना समय या तो किसी लाश का माँस नोंचने में व्यतीत करते हैं या फिर मनुष्य का वेश धरकर किसी सदन में जाकर काँव-काँव करने लगते हैं।


लेखक : सुमित प्रताप सिंह  

कार्टून गूगल बाबा से साभार 

गुरुवार, 9 जुलाई 2015

लघु कथा : हिसाब





    रिंग रोड के मेडिकल फ्लाई ओवर से पहले एक आदमी को लिफ्ट के लिए विवशता में चिल्लाते देख भूपेन्द्र की बाइक में अचानक ब्रेक लग गए हालाँकि उसकी बाइक में ब्रेक लगने का मतलब था कि आज ऑफिस के लिए लेट होना और लेट लतीफी के लिए ऑफिस में सीनियर की हिदायत भरी डांट सुनना फिर भी अपनी आदत से बाज न आते हुए भूपेन्द्र बीच सड़क पर बाइक रोकते हुए बुदबुदाया, “लगता है बेचारे की बस छूट गयी है वैसे भी बस ज्यादा दूर नहीं गई है बस कुछ पलों में ही अपनी बाइक के पीछे होगी
वह आदमी बाइक पर बैठते ही गिडगिडाया, “भाई वो टाटा सूमो वाला मेरा बैग लेकर भाग रहा है प्लीज उसका पीछा करो
भूपेन्द्र तेजी से बाइक भगाते हुए फिर बुदबुदाया, “ये साला टाटा सूमो वाला तो आई.एन.ए. की ओर जा रहा है और अपन को जाना है मोतीबाग यानि कि आज डांट तो पक्की. पर किसी मदद करने के आगे डांट खाना छोटी-मोटी बात है। पर इस बन्दे का बैग टाटा सूमो में क्या कर रहा है?” भूपेन्द्र ने उस आदमी से पूछ ही लिया, “भाई साहब आपका बैग टाटा सूमो में कैसे रह गया?”
“क्या बताऊँ भाई ऑफिस को लेट हो रहा था। जब कोई बस नहीं मिली तो इस टाटा सूमो की सवारी बनना पड़ा। मेडिकल पर पैसे खुल्ले करवाकर ड्राइवर को दे रहा था। जब पीछे मुड़कर देखा तो वहाँ गाडी ही नहीं थी।“ उस आदमी ने एक सांस में ही पूरी घटना बता डाली।
भूपेन्द्र ने उसे सांत्वना दी, “कोई दिक्कत नहीं। देखें वो साला कहाँ तक भागता है।“
कुछ देर में ही टाटा सूमो के बगल में बाइक खडी थी और वह आदमी अपना बैग उसमें से निकालकर उसके ड्राइवर की माँ-बहन एक कर रहा था टाटा सूमो के ड्राइवर के माफ़ी मांगकर वहां से चले जाने के बाद वह आदमी भूपेन्द्र की ओर मुड़ा और बड़ा अहसानमंद होते हुए बोला, “भाई आपका बहुत-बहुत धन्यवाद आपने मेरा हजारों का नुकसान होने से बचा लिया
भाई साहब धन्यवाद की कोई जरुरत नहीं है मैंने तो अपना हिसाब चुकाया था” भूपेन्द्र ने मुस्कुराते हुए कहा
उस आदमी ने हैरान हो पूछा, “कौन सा हिसाब?”
“एक बार मैं भी बड़ी मुसीबत में फँसा हुआ था, तब एक भले इन्सान ने मुझे उस मुसीबत से निकाला था मैंने भी उसे जब धन्यवाद करना चाहा तो उसने कहा था किसी मुसीबत के मारे की मदद कर देना हिसाब चुक जाएगा अब मैंने तो अपना हिसाब चुका दिया अब आप अपना हिसाब चुकाएँ या न चुकाएँ ये आपकी मर्जी” इतना कहकर भूपेन्द्र ने अपनी बाइक अपने ऑफिस की ओर दौड़ा दी
तभी उसे पीछे से उस आदमी की तेज आवाज सुनाई दी “भाई हिसाब जरुर चुकाया जायेगा
   
लेखक : सुमित प्रताप सिंह   
चित्र गूगल से साभार

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