गुरुवार, 18 अप्रैल 2024

साहित्य का प्रसाद बांटते डॉ.जय शंकर शुक्ल

    पेशे से प्रवक्ता व हृदय से साहित्यकार डॉ जय शंकर शुक्ल राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के शिक्षा निदेशालय में कर्मरत हो साहित्य साधना करते हुए समाज में साहित्य का प्रसाद बांटने में वर्षों से जुटे हुए हैं। अपने मन-मस्तिष्क की भट्टी में समाज के विभिन्न विषय रूपी अन्न को अच्छी तरह भूनकर उसका आटा बना कर व उसमें अपना लेखकीय कौशल रुपी बूरा मिला कर उसकी पंजीरी बना उसे प्रसाद के रूप में देश के हिंदी साहित्य प्रेमियों को बांटने में कई वर्षों से मग्न हैं। शुक्ल जी द्वारा किए साहित्यिक यज्ञ के परिणामस्वरूप इन्हें अनेक साहित्यिक पुत्रों एवं पुत्रियों की प्राप्ति हो चुकी है जो इनके नाम की पताका साहित्य जगत में फहरा रहे हैं। अब तक शुक्ल जी ने लगभग 150 कहानियों की रचना की है, जो अब तक 13 कहानी संग्रहों के रूप में प्रकाशित भी हो चुकी है। साथ ही साथ इनके चार उपन्यास अधूरा सच, पराए लोग, मोरपंखी इंद्रधनुष एवं भावना के स्वर प्रकाशित हो चुके हैं एवं दो उपन्यास प्रकाशन क्रम में है। इसी तरह 14 कविता संग्रह, दो साक्षात्कार संग्रह, समीक्षा और आलोचना की कुल मिलाकर इनकी 40 से अधिक पुस्तकें अब तक प्रकाशित हो चुकी है। हमने कुछ प्रश्नों के माध्यम से इनकी साहित्यिक यात्रा के विषय में जानने का लघु प्रयास किया है।

सुमित प्रताप सिंह - आपको लेखन का रोग कब और कैसे लगा?

डॉ जयशंकर शुक्ल - सुमित जी, जहां तक लेखन की बात है यह मुझमें वंशानुगत है। प्रारंभ से ही अपने साथ घटित घटनाओं को कहीं लिखकर रख लेने की एक प्रवृत्ति रही है। अब यह प्रवृत्ति कितनी सही है अथवा कितनी गलत इसके बारे में तो मैं कुछ नहीं कर सकता। हां इतना जरूर कहूंगा की धीरे-धीरे यह प्रवृत्ति स्थाई होती चली गई। और यह अपने साथ कुछ नए-नए रास्तों को भी बनाती चली गई। यदि आपके प्रश्न के अनुसार लेखन को रोग कहें तो अब यह रोग स्थाई हो चुका है और सुख देने लगा है। 

सुमित प्रताप सिंह - लेखन के प्रारंभिक काल में आपने कौन सी विधा में लेखन किया?

डॉ जयशंकर शुक्ल - मित्र, यदि इसे किसी रचना से केंद्रित करके देखा जाए तो मेरे जीवन की सबसे पहली रचना एक उपन्यास के रूप में रही। लेखक के जीवन में उसकी पहली कृति सबसे महत्वपूर्ण होती है इसलिए नहीं कि वह पहली है बल्कि इसलिए कि वहां से उसकी यात्रा प्रारंभ होती है और इस यात्रा के विभिन्न पड़ावों को जब समीक्षा की दृष्टि से देखा जाए तो ऐसे में जो हालात हमारे सामने उद्घाटित होते हैं वह पहली कृति के आधार भूमि को लेकर ही आगे बढ़ते हैं।

सुमित प्रताप सिंह - लेखन से आप पर कौन सा अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ा?

डॉ जयशंकर शुक्ल - अच्छा प्रभाव पड़ा अथवा बुरा प्रभाव पड़ा यह कहना मेरे लिए कठिन है। लेकिन इतना जरुर कहना चाहूंगा कि लेखन अब जीवन बन गया है। आपाधापी के आज के संसार में समाज के द्वारा मिलने वाले खट्टे-मीठे अनुभवों को लिख पाना व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि है। यदि कुछ और साफ लहजे में कहा जाए तो यह एक सात्विक व्यसन बन चुका है। लेखन ने जीवन को परिष्कृत होने में भी मदद की है अपने पूर्व और बाद के जीवन का अवलोकन करने पर मैं कह सकता हूं कि मेरे लेखन ने मैं जो कुछ भी हूं वह मुझे बनाया है। अब यह समाज की तरफ बात जाती है कि वह मुझे अच्छा मानती है तो लेखन का मुझ पर अच्छा प्रभाव पड़ा। और यदि समाज मुझे बुरा मानती है तो लेखन का मुझ पर बुरा प्रभाव पड़ा। मैं समझता हूं इतनी साफगोई के साथ मैं अपना जवाब दे पा रहा हूं।

सुमित प्रताप सिंह - क्या आपको लगता है कि लेखन समाज में कुछ बदलाव ला सकता है?

डॉ जयशंकर शुक्ल - समाज हम सबको साथ लेकर बनता है समाज का परिवर्तन बहुत ही धीमी गति से होता है वास्तव में समाज परिवर्तनशील है और यह परिवर्तन कई कर्म द्वारा संभव हो पता है लेखन इन सब में एक कारण हो सकता है जब हम किसी भी साहित्यिक रचना को आकार प्रदान करते हैं तो उसमें समाज की भूमिका कई रूपों में निश्चित तौर पर होती है और प्रेरणा से लेकर सबक तक यह रचनाएं समाज को निरंतर प्रदान करती रहती है समाज इससे सबक लेकर के स्वयं में सुधार करें तो समाज सुधार जाता है वहीं यदि समाज इसके नकारात्मक पक्षों को अपनाता है तो हम यह कैसे कह पाएंगे कि यह रचनाएं समाज सुधार कर रही है।

सुमित प्रताप सिंह - आपकी अपनी सबसे प्रिय रचना कौन सी है और क्यों?

डॉ जयशंकर शुक्ल - सुमित जी, एक रचनाकार से उसके जीवन में सबसे कठिन प्रश्न यदि कोई है तो वह यही है जो आप पूछ रहे हैं। रचनाकार की सभी रचनाएं उसे प्रिय होती है। उसमें कम प्रिय अथवा अधिक प्रिय का कोई मानक ही नहीं है। रचनाकार जब किसी रचना को आकार देता है तो एक तरह से वह सृजन करता है। और यह सृजन उसके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य होता है, जो उसे संतुष्टि प्रदान करता है। संतुष्ट प्रदान करने वाला कोई भी कार्य किसी भी व्यक्ति के लिए छोटा अथवा बड़ा नहीं हो सकता ऐसा मेरा प्रबल मत है। मैंने अपने अब तक के साहित्यिक जीवन में हिंदी साहित्य के विविध रूपकारों में अपनी रचनाओं को आकार दिया है। सबसे प्रिय रचना अगर कहे तो अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद जी के जीवन पर लिखित 12 सर्गों का महाकाव्य क्रांतिवीर आजाद मुझे सबसे अधिक प्रिय है। और मेरे दिल के करीब है।

सुमित प्रताप सिंह - आप अपने लेखन से समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं?

डॉ जयशंकर शुक्ल - मित्रवर, समाज को संदेश दे सकूं अपने आपको इस लायक मैं नहीं समझ समझता। समाज एक ऐसी इकाई है जो संदेश-निर्देश की परिधि से काफी अलग है। एक व्यक्ति उस समाज रूपी इकाई का एक सदस्य है जो अपने कार्यों के द्वारा अपने समाज में अपना योगदान प्रदान करता है और इस योगदान के आधार पर उसका मूल्यांकन करते हुए सामाजिक संस्थाएं उसका अभिनंदन करती हैं। मेरे अपने विचार से सामाजिक ताने-बाने में व्यक्ति नहीं अपितु उसके कार्य महत्वपूर्ण होते हैं। आपने अपने प्रश्नों के द्वारा मुझे अपने विचार व्यक्त करने का जो अवसर दिया उसके लिए मैं आपका हृदय से आभारी हूं।

रविवार, 24 सितंबर 2023

व्यंग्य: भक्षक बनाम रक्षक पुलिस


     मार्केट में एक कथित जिम्मेदार माँ से जब अपने बच्चे की शरारतों का बोझ न संभाला गया, तो वह उस मार्केट में गश्त लगा रहे दो पुलिस वालों की ओर इशारा करते हुए अपने बच्चे से बोली। 

माँ – चुप हो जा शैतान वरना तुझे सज़ा दूँगी । उन पुलिस वालों से तुझे पकड़वा दूँगी । वे तुझको जेल में डाल कर खूब डंडे लगाएंगे। फिर तुझको अपनी माँ के ये बोल याद आएंगे। 

गश्त लगा रहे पुलिस वालों, जिनका नाम जिले और नफे था, ने जब ये सुना तो नफे बोला – ये महिला भी गजब ढाती है, बच्चे को हम जैसे सीधे-सादे पुलिस वालों से डराती है । 

जिले – चलो मिलकर लेते हैं इस नारी की क्लास, ताकि भूल जाए करना ऐसी बकवास ।  

दोनों पुलिस वाले उस महिला और उसके बच्चे के पास टहलते हुए पहुंचते हैं । बच्चा उन दोनों को देखकर डर के मारे काँपने लगता है। 

नफे – मैडम, देश को भविष्य को क्यों बिना बात में डराती हैं? हम रक्षक पुलिस वालों को भक्षक क्यों बताती हैं? 

जिले – आपको पता है कि कुछ दिनों पहले हुआ था एक प्रकरण, जिसमें एक बच्चे का कुछ शैतानों ने कर लिया था अपहरण।

माँ – अच्छा ऐसा कैसे हुआ था? अपहरण के बाद उस बच्चे का क्या हुआ था? 

नफे – उस बच्चे की माँ भी आप जैसी ही जिम्मेदार और भली थी । उसने भी अपने बच्चे को खिलाई पुलिस के डर की मोटी डली थी ।    

जिले – जब उस बच्चे का अपहरण करके कार में ले जाया जा रहा था, उस समय बगल  से पुलिस वालों को कहीं इंतज़ाम देने के लिए ले जाया जा रहा था।

माँ – फिर क्या हुआ?

 नफे – चूंकि उस बच्चे की माँ भी आप जैसी थी महान, इसलिए अपहरण करने वालों के काम में नहीं आया व्यवधान।

माँ – मतलब?

जिले – मतलब कि वह बच्चा पुलिस को देख कर बुरी तरह डर गया. और आपने शोले फिल्म में गब्बर सिंह वो का डायलॉग तो सुना ही होगा ‘जो डर गया सो....’

माँ – नहीं नहीं अब आगे कुछ मत बोलिए। मेरी बेवकूफी को बेवकूफी मान कर ही छोड़िए। आगे से न होगा ऐसा गलत काम। बेटा, पुलिस वाले अंकलों को बोल राम-राम!

बच्चा – दोनों अंकल जी को राम-राम! 


जिले और नफे – राम-राम! आगे से अपनी माँ की गलत बातों पर बिलकुल मत देना ध्यान।

ये सुन कर बच्चा मुस्कुरा दिया। बच्चे की मुस्कराहट में माँ ने भी पूरा साथ दिया।

और इस तरह जिले-नफे की समझदारी से एक बच्चे का भविष्य अंधकार में जाने से बाल-बाल बच गया।

लेखक : सुमित प्रताप सिंह

Photo credits - Pradeep Yadav 

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