उदयपुर, राजस्थान में 8 जून, 1951 को जन्मी आशागंगा प्रमोद शिरढोणकर की शिक्षा-दीक्षा हाड़ौती क्षेत्र कोटा, राजस्थान में हुई तथा उन्होंने राजस्थान विश्वविद्यालय से संस्कृत साहित्य में परास्नातक किया है। उनको हिंदी, मराठी, संस्कृत, अँग्रेजी़ भाषाओं का ज्ञान है तथा सिंधी उनकी मातृभाषा है। उन्होंने 15 वर्ष में लेखन प्रारंभ किया तथा उनकी लेखन की विधाएँ कविता, कहानी, लघुकथा, हास्य-व्यंग्य, संस्मरण, आलेख, निबंध, रेखाचित्र इत्यादि हैं। उनकी लघुकथाएँ एवं कविताएँ 21 अखिल भारतीय साझा संग्रहों में प्रकाशित हो चुकी हैं तथा शीघ्र ही उनकी लघुकथाओं का संग्रह प्रकाशित होनेवाला है। उन्हें लेखन के क्षेत्र में अनेक पुरस्कार-सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। इस समय वह मध्यप्रदेश के उज्जैन शहर में साहित्य की शिप्रा में नियमित रूप से डुबकी लगाने में मग्न हैं। हमने कुछ प्रश्नों के माध्यम से उनकी साहित्यिक यात्रा के विषय में जानने का लघु प्रयास किया है।
सुमित प्रताप सिंह - आपको लेखन का रोग कब और कैसे लगा?
आशागंगा प्रमोद शिरढोणकर - बचपन से ही मुझे अपने जेबखर्च से धर्मयुग, सा. हिंदुस्तान, पराग, चंदामामा, नंदन, अरुण, सुषमा, सरिता, मुक्ता, माधुरी, नवचित्रपट आदि पत्रिकाएँ खरीदकर पढ़ने का चस्का लग गया था। आठवीं में थी कि समग्र प्रेमचंद, शरतचंद्र, टैगोर, ताराचंद्र बंद्योपाध्याय, अमृता प्रीतम, गुरुदत्त, शिवानी, जैनेंद्र आदि को पढ़ने में ही समय गुज़रने लगा था।
मेरे पिता एक साहित्यप्रेमी डॉक्टर थे। उनके पास महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब से डाक द्वारा सिंधी-उर्दू भाषाओं में कई दैनिक समाचार पत्र और पत्रिकाएँ आया करती थीं, उर्दू में ब्लिट्ज़ भी। उनमें पिताजी के लेख भी प्रकाशित हुआ करते थे। शायद पठन-पाठन का गुणसूत्र उन्हीं से विरासत में मिला।
1966-67 में मैं ग्यारहवीं में थी। शुरु से ही प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने और बेस्ट स्टूडेंट का पुरस्कार कलेक्टर के हाथों मिलने से हमारी हिंदी विषय की अध्यापिका श्रीमती शकुंतला पाराशर को मुझसे बड़ी आशाएँ थीं। विद्यालयीन वार्षिक गृहपत्रिका ' प्रेरणा ' की वह संपादक थीं और चाहती थीं कि पत्रिका के लिए कोई कविता-कहानी ज़रूर लिखकर दूँ।
लिखने का तो कोई अनुभव था नहीं। हाँ, गंभीर साहित्य के अध्ययन का अनुभव काम आया। कोशिश करके मैंने कक्षा दूसरी में हुए एक सच्चे अनुभव/संस्मरण को कहानी की तरह लिख डाला। इस तरह आपके शब्दों में ' लिखने का रोग ' लगा नहीं, लगाया गया और पिछले साठ वर्षों से यह संक्रमण यथावत है।
अगर कहूँ कि लेखन एक रोग नहीं, वरन एक महौषधि है हमारे मस्तिष्क और जीवन दोनों को ऊर्जस्वित रखने के लिए तो यह सत्योक्ति होगी, अतिशयोक्ति नहीं।
सुमित प्रताप सिंह - लेखन से आप पर कौन-सा अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ा?
आशागंगा प्रमोद शिरढोणकर - लेखन व्यक्तित्व एवं सोच को परिष्कृत व परिमार्जित करने में सहायक होता है। लेखक के सामाजिक अवदान को नकारा नहीं जा सकता। समाज में एक सम्मान्य स्थान पाना भी अच्छा प्रभाव है।
मुझे नहीं लगता कि लेखन से कोई बुरा प्रभाव भी पड़ता है। हाँ, साहित्यकार के साथ-साथ 'महिला' होने के नाते कुछ अति सम्मानित साहित्यकारों की कुत्सित दृष्टि का भी कभी-कभार सामना करना पड़ जाता है, लेकिन सामाजिक ठेकेदारों की मान्यता तो यह है कि यह पुरुष का दोष नहीं, 'नारी सशक्तीकरण' ही इसकी जिम्मेदार है।
सुमित प्रताप सिंह - क्या आपको लगता है कि लेखन समाज में कुछ बदलाव ला सकता है?
आशागंगा प्रमोद शिरढोणकर - जी हाँ, लेखन प्राचीन काल से ही समाज का दिशा निर्देशक रहा है। क्रूर विधर्मी आक्रमणों और परतंत्रता के दौरान साहित्य लेखन ने ही समाज को सांस्कृतिक रूप से एकजुट रखकर अध्यात्म और भारतीय अस्मिता को जीवित बनाए रखा। गुरु नानक और कबीर का लेखन तो समाज को बदलाव का संदेश देने का जीवंत उदाहरण है। वैसे भी जनजागरण तो लेखन के बिना संभव ही नहीं।
सुमित प्रताप सिंह - आपकी अपनी सबसे प्रिय रचना कौन सी है और क्यों?
आशागंगा प्रमोद शिरढोणकर - मेरी अपनी प्रिय रचना एक लघुकथा है 'नक़ाबपोश '। 2008 में महाराष्ट्र छोड़कर मैं उज्जैन स्थलांतरित हुई तो यहाँ स्कूल-कॉलेज की युवतियों को नकाबपोशी का अभ्यस्त पाया। बुर्कानशीन की तरह उनकी सिर्फ़ आँखें ही खुली दिखती थीं। मोटरसाइकिल पर लड़के के पीछे चिपककर बैठी नक़ाबपोश बालिका किसी की बेटी या बहन ज़रूर होगी। सार्वजनिक परिवहन में यात्रा के दौरान सामने जब भी और जितनी देर भी ऐसी लड़कियाँ देखती, मुझे अपने भीतर ऑक्सीजन की भारी कमी महसूस होने लगती और मेरा दम घुटने लगता था। विवश हो मुझे अपनी दृष्टि और ध्यान, दोनों को वहाँ से हटाना पड़ता था। एक बार तो सामने बैठी एक लड़की से पूछ ही लिया, "तुम्हें साँस लेने में तकलीफ़ नहीं होती?" वह चुप रही। बाद में सार्वजनिक यातायात साधनों को ही त्यागना पड़ा।
उसी समय मेरे भीतर एक विचार कौंधा कि अगर विवाह के बाद पर्दे की अभ्यस्त इस लड़की को घूँघट करना पड़ा तो यह ज़रूर विद्रोह पर उतर आएगी...और तभी इस लघुकथा का बीज अंकुरित हो गया।
पर्दाप्रथा को एक जर्जर रूढ़ि बतानेवाला युवा वर्ग स्वयं इसका कितना आदी हो चुका है, उनके इस विचार-विपर्यय के कारण मुझे अपनी यह रचना प्रिय है।
सुमित प्रताप सिंह - आप अपने लेखन से समाज को क्या संदेश देना चाहती हैं?
आशागंगा प्रमोद शिरढोणकर - मुझ जैसी गुमनाम लघुकथाकार की पुरज़ोर कोशिश रहती है कि लघुकथा लेखन के ज़रिए कोई-न-कोई न-कोई सामाजिक समस्या बीज रूप में उठाऊँ, साथ ही उसका संभावित समाधान और मनोवांछित संदेश भी उसमें गुंफित हो। यदि उस संदेश का प्रभाव एक प्रतिशत पाठक पर भी पड़ता है तो समझूँगी, लेखन सफल हुआ।