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शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

गीत : अभी असल तो है बाकी

जब 56 इंची सीनों ने
गोलीं बंदूक से दागीं 
दहशतगर्दों के अब्बू भागे
और अम्मी खौफ से काँपीं
ये तो सिर्फ नमूना था
अभी असल तो है बाकी...

धोखेबाजी और कायरता 
जिन दुष्टों के गहने थे
गीदड़ बनकर ढेर हुए 
जो खाल शेर की पहने थे 
हमपे गुर्रानेवालों की रूहें 
हूरों से जा मिलने भागीं 
ये तो सिर्फ नमूना था
अभी असल तो है बाकी...

नापाक पडोसी देता धमकी
एटम बम बरसाने की 
जबकि औकात नहीं उसकी 
खुद के बल रोटी खाने की
अब जान बचाने की चिंता में
डूबा होगा वो पाजी
ये तो सिर्फ नमूना था
अभी असल तो है बाकी...

शांतिवार्ता में खोकर 
हमने तो वक़्त गुजारा है
और उस बैरी ने धोखे से
खंजर ही पीठ में मारा है
ख़त्म करेंगे अब मिलके
उस मुद्दई की बदमाशी
ये तो सिर्फ नमूना था
अभी असल तो है बाकी...


दुनियावालो तुम ही समझा दो
अब भी वो होश में आ जाए
चरण वंदना कर भारत की
माफ़ी की भीख को ले जाए
वरना क्षणों में मिट जाएगा
दुनिया से मुल्क वो पापी
ये तो सिर्फ नमूना था
अभी असल तो है बाकी...
लेखक : सुमित प्रताप सिंह

शुक्रवार, 23 सितंबर 2016

व्यंग्य : प्रतिक्रिया

   मेशा की तरह फिर से पड़ोस से आतंकी हमला हुआ और इस आतंकी हमले में हमारे कई वीर सैनिक शहीद हो गए। इस लोमहर्षक घटना पर देश में सभी ने अपने-अपने तरीके से प्रतिक्रिया दी।
एक वीर रस के कवि ने इस आतंकी हमले पर त्वरित कार्यवाही की। उसने फटाफट एक आशु कविता का सृजन कर डाला। उसने कविता का आरंभ देश के सत्ता पक्ष को गरियाने और कोसने से किया और समापन शत्रु देश पर बम-गोले बरसाने के साथ किया। तभी उसके पड़ोस के किसी शरारती बच्चे ने उसके घर के बाहर पटाखा फोड़ दिया। पटाखे की आवाज सुन उस वीर रस के कवि ने अपने भय से काँपते हुए मजबूत हृदय पर अपने दोनों हाथ रखे और भागकर अपने घर के कोने में जाकर छुप गया।
सत्ता पक्ष ने सदा की भाँति निंदा नामक गोला निकाला और पड़ोसी देश पर दाग दिया। विपक्ष ने इस सुनहरे अवसर को हाथ से न निकल जाने देने के लिए अपनी कमर कसी और धरना-प्रदर्शन कर सत्ता पक्ष के नाक में दम कर दिया।
मीडिया ने भी इस मौके को भुनाने के लिए कुछ खाली टाइप के इंसानों को न्यूज़ रूम में आमंत्रित कर बहस का माहौल बनाया और धीमे-धीमे बहस इतनी गरमागरम हो गई कि जूतम-पैजार तक की नौबत आ गई। न्यूज़ चैनल ने इस बहस को दिन-रात बार-बार दिखाकर जनता के दिमाग का दही बना डाला।
देश के तथाकथित बुद्धिजीवियों ने इस दुर्घटना पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया और उन्होंने इसे आम घटना मानकर अपनी बुद्धि घिसने पर ही ध्यान केंद्रित रखा।
मानवाधिकार प्रेमियों ने भी इसे सामान्य घटना मानकर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, बल्कि वे प्रतीक्षा करने लगे कि कोई एनकाउंटर वगैरह हो और अपराधी अथवा आतंकी नामक कोई भला जीव सुरक्षाकर्मियों द्वारा पकड़ा अथवा मारा जाए और फिर वे सभी मानवाधिकार की दुहाई देते हुए छाती पीटते हुए विधवा विलाप करना आरम्भ करें।
देश की जनता को ये सब देख बड़ा रोष हुआ और उसने इसके लिए अपनी आवाज बुलंद की पर जनता की आवाज तो पाँच सालों में एक बार ही सुनी जाती है और अभी उसमें काफी समय बाकी था। सो जनता ने कुछ देर चिल्ल-पौं की और फिर शांत हो अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गई।
इन सबसे इतर शहीद जवानों की माएँ और पत्नियाँ अपने-अपने लालों को सैनिक बन मातृभूमि की रक्षा करने के लिए पाल-पोसकर तैयार करने लगी। यह देख जननी जन्मभूमि ने उन वीरांगनाओं को कई-कई बार नमन किया। 
लेखक : सुमित प्रताप सिंह 

बुधवार, 21 सितंबर 2016

कविता : हल्के लोग

हल्के लोग
करते हैं सदैव
हल्की ही बातें
और करते हैं 
सबसे ये उम्मीद क़ि
उनकी हल्की बातों को
भारी माना जाए
इसके लिए देते हैं
वे बड़े-बड़े और
भारी-भारी तर्क
जब भी उन्हें
समझाया जाए
उनके हल्के
होने के बारे में
तो उतर आते हैं
वे अपने हल्केपन पर।

लेखक : सुमित प्रताप सिंह

शुक्रवार, 16 सितंबर 2016

व्यंग्य : मच्छर तंत्र


    पिछले दिनों अपना पड़ोसी देश मलेरिया मुक्त घोषित कर दिया गया है जैसे हर नेक पड़ोसी के दिल में अपने पड़ोसी की अच्छी खबर को सुनकर आग लगती है वैसे ही इस खबर को सुनकर हमारा भी कलेजा धधकने लगा है देशवासी सोच रहे हैं कि एक छोटा सा देश इतना बड़ा काम कर गया और हमारा इतना बड़ा देश ये छोटा सा काम क्यों नहीं कर पाया? असल में देश तो अपना भी मलेरिया अथवा अन्य मच्छर जनित रोगों से अब तक मुक्त हो जाता लेकिन हमारे देश के सफेदपोश मच्छरों ने ऐसा होने ही नहीं दिया  वे तो आपस में लड़ने-झगड़ने और एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने में भी ही व्यस्त रहे उनकी व्यस्तता का लाभ पारंपरिक मच्छरों ने उठाया और जनता को अपने जहरीले डंक से इस दुनिया के मोह-माया और दुखों से मुक्ति दिलवाने में योगदान देते रहे जनता तड़पते-तड़पते मरने को विवश होती रही, लेकिन सफेद्फोश मच्छरों को कोई फर्क नहीं पड़ा फर्क पड़ता भी क्यों? सफेदपोश मच्छरों ने आंकड़ा नामक शस्त्र का ऐसा प्रयोग किया कि उनपर लगनेवाले सारे आरोप इस शस्त्र के सामने पल भर में धराशाही हो गए आंकड़ा शस्त्र धारण किए हुए योद्धाओं ने ऐसा चक्रव्यूह रचा कि मच्छर जनित बीमारियों से हुईं मौतों की असली संख्या उस चक्रव्यूह से निकलकर कभी बाहर आ ही न सकी भूले से किसी मौत की सच्चाई सामने आ भी गई तो जवाब में झट से आश्वासन का झुनझुना पकड़ा दिया गया जनता बेचारी उस झुनझुने में उलझकर रह गई और मच्छरों ने निर्भय होकर फिर से अपने आदमी मारू मिशन के लिए कमर कस ली मच्छरों को भी ये मालूम था कि अगर वो लाचार मानवों का खून चूसकर उनके शरीर में डेंगू, मलेरिया, चिकनगुनिया अथवा जीका इत्यादि बीमारियों का जहर भर रहे थे तो उसी प्रकार सफेदपोश मच्छरों ने भी देश का खून चूस-चूसकर उस ख़ून को स्विस बैंकों को सप्लाई कर बदले में गरीबी और बेकारी जैसी बीमारियों का जहर उसके शरीर में भर दिया था हमेशा की तरह इस बार भी कागजों पर अब भी जमकर फोगिंग हो रही है और मच्छर जनित रोगों से लड़ने की विभिन्न योजनाएँ बन रही हैं सफेदपोश मच्छर पारंपरिक मच्छरों के साथ मिलकर मच्छर राग गा रहे हैं और इस मच्छर राग के शोर में मरती जनता की करुण पुकार किसी को सुनाई नहीं दे पा रही है कभी-कभी लगता है कि जैसे हम लोकतंत्र में नहीं बल्कि मच्छर तंत्र में जी रहे हैं

लेखक : सुमित प्रताप सिंह


शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

व्यंग्य : चिट्ठी आई है



    चिट्ठी आई है। किसी के घर में नहीं बल्कि मीडिया में आई है। किसी ऐरे-गैरे ने नहीं बल्कि भारतीय सिनेमा के महानायक ने इसे लिखा है। इसलिए ये चिट्ठी स्वतः ही चिट्ठियों की महानायिका बन गई और मीडिया ने इसे हाथों-हाथ ले लिया। इसमें वास्तविक जीवन में नाना-दादा का डबल रोल कर रहे महानायक की भावनाओं का समंदर भरा हुआ है। एक जमाना था जब नाना और दादा के रूप में बुजुर्गों को नाती-पोते निष्ठा और आदर से सुनते थे पर अब इतना समय नाती-पोतों के पास है ही कहाँ जो वो अपने खूसट नाना या दादा की फालतू बातें सुन सकें। और यहाँ तो खुद नाना/दादा ही महाव्यस्त हैं। हालाँकि महानायक अपने अति व्यस्त समय में से कुछ पल निकालकर अपनी नातिन व पोती को बिना चिट्ठी लिखे भी जीवन के फलसफे समझा सकते थे, लेकिन वो महानायक जो ठहरे। सो कोई भी कार्य करेंगे भी तो महानायकीय अंदाज में। इसलिए उन्होंने चिट्ठी लिखकर समझाने का फैसला किया। पर उन्होंने चिट्ठी लिखकर सीधे नातिन और पोती को क्यों नहीं दी? कहीं उन्हें ये अंदेशा तो नहीं था कि वो दोनों चिट्ठी का हवाई जहाज बनाकर हवा-हवाई न कर दें। सोचिए ऐसा होने से महानायक के दिल को कितनी ठेस पहुँचती? इसीलिए शायद उन्होंने ये रिस्क नहीं उठाया। वैसे भी बड़े और चर्चित व्यक्ति कोई कार्य करें और दुनिया को पता न चले तो धिक्कार है उनके बड़े और चर्चित होने पर। जैसे घर की मुर्गी दाल बराबर होती है वैसे ही ऐसा भी हो सकता था कि ‘घर की चिट्ठी बेकार पर्ची बराबर’ जैसा कोई नया मुहावरा ईजाद हो जाता और चिट्ठी अपनी बेकद्री पर आँसू बहाती रहती। इसलिए शायद चिट्ठी ने ही अपने रचयिता के सम्मान में ये फैसला लिया हो कि नातिन या पोती के पास जाने से पहले दुनिया की सैर कर ली जाए और अपने रचयिता के महानायकीय सम्मान में थोड़ी और वृद्धि कर ली जाए। इधर चिट्ठी घुमक्कड़ बन मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर घूमने-फिरने में मस्त है और उधर बेचारी नातिन और पोती पलकें बिछाए चिट्ठी के आने की राह तक रही हैं। महानायक भी सोच रहे हैं कि चिट्ठी को तब तक व्यस्त रहने दो जब तक कि इसे दुनिया की हर नातिन और पोती न पढ़ ले। अपनी नातिन और पोती का क्या है उनके लिए कोई दूसरी चिट्ठी लिख दी जाएगी। पर क्या वास्तव में नातिन और पोती उस चिट्ठी को पढ़ना चाहेंगीं? फ़िलहाल तो यह एक यक्ष प्रश्न है।   

लेखक : सुमित प्रताप सिंह